कड़ी धूप में सफेद न होने का मतलब मोगरा की कली कच्‍ची है

सक्सेस सांग

राम-मंदिरों पर चढ़ाने वाले फूल बीनने वाली हमीदा

: भूख से जूझने के हौसले ने पहुंचा दिया ऊंचे मुकाम तक : कक्षा-3 से ही फैजाबाद फूल चुनने से फूंका घर का चूल्हा : आज हजारों लड़कियों को हौसला दिलाने की मुहिम छेड़ रहीं : कड़ी बंशिदों के चलते दब जाती हैं मुस्लिम औरतों की आहें :

हमीदा कोई खास महिला का नाम नहीं है। दरअसल यह तो नाम है हमारे-आपके आसपास उन महिलाओं का नाम है जो अपनी जिन्‍दगी में थप्‍पड़ों का मुकाबला जवाब के तौर पर दर्ज कराते हैं और पीडि़त महिलाओं को अहसास कराते हैं कि प्रतिकूल हालातों से कैसे निपटा जा सकता है। हमने पिछले अंक में बताया था कि हमीदा की जिन्‍दगी कैसी रही और किन हालातों में हमीदा ने कैसे अपना संघर्ष किया। अब प्रस्‍तुत है हमीदा से हुई बातचीत:-

घर में तो कड़ा पर्दा था, फिर फूल चुनने का काम कैसे किया ?

मजबूरी। पिता की हालत खराब होती जा रही थी। मेरी तीनों बड़ी बहनों को मदरसे की 3-4 दर्जे तक पढ़कर घर के पर्दे में बिठाया जा चुका था। मैं तो टाट-पट्टी वाले प्रायमरी स्कूल में गयी। मेरी ही जिद थी वह। यह हमारे परिवार की फाकाकशी का दौर था। 3 कक्षा में थी मैं। मुझे लगा कि मैं खुद कुछ काम करूं। भूख आंतों को मरोड़कर सिर पर चढ़ने लगती थी। अचानक एक दिन मैं मालियों की बस्ती में गयी। पहले तो उसने टालना चाहा, फिर गमछा देकर मोगरा की कलियां चुनने को कहा। पांच रूपये फी किलो की दर से मजदूरी तय हुई। कुछ ही दिनों में तो मैं 5-6 किलो कलियां चुनने लगी थी। लेकिन यह काम केवल कड़ी धूप में ही होता था।

गर्मियों के दिनों में ? दोपहर में क्यों ?

वजह यह कि मोगरा की पक्की कलियों की पहचान उसकी सफेदी से ही होती है और यह केवल कड़ी धूप में ही मुमकिन है। सफेदी कम हुई तो समझिये कली कच्ची है। अरे कड़़ी धूप में मेरा चेहरा जल गया। बिलकुल कोयला।

मतलब चूल्हा जलना शुरू हो गया ?

अरे इतनी कमाई से घर में खुशहाली आ गयी। लेकिन जब कक्षा 6 में आयी तो अब्बा की मौत हो गयी। मैं और मेहनत करने लगी। छोटी थी ही ना, सुबेरे 4 बजे तक चांदनी के पेड़ पर चढ़ कर चांदनी भी चुनने लगी। अपनी बहनों से मैंने कहा कि इकट्ठा किये गये फूलों से माला पिरोओ। हर लड़ी पर दस पैसा। आराम से 100 मालाएं बन जाती थीं, तो दस रूपया अतिरिक्त, आने लगा।

फिर ?

इंटर तक पढ़ाई और कमाई का दौर चलने लगा। अचानक एक सम्‍पन्‍न और शिक्षित पड़ोसी की लड़की ने मुझे बुलाकर कहा:- सुबह-दोपहर को खेतों में काम करते तुम्हें शर्म नहीं आती। मैंने तमक कर जवाब दिया:- जो शर्म करते हैं, वो हमेशा भूखे रहते हैं। यह लड़की एक बड़ी शैम्पू कम्पनी में काम करती थी, मेरा जवाब सुन कर उसने मुझे नौकरी दिलाने के लिए इंटरव्यू कराने लखनऊ आने को कहा। मैं इंटर की छमाही उर्दू परीक्षा छोड़ कर लखनऊ में इंटरव्यू, करने आयी और सलेक्ट हो गयी। हालांकि मुझे अंग्रेजी आती ही नहीं थी लेकिन काम बढिया किया। हर हफ्ते के दो हजार रूपये और हर महीने दो हफ्तों का काम। मेरी तो जैसे लॉटरी लग गयी। उधर सन-03 इंटर में मैं अपने पूरे कालेज में फर्स्ट आयी। इस सफलता से मेरा नाम चमक गया और तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मुझे 20 हजार रूपया का कन्या–राशि दी। अपने हाथों से। उधर कम्पनी ने मुझे टीम लीडर बना कर दिया और वेतन हो गया करीब 14 हजार रूपया महीना। दो बहनों की शादी इसी रकम से हुई। छोटी बहन की पढ़ाई शुरू हो गयी। मैं भी साकेत डिग्री कालेज में दाखिला पा गयी। हमारा अंदाज बदल गया, कपड़े-बैग के साथ स्टाइल भी बदला।

यानी स्वर्णिम दिन शुरू हो गये ?

नहीं, दुश्वारियां जरूर बढने लगीं। दरअसल इसी बीच कम्पनी के एक बड़े अफसर ने फैजाबाद के शानेअवध में मीटिंग की। जिन्दगी में पहली बार किसी होटल में गयी थी मैं। काफी और पनीर के पकौड़े कभी चखे तक नहीं थे। माहौल ऐसा जैसे फिल्मों में होता है।

जबर्दस्‍त पाबंदिशें और होटल ! डर नहीं लगा ?

मुझे तो लगा था मानो मैं कोई ख्वाब देख रही हूं। अभिभूत थी। खुश होकर मोहल्ले भर को बताया कि मैं बड़े होटल गयी, बड़े-बड़े लोगों के साथ काफी पी और पनीर-पकौड़े खाये, वगैरह-वगैरह। लेकिन हमारी इन बातों के साथ ही मोहल्ले में जैसे भूचाल आ गया। जो हमारे ही थे, उन्होंने कहना शुरू किया कि हमीदा तो धंधा करती है और इसीलिए होटलों में जाती है। पड़ोस की महिलाओं ने अपनी बेटियों से साफ कह दिया कि हमीदिया तो गल्‍ली-गल्‍ली छुछुआती रहती है, उससे रिश्‍ते नहीं रखो। मैं और हमारा पूरा परिवार भौंचक। दरअसल, यह हमारे समाज की रवायत है कि किसी लड़की को आसानी से नीचे दिखाना हो तो सीधे उसके करेक्टर पर हमला कर दो। और वही हुआ।

और साकेत डिग्री कालेज की पढ़ाई ?

नौकरी की व्यस्तता और उसे लेकर होने वाली चर्चाएं कालेज में भी होनी लगी थीं। मैंने पहली बार शिद्दत के साथ महसूस किया कि लोग मदद या खाना तो नहीं देंगे, लेकिन दूसरे को खाना मयस्सर होना उन्हें सहन नहीं होता। दूसरे का सुकून नहीं, उल्टे वह देखकर उनकी छाती फटती है।

और परिवार ?

परिवार आखिर करता भी तो क्या। मां और बहनें लाचार थीं। बड़े भाई को पीलिया की गंभीर बीमारी हो गयी थी, जबकि छोटे भाई कमाई शुरू कर चुके थे, लेकिन अब तक उनके तेवर ही बदल चुके थे। उसने शादी कर ली और घर से अलग हो गया। हमारा कामधाम और यह नई जुड़ी शोहरत से वह भी मेरे खिलाफ हो चुका था।

इसके बाद ?

किसी तरह बीए पास किया। अचानक एक बड़े परिवार के घर बर्थडे में मेरी सहेली ने बुलाया। मैं गयी तो वहां एक अन्‍य महिला से मित्रता हुई तो वनांगना में काम करती थी। बातचीत के बाद तय किया कि अब चाहे सिलाई-कढ़ाई करनी पड़े लेकिन अब फैजाबाद से दूर रहूंगी। बस, आ गयी लखनऊ। फिर आली, सनतकदा जैसे ठिकानों में देखा। मुझे भी परखा गया और मैं पास हुई। एक हफ्ते भर में कम्यूटर सीख लिया। अचानक प्रवाह नामक संगठन की ओर से आमंत्रण पर मेरा प्रपोजल तैयार हुआ जो प्रदेश में इकलौता सलेक्ट हुआ। महिलाओं में लीडरशिप बिल्डिंग पर। प्रोग्राम्‍स लगने लगे।

फील्ड में क्या-क्या दिक्कतें आयीं ?

हां, लेकिन सीधे मुझे नहीं, बल्कि प्रोग्राम्‍स में शामिल महिलाओं को लेकर। उनके परिवारवालों ने यह तक पूछा कि बाल क्यों कटवाती हो, क्यों नेलपॉलिश लगाती हो। कठमुल्ला-टाइप लोग भी हस्तक्षेप करने लगे। सवाल उठे कि नमाज पढ़ती हो। आजिज आ गयी मैं। अरे, नमाज पढ़ना हमारा और अल्ला‍ह के बीच का मामला है, फिर आप क्यों बीच में पड़ते हैं। लेकिन मैंने दिमाग शांत रखते हुए अपने तर्क बताये, बताया कि कैसे बीबी खदीजा वगैरह महिलाओं ने मुस्लिम औरतों का मुकाम ऊंचा पहुंचाने ने कितना संघर्ष किया है। तब थोड़ी-बहुत समझ आने लगी उन लोगों को। जाति-धर्म का अड़गा भी खूब लगा। लेकिन अब जीवन के जरूरी मसलों के साथ ही साथ कानूनी जानकारियों को लेकर महिलाओं में लीडरशिप डेवलपमेंट करती हूं।

तब के और अब के फैजाबाद में अपने बारे में आपको कैसा महसूस लगता है ?

जब मैं फैजाबाद में नौकरी करती थी, तब मोहल्ले वाली महिलाएं मेरे बारे में बातें करती रहती थीं कि गल्ली-गल्ली छुछुआवत है यह हमिदिया। लेकिन लखनऊ में पहुंच जाने पर अब वही महिलाओं अपनी बेटियों को बेकारी का ताना देने लगीं कि अरे कुछ काम करो, अपनी हमीदा फुफ्फू से ही सीख लो तो जिन्दगी बदल जाएगी।

मार्केटिंग रिसर्च प्रमोशन और एनजीओ के कामों में क्या फर्क समझती हैं आप ?

उसमें पैसा था, जबकि यहां सम्मान। मैं सोचती हूं कि अगर मैं मार्केटिंग रिसर्च गर्ल ही बनी रहती तो, तो सब कुछ मिल सकता था, लेकिन आज जो मुकाम हासिल हो चुका है, वह नहीं होता।

अब क्या  लक्ष्य है। क्या  शादी ?

अभी कई हसरतें बाकी हैं। शादी तो बाद में सोचूंगी। मैं चाहती हूं कि महिला होने के बावजूद मैं अपने बल पर विदेश जाऊं। सूडान, कीनिया वगैरह। वहां की हालत यहां से भी बदतर है। एक बार मौका मिला था, लेकिन तब पोसपोर्ट ही नहीं था तब। पहले यह साबित तो कर दूं कि एक औरत अगर चाहे तो अपने अकेले दम पर बहुत कुछ कर सकती है। फिर शादी, अगर मुमकिन हुई तो। मैं चाहती हूं कि मेरे पति में खुलापन हो, बातें और भावनाएं समझे। एक-दूसरे की वैल्यू समझे। ससुराल की ही तरह मेरे मायके के लोगों की भी भावनाएं और सम्मान दे। हर रिश्ते को समान हक मिले। बस

हमीदा तो महिलाओं के मूलत: जुझारू चरित्र का नाम कहा जा सकता है। हमने हमीदा की जिन्‍दगी को करीब से पढ़ने-देखने की कोशिश की है। आप अगर हमीदा के हौसलों को देखना चाहें, तो क्लिक करें गलियों में छुछुआती कही जाती लड़की अचानक हमीदा-फुफ्फू बन गयी

हमीदा पर केंद्रित लेख डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट समाचार-पत्र में भी प्रकाशित हो चुका है।

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