: उप मुख्यमंत्री डॉ दिनेश शर्मा जैसे मित्रों ने जो मुझे सम्बल दिया, वह बेमिसाल : मित्रता का मूल्यांकन भौतिक अपेक्षाओं से होगा, फिर तो वह सौदेबाजी होगी : कई लोग आज भी चाहते हैं कि कुमार सौवीर अपने कुमारसौवीरपना यथावत, सुरक्षित और स्वस्थ बना ही रहे : साशा की शादी के किस्से -तीन :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मेरी बेटी, यानी साशा सौवीर के पाणिग्रहण समारोह में भारी मित्र-बंधु-बांधव जुटे। न कोई औपचारिकता और न ही कोई हिचकिच। हालांकि इस विवाह कार्यक्रम के आयोजन में कई मित्र जुटे थे मेरा सहयोग करने के लिए। जिससे जो भी हो सकता था, उसने तत्काल पूरा किया। जोधपुर के पाली-मारवाड़ तक से ओम टाक से मैंने कहा कि सोजत की मेंहदी चाहिए। तीन दिन के भीतर ही विश्वविख्यात सोजत की पांच किलो मेंहदी और उसके दो दर्जन कोन कोरियर से आ गये। यह स्नेह का रिश्ता है, वरना सन-03 में ही मैंने पाली-मारवाड़ छोड़ दिया था। लेकिन रिश्तों की गर्माहट 15 बरस के बाद भी जस की तस थी।
बहरहाल, विवाह में मैंने जिसे बुलाया, वह आया। कुछ लोगों को छोड़ कर। हां, तो जिसे नहीं बुला पाया, वह भी पहुंच गया, बेहिचक आया। लेकिन जिस तरह डॉक्टर दिनेश शर्मा ने साशा के विवाह में अपनी भागीदारी निभाई, वह किसी भी मित्र के लिए सर्वोच्च गर्व का विषय बन सकती है। दिनेश शर्मा भले ही आज यूपी के उप मुख्यमंत्री हों, लेकिन मेरा उनसे रिश्ता खासा गहरा है। लोगों के लिए विस्मयकारी हो सकता है। लेकिन जिस तरह जीवन के एक-एक लम्हों को हम दोनों ने जिया है, वे मेरे लिए बेमिसाल रहे हैं। स्नेह की डोर की ताकत ही तो है यह, कि डॉ दिनेश शर्मा ने 20 फरवरी को अपने पूर्व-निर्धारित गोरखपुर के अपने दौरे को जैसे-तैसे निपटाया, और सीधे शादी के मण्डप पर पहुंच गये। समय से। उस वक्त द्वारचार की तैयारी चल रही थी।
दूल्हा सौमित्र को दोनों ही पक्षों के पण्डित-ब्राह्मणों के सामने बिठाया जा चुका था। ब्राह्मणों ने मुझे बुलवाया। पुकार होते ही मैं जाहिर हो गया। अभी बैठने ही जा रहा था कि दिनेश शर्मा का काफिला आने का हल्ला मच गया। आसन से उठ पाना अब मुमकिन नहीं था। उनके साथ कोई औपचारिकता की भी जरूरत नहीं थी। पता ही था कि मुझसे मिले बिना दिनेश जी वापस नहीं जाएंगे। इसलिए मैंने पाल्थी मार कर ली और अपने कपड़ों को व्यस्थित करना शुरू कर दिया।
हुआ हो ही रहा था कि अचानक शोर-गुल मेरी ओर बढने लगा। अचानक मेरे कंधे पर डॉ दिनेश शर्मा जी ने अपना हाथ रखा और फुसफुसाते हुए बोले कि, “मैं पहुंच गया हूं। देख लो, बिलकुल समय पर पहुंचा हूं।” मैं मुस्कुराया, उनका हाथ थपथपाया। कि तभी डॉ दिनेश शर्मा मेरे पीठ से होते हुए मेरे और पंडित जी के बीच की जगह में अपना स्थान बनाते हुए पालथी मार कर बैठ ही गये। मंत्रोच्चार प्रारम्भ हो गया। करीब बीस मिनट तक औपचारिकताएं पूरी होती रहीं। दिनेश जी लगातार उस कार्यक्रम में अपने सक्रिय भागादारी निभाते ही रहे। ऐसा लगा ही नहीं कि यूपी सरकार का कोई बड़ा ओहदेदार और खासी बड़ी राजनीतिक शख्सियत हमारे बीच मौजूद है।
द्वारचार की यह प्राथमिक औपचारिक के बाद दोनों ही पक्षों के ब्राह्मणों-पंडितों को दक्षिणा देने की परम्परा शुरू होने लगी। मैंने बेटी बकुल और मित्र एसबी मिश्र वगैरह की ओर इशारा किया। वे लोग अभी पैसा निकालने ही जा रहे थे कि डॉ दिनेश शर्मा ने मामला भांपा, और बोले कि नहीं, नहीं। दक्षिणा मैं दे रहा हूं। आखिरकार हम अपने बिटिया की शादी कर रहे हैं। सब मिल कर करेंगे यह पवित्र अनुष्ठान। यह कहते ही डॉ दिनेश शर्मा ने अपनी सदरी की भीतरी जेब से पर्स निकाला। उसमें से रूपये निकाले और दोनों ही पक्षों के ब्राह्मणों को सामान्य तौर पर दिये जाने वाली दक्षिणा से भी काफी ज्यादा ही अर्पित कर दिया। यह औपचारिकता नहीं, बल्कि उनका एक संकल्प ही था कि साशा-बकुल उनकी भी बेटियां हैं।
बहरहाल, इस कार्यक्रम के बाद दिनेश शर्मा ने वहां मौजूद सभी लोगों में से सभी जगह घूम-घाम कर वहां मौजूद हर-एक गणमान्य लोगों से भेंट-मुलाकात की। फोटो सेशन चले। (क्रमश:)
मित्रता के सर्वोच्च मूल्यों, आधारों और मजबूत पायदानों को छूने की कोशिश करने जा रही है यह कहानी। जहां कठिन आर्थिक जीवन शैली में घिरे होने के बावजू जीवट वाले व्यक्ति, और सफलताओं से सराबोर कद्दावर शख्सियत की मित्रता का गजब संगम होता है। यह जीती-जागती कहानी है, सच दास्तान। मेरी बेटी साशा सौवीर की शादी पूरे धूमधाम के साथ सम्पन्न हो जाने की गाथा। इसकी अगली कडि़यों को महसूस करने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-