कलावती को महिला दिवस पर कलाकंद खिलाने निकला रामसमुझ

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

प्रत्यक्ष आय में जुटे पुरूष से दोगुना परोक्ष कमाती है घरेलू महिलाएं

: केवल कहने से महिलाओं का सम्मान नहीं, समझने से होगा : केवल एक कहानी तक ही सिमटी नहीं है चार बच्चों की मां कलावती :

रामसमुझ कल बहुत नाराज था। घर में पत्नी से झगड़ा और मारपीट तक कर ली थी। गुस्सा उतरा नहीं तो आज बिना खाये ही काम पर चला गया। रो-रो कर सूजी आंखें और पिटाई से चोट खायी कलावती ने भी एक दाना तक हलक से नीचे नहीं उतारा। उसकी कहानी सुन कर मन उचट गया और मैं बगिया में खटिया पर लेटकर सोचने लगा कि आखिर गड़बड़ी कहां है। एक दफ्तर में चपरासी रामसमुझ का वेतन ढाई हजार रूपये महीना है। घर से सात मील की दूरी पर सायकिल से शहर स्थित दफ्तर में दिनभर खटने, अफसरों-बाबुओं की डांट-फटकार और उनका निजी काम तक निपटाने के बाद आठ बजे से पहले वह घर नहीं लौट पाता है। स्वभाव से सीधा रामसमुझ अब अगर समय से खाना भी न पाये तो नाराजगी स्वाभाविक ही है। तुर्रा यह कि कल वह दारू पीकर घर लौटा था। फिर क्या, कल देर रात तक उसके घर हल्ला मचा।

लेकिन कलावती भी कहां दोषी है। कुल 21 साल की उम्र में ही वह अब तक तीन बच्चों की मां बन चुकी है, चौथा पेट में है। भोर होते ही घर में बर्तनों की खड़खड़ से शुरू होती उसकी दिनचर्या बच्चों की चें-पें, पति की हड़बड़ी, गाय-गोरू और खेत की देखभाल, चूल्हा-चौका, घर की सफाई और उन सबसे गुजरते हुए सबको लिटा-सुलाकर ही खत्‍म होती है। अक्सतर उसके बच्चे व्यस्तता में चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। छुटके को अक्सर वह समय से दूध तक नहीं पिला पाती है। भरापूरा बदन लेकर रामसमुझ के घर आयी कलावती आज पांच साल में ही ठठरी बन कर रह गयी है। हैरत की बात है कि यह पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति बहुत संवेदनशील और भावुक हैं, ऐसी हालत में आज की यह खटपट मुझे कष्ट दे गयी। जाहिर है कि कहीं न कहीं, कोई न कोई फांस है जरूर। और जाहिर है कि मामला परिवार के भरण-पोषण से ही जुड़ा है।

आखिरकार मैंने तय किया कि कलावती की दिनचर्या का आर्थिक मूल्यांकन कर लिया जाए तो शायद कोई नतीजा निकल सके कि उसके घर में दरअसल कौन ज्यादा कमाता है। यानी जो काम कलावती करती है, उसे यदि रामसमुझ अगर किसी दूसरे से कराये तो उसे कितना व्यय करना पड़ेगा। मतलब साफ है कि अगर रामसमुझ के कामों के बदले उसकी आर्थिक क्षतिपूर्ति ज्यादा होती है, तो कलावती की नाराजगी नाजायज है। लेकिन अगर कलावती के कामों के बदले मिलने वाला, परोक्ष ही सही, आर्थिक सहयोग ज्यादा है मतलब यह कि कलावती पर रामसमुझ की नाराजगी सिरे से गलत है। दरअसल, मैं यह देखना चाहता हूं कि अर्थात सारा काम दूसरों के बजाय खुद करके वह कितने रूपयों की बचत कर लेती है।

तो, लीजिए। तैयार हो जाइये यह देखने के लिए कि रामसमुझ और कलावती अलग-अलग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष आय-उपार्जन कर अपने परिवार में अपना कितना-कितना योगदान कर रहे हैं।

घर की सफाई-पोंछा और बर्तन धोना वगैरह 500

रसोई पकाना ( परोसना नहीं ) 1200

बुजुर्गों की सेवा-टहल, अतिथियों का स्वागत 1500

घर के लिए ईंधन जुटाना, लकड़ी बीनना 600

बच्चों की देखभाल के लिए दाई ( पूरा दिन ) 3000

खेत-फुलवारी की देखभाल 3000

गाय-गोरू की देखभाल, दुहना ( पूरा दिन ) 1500

चारा लाना और काटना 900

कपड़े धोना, सुखाना, इस्तरी करना, बटन-रफू आदि 600

बाजार-हाट, मोलभाव 1500

घर की चौबीसों सुरक्षा-निगरानी 4500

अब चूंकि विधाता यानी गॉड, अल्लाह और ईश्वर ने मातृत्व सुख का अधिकार केवल महिला को ही दिया है, इसलिए इसके इस काम का मूल्य तो हर्गिज नहीं आंका जा सकता है। बहरहाल, घर से निकल कर बारह घंटे बाद वापसी तक रामसमुझ की मासिक आय 9 हजार रूपया नकद होती है, जबकि कलावती की करीब 18 घंटों की दिनचर्या का आर्थिक मूल्यांकन कम से कम 20 हजार रूपया प्रतिमाह तक आता है।

इसमें उस अनमोल वाले दूध की कीमत का आंकलन नहीं किया गया है, जो अपनी छाती से अपने बच्चों को पिलाती है। वहीं अगर डिब्बाबंद दूध का प्रयोग किया जाता तो उसका भी भारी-भरकम खर्चा अलग से हो जाता। आईएमए वाराणसी के डॉ अरविंद कुमार सिंह, जौनपुर के शिवांगी क्लीनिक व डायग्नोस्टिक्स  के डॉ देवप्रकाश सिंह और लखनऊ के निशातगंज वाली अजय क्लीनिक के डॉ अजय दत्त शर्मा समेत किसी भी डॉक्टर से पूछ लीजिए, तो आपको पता चल जाएगा कि एक मां अपने एक बच्चे को 364 लीटर अपनी छातियों से दूध पिलाती है। और वह भी ऐसा-वैसा दूध नहीं, बल्कि दैवीय गुणों से लैस दूध।

मतलब यह है कि कलावती अपने पति रामसमुझ की प्रत्यक्ष आय-उपार्जन से दोगुना से भी ज्यादा परोक्ष-आय-उपार्जन यानी तनख्वाह पाने वाला काम करती है। हैरत की बात तो यह है कि कलावती को रामसमुझ की तरह रविवार और अन्य सार्वजनिक छुट्टियों का तो लाभ मिलना तो दूर, उसे होली-दीवाली, गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस जैसे अवकाश दिनों पर भी पूरा अवकाश मुहैया या मयस्सर नहीं होता है। यानी, शायद कई मामलों में तो बिलकुल बंधुआ मजदूर से भी ज्यादा बदतर।

अंधेरा होते ही मैं रामसमुझ की वापसी की प्रतीक्षा में बैठ गया। उसके आते ही मैंने उसे बुलाया और उसका तथा कलावती के कार्यों का आर्थिक मूल्यांकन उसके सामने रख दिया। पहले तो वह मुंह बाये बुक्का-फाड़े बातें सुनता रहा। फिर अचानक उठा और खड़ा होकर बोला:- कल ही मैं नसबंदी कराऊंगा। घर के कामों में भी कलावती की मदद करूंगा। छुट्टी के दिनों में सारा घरेलू काम करूंगा। और भइया जी, बच्चों की कसम खाकर कहता हूं कि आज और अभी से ही दारू पीना तो बिलकुल ही बंद। लेकिन पहला काम तो मैं यह करने जा रहा हूं कि कलावती के लिए हलवाई के यहां से कलाकंद खरीदवा लूं।

( मैंने यह कहानी उप्र भूमि सुधार निगम की भूमित्र नामक मासिक पत्रिका के लिए लिखी थी, जो भूमित्र पत्रिका के मार्च-1999 के अंक में प्रकाशित हुई। )

 

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