: दो-कौड़ी के मूर्खों की खबर पहले पन्ने पर बैनर लगा दिया : राजकिशोर को राज्यसभा भिजवा कर अब खालिस मूर्खता कर रहा है प्रभात खबर अखबार :
मनोहर रूद्र पांडेय
रांची : हम सब जानते हैं, आगामी 22 जनवरी की अहले सुबह निर्भया के चार बलात्कारियों व जघन्य हत्यारों को फाँसी दे दी जायेगी। पूरा देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा है। इसकी पूरी संभावना है कि फाँसी के बाद देश भर में खुशियाँ भी मनाई जाएँगी, मिठाइयां भी बंट सकती हैं। विशेषकर निर्भया के माता-पिता चैन की साँस लेंगे कि उनकी बेटी के साथ जो हुआ उसका न्याय अब जाकर हुआ। मैं उस संवेदना का पूरा आदर करता हूँ।
लेकिन मेरा प्रश्न एक अलग परिप्रेक्ष्य में है। मैं सोचता हूँ कि क्या फाँसी ऐसे कुकृत्य के लिए बराबरी का दण्ड है? मुझे तो नहीं लगता। आख़िर हम ऐसा क्यों सोचते हैं कि फाँसी से ऐसे कुत्सित विचार रखनेवालों में खौफ पैदा होगा?शायद आप जानते होंगे,विश्व के लगभग 140 देशों में फांसी की सजा नहीं है। मात्र 58 देशों में फांसी का प्रावधान है। जिन देशों में फांसी की सजा नहीं है, उन देशों में बलात्कार सदृश अपराध का ग्राफ फांसी वाले देशों से कम है। सवाल यह है कि क्या बिना फांसी के फंदों पर लटकाए अपराधियों से निबटने का और कोई उपाय नहीं? या फाँसी से भी बड़ी व कठोर सज़ा कोई है क्या?
मुझे ऐसा लगता है कि इन्हें ऊपर से नीचे तक लोहे की जंजीरों से लाद दिया जाना चाहिए और जेल में एक ऐसी अँधेरी कोठरी में डालकर मृत्युपर्यन्त रखना चाहिए,जहाँ वे ठीक से खड़े भी न हो सकें। धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ती मौत अधिक खौफ़नाक होती और लोगों में बड़ा डर पैदा होता। फाँसी से क्या होगा, एक झटके में खेल खत्म। लोग तुरंत भूल जाएंगे। निर्भया की माँ को अभी आगे आकर इन अपराधियों की फाँसी रूकवा देनी चाहिए, इस शर्त पर कि फाँसी से भी कड़ी और बड़ी सज़ा उन्हें मिले, वैसी सज़ा जैसी मैंने ऊपर कही है। इससे निर्भया की माँ का वात्सल्य अधिक प्रेरक होता। पापियों को सज़ा भी मिल जाती और मातृत्व संवेदना का आदर भी हो जाता।
कानून के अपने मज़े हैं। अब देखिये, जिस अपराधी ने बलात्कार से भी ज्यादा वीभत्स कार्य किया, वह उम्र की राहत पाकर मजे ले रहा है। आखिर वैसे लड़के जो उम्र से नाबालिग और पापी सोच में बालिग हैं, वे क्या सोच रहे होंगे इस वक्त? उन्हें तो इस छूट का लाभ लेने को कानून परोक्ष रूप से प्रोत्साहित ही कर रहा है न? फिर क्या लाभ उसे छोड़कर, इन चारों की फाँसी से?
अब एक और बात।नीचे अख़बार की कटिंग है। देखिये, एक संगठन ने फाँसी से पूर्व इन्हें गरुड़पुराण सुनाने की वकालत की है। मेरे मुताबिक यह अनावश्यक और ‘मस्ती लेने जैसी’ माँग है। पहली बात कि गरुड़पुराण का कॉन्सेप्ट यहाँ लागू नहीं होता, संगठन को ठीक से अध्ययन करना चाहिए।दूसरी बात कि इन्हें मृत्यु के लिए तैयार कराने जैसी कोई बात ही नहीं। गरुड़पुराण श्रवण कराने से आत्मा को मोक्ष मिलता है और उसे देह धारण नहीं करना पड़ता। देह द्वारा किये गए सभी पापों से मुक्त होकर जीव स्वर्ग को प्राप्त होता है।
अब बताइये, क्या इन अपराधियों के लिए आप इतनी संवेदना रखते हैं? यदि हाँ तो फिर फाँसी ही रोक दीजिये। संगठनों को ऐसे अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए। हमें तो इस कोशिश में लगना चाहिए कि कैसे लोगों का नैतिक उत्थान हो? आखिर बलात्कार करने की दुर्भावना कैसे पैदा होती है, इसे ढूंढना और उपाय करना चाहिए। चौदह पन्द्रह साल के बच्चे को आखिर यह सब कैसे पता है, वह हत्या और बलात्कार के ऐसे जघन्य तरीके कैसे जानता है, इतना नीच वह हो कैसे रहा है, इस पर विचार कीजिये न। गरुड़पुराण सुनाने से न फाँसी पर चढ़ने वाले को कोई फर्क पड़ेगा, न रिमांड होम वाले को। आपको हर हाल में बलात्कार करने की दुर्भावना पर काबू पाना होगा।
न गरुड़पुराण इसका हल है और न ही फाँसी.. मैं जानता हूँ, कुछ लोग मेरी बात को इन अपराधियों के लिए राहत दिए जाने की पैरवी समझेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं फाँसी से भी बड़ी सज़ा चाहता हूँ और वह होगा उनका मृत्युपर्यन्त कालकोठरी में जंजीरों से लदकर रहना और मौत तक अपने किये पर पछताना। ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, आवश्यक नहीं आप सहमत ही हों। लेकिन इतना आप अवश्य मानेंगे कि केवल फाँसी से अपराध पर काबू नहीं पाया जा सकता, इसके लिए चरित्र निर्माण की दिशा में, संस्कार के क्षेत्र में काम करना होगा।