: बेहद शातिराना अंदाज है मर्दों का कि ‘घर का काम तुम्हारा और बाहर का हमारा’: इस भ्रामक धारणा से भी मुक्ति पानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था का दारोमदार पुरुष के श्रम पर टिका है : पीसीएस-क्षेत्र के पहलवान लोग हैं तो खुद गंजेड़ी-भंगेड़ी, पर औरतों में चरित्रहीनता खोजते हैं :
सुजाता
पुरानी बॉलीवुड फिल्मों में मां के किरदार को याद करते हुए अक्सर एक चेहरा निरूपा राय जैसी मां का सामने आता है, जो विधवा है, दुखी है, लेकिन स्वाभिमानी है. पति के न रहने पर वह दिन-रात दूसरों के कपड़े सिल कर अपने बच्चों को बड़ा करती है. अचानक यह एहसास होता है कि दुनिया का सारा कारोबार पुरुष के श्रम पर चलता है और स्त्री इसमें केवल मर्द के न रहने पर ही मजबूरी में आती है. उसका सारा श्रम घरेलू श्रम है, जिसका कोई मूल्य नहीं है और इस तरह मौद्रिक अर्थव्यवस्था में से घरेलू औरत का श्रम गिनती से बाहर का हो जाता है. ‘घर का काम तुम्हारा और बाहर का हमारा’ वाले श्रम के लैंगिक विभाजन का एक बड़ा प्रचलित हिस्सा एक फरेब है, क्योंकि जब हम अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़े जुटाते हैं, तो बड़ी संख्या में घर पर काम करके कमानेवाली औरतों की बड़ी संख्या अदृश्य होती है.
वह संख्या न सिर्फ घर के काम करती है, बल्कि अचार-पापड़ बना कर, ऊनी कपड़े बुन कर, कढ़ाई वगैरह करके पति की कमाई में अपना हिस्सा जोड़ती है, ताकि घर को ठीक से चला सके, बच्चों को कुछ और सुविधाएं मिल सकें. बीड़ी, अगरबत्ती, टोकरियां, कारपेट आदि बनाने के लघु उद्योग औरतों के श्रम से चलते हैं. यह गैर-संस्थागत तरीके से हो, तो ऐसे श्रम का कहीं किसी गणना में आना असंभव है.
ऐसे जाने कितने ही काम हैं, जहां पुरुष श्रम करता नजर आता है, लेकिन उसके घंधे के लिए तैयारी करनेवाली स्त्री पर्दे के पीछे छिप जाती है. खेतों में श्रम करना, गाय-बैल की पानी-सानी करना और बाकी बेहुनर काम स्त्रियां करती आयी हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में 83 प्रतिशत औरतें हैं, जबकि जिन जमीनों पर उनका श्रम लगता है, उनका मालिकाना हक पुरुषों के पास है. पहाड़ों पर अक्सर औरतें घर देखने के साथ-साथ खेती, बुनाई जैसे काम करती हैं.
लकड़ियां ढोते या पीठ पर गैस सिलेंडर ढोते दिखती हैं, तो पता चलता है कि इस ‘घर देखने’ में पहाड़ जैसे मुश्किल भूगोल में पहाड़ जैसा श्रम उन्हीं का है.
छोटे दुकानदारों के घर की स्त्रियां उनके लिए सूखे मेवे वगैरह के पैकेट बनाती हैं. ठेला लगा के छोले-भटूरे आदि बेचनेवाले पुरुषों की स्त्रियां व्यंजनों को बनाने में मदद करती हैं. इसके अलावा भी, बाजार उनका श्रम बेहद सस्ते दामों में खरीदता है. किसी मैचिंग सेंटर पर से साड़ियां घरों तक भेजी जाती हैं और घर के काम से फुरसत पाकर कुछ औरतें उन पर फॉल लगाती हैं, लहंगे और चुन्नियों पर सलमे-सितारे लगाती हैं. देसी बीड़ी बनाने के उद्योग में बड़ी संख्या में औरतें हैं.
चाय के बागानों में काम करनेवाली औरतें हैं. यह ऐसा श्रम है, जो बिजनेस के आंकड़े इकट्ठे करते हुए अनदेखा चला जाता है. बिजनेस या दुकानें भी स्त्रियों की नहीं होतीं. भवन-निर्माण के कामों में लगी उन मजदूर औरतों का श्रम भी हमें नजर नहीं आता, जो निर्माण-स्थल पर खाना बनाने के वक्त खाना बनाती हैं और बाकी वक्त अपने मजदूर पति की हेल्पर बन जाती हैं. ऐसे बेहुनर, अप्रशिक्षित श्रम की कोई वाजिब कीमत बाजार के पास नहीं है. इसके लिए कोई आंकड़े नहीं हैं. इस श्रम की कहीं कोई पहचान और इसका सम्मान नहीं है.
भारतीय परिवार संरचना के अध्ययन से पता चलता है कि बाजार ने स्त्री श्रम का बहुत शातिर तरीके से इस्तेमाल किया है. स्त्रियां घर के बाहर नहीं जा सकतीं काम करने के लिए. सुबह से शाम तक जब घर के मर्द बाहर रहते हैं, उनके पास एक बड़ा खाली वक्त है, जिसका आकलन किया गया. साथ ही औरतों को अपने पे-रोल पर सीधे रखने में नियोक्ताओं को जो पचड़े हो सकते हैं- मातृत्व अवकाश, बच्चा पालन अवकाश, बीमारी-तीमारदारी वगैरह- उन सबसे भी मुक्ति हो जाती है. एक गर्भवती कर्मचारी सीधे-सीधे बिजनेस के लिए एक घाटा है.
घरेलू औरतों की यह जरूरत, कि खाली वक्त में बैठे-बैठे (?) चार पैसे कमाये जा सकें, का फायदा औरत को कितना हुआ, यह एक शोध का मुद्दा है. क्योंकि, इस तरह हाथ में आये चार पैसे भी उसी पितृसत्तात्मक परिवार संरचना को बनाये रखने में खप जाते हैं, जिसे स्त्री की आर्थिक या किसी भी तरह की आत्मनिर्भरता से दिक्कत होती है. यह सस्ता श्रम है. स्त्रियां काम के हिसाब से बेहद कम पैसा पाती हैं. बीड़ी खरीद में जब ग्राहक सौ रुपये देता है, उसमें से सिर्फ ग्यारह रुपये ही इन स्त्रियों तक पहुंचता है. ग्रामीण श्रेत्रों में अगरबत्ती निर्माता तो ज्यादातर औरतों को ही इस काम के लिए रखते हैं.
शहरों में बाजार ने मध्यवर्गीय उपभोक्ता स्त्री और उत्पाद की मार्केटिंग करनेवाली स्त्री को आमने-सामने कर दिया है. खर्चीले विज्ञापनों से बचते हुए टपरवेयर, ओरीफ्लेम और एमवे जैसे उत्पादों ने शहरी घरेलू औरत के खाली वक्त और पैसे की जरूरत को एक साथ साधा. एक पुरुष सेल्समैन से अधिक विश्वसनीय यह पड़ोसन-सी औरत बाजार की एजेंट हुई, तो उसे भी फायदा हुआ और बाजार को भी. पितृसत्ता को इससे कोई खतरा भी नहीं हुआ कि औरत को बाहर नौकरी करने नहीं जाना पड़ा. यह सुरक्षित भी था कि उसे औरतों से ही डील करना था.
यही नहीं, पिछले बीस-पच्चीस सालों में जिस तरह गली-नुक्कड़ में प्ले स्कूल और पब्लिक स्कूल मशरूम की तरह उगने शुरू हुए, उनके लिए घरेलू महिलाएं, प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित, सस्ता श्रम साबित हुईं, जिन्होंने काम करने की शर्तों और पारिश्रमिक से समझौता किया. यह भी पितृसत्ता के लिए फायदे का ही सौदा हुआ कि शादी के बाजार में भी टीचर-बहू की मांग बढ़ गयी, जो घर के काम निबटाने के साथ-साथ चार पैसे कमा रही थी.
सब कुछ बड़ी फैक्टरियों में ही नहीं बनता. दीवाली पर जो सजे हुए दीये खरीदे जायेंगे, उन सबमें घरेलू औरतों का श्रम लगा है. यह अनस्किल्ड और पारिवारिक किस्म का श्रम है. मेक इन इंडिया’ का कितना फायदा ऐसी औरतों को होगा, कहना बहुत मुश्किल है. इस अलक्षित अदृश्य चले जानेवाले स्त्री-श्रम को कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं सामने लाने की कोशिश कर रही हैं. जो स्त्रियां ऐसे असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही हैं, उनके प्रशिक्षण व बेहतर मेहनताने के लिए प्रयास किये जाने की सख्त जरूरत है. औरतों को जितना संभव हो पे-रोल पर लाया जाना जरूरी है. साथ ही इस भ्रामक धारणा से भी मुक्ति पानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था का दारोमदार पुरुष के श्रम पर टिका है.
सुजाता मूलत: युवा कवि एवं लेखिका हैं। स्त्री चरित्र खोजने में माहिर सुजाता का यह लेख प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।