विकास दुबे एनकाउंटर: एक वो अफसर थे, एक यह हैं

दोलत्ती

: साफ मामला है एनकाउंटर का, मगर भारी-भरकम आयोग बना डाला : नाकाबिल अफसर क़ानून हाथ में लेता : आज प्रशासन ने अपनी इज़्ज़त खो दी, भय भी :
देवेंद्र नाथ दुबे
लखनऊ : विकास दुबे के तथाकथित इनकाउण्टर पर उठी बहस के दौरान मेरे दिमाग़ में सेवाकाल के कई अनुभव घूम गए जिनमें से एक लिखूँगा क्योंकि उससे यह पता चलता है कि यह सब नया नही है बदला है तो बस शासन और प्रशासन का तरीक़ा जो निरन्तर नीचता की ओर जा रहा है।
एक जिले में स्थानांतरण के पश्चात परगनाधिकारी ( आजकल उप ज़िलाधिकारी) का पद भार ग्रहण करके जब कार्यालय में बैठना प्रारम्भ किया तो कुछ दिनो बाद मैंने नोट किया कि एक महिला मेरे चैम्बर के बाहर चुपचाप खड़ी रहती है। मेरे अनुभव ने मुझे बताया कि यह फरियादी कुछ कहना चाहती है पर शायद सुने न जाने के कारण हताश होगई है। मैंने चपरासी को बुला कर पूछा कि वह महिला क्यों खड़ी रहती है। उसने कहा कि उसका लड़का मार दिया गया है और वह अर्ध विछिप्त सी शिकायत करती रहती है। ख़ैर ,मैंने उस महिला को बुलवाया और उससे पूछा कि क्या वह कुछ कहना चाहती है। उसने इधर उधर नज़र डाल कर कहा कि वह अकेले में कुछ कहना चाहती है। मैंने पेशकार और चपरासी को जाने को कहा और उससे कहा कि अब बताए क्या बात है। उसने जो बताया उसका सार यह था कि उसके ख़ानदानी दुश्मनों से प्रभावित होकर थानेदार ने उसके जवान एकलौते लड़के को मार दिया और अब वह और उसकी बहू रह गए हैं अब वही ख़ानदानी उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं ,और उसके लड़के की मृत्यु की जाँच मेरे यहाँ चल रही है पर पहिले के साहब ( मेरे पूर्वाधिकारी ) कुछ कर ही नही रहे थे। अब नए साहब ( यानी मै )आ गए हैं यह जान कर न्याय की आशा में आ रही थी पर मिलने की हिम्मत नही पड़ रही थी। मैंने पेशकार को बुलाया तो पता चला कि एक इनकाउण्टर की मैजिस्टीरीयल जाँच एक साल से लम्बित है। मैंने फ़ाइल मँगाई तो पाया कि वास्तव में सिवाय तारीख़ें लगने के कोई और कार्यवाही नही हुई है। ख़ैर, मैंने अगली कार्यवाही के लिए तारीख़ लगाई और पुलिस के काग़ज़ तलब किए।
उस समय MGO के मुताबिक़ हर पुलिस इनकाउण्टर की मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच ज़रूरी थी जिसका आदेश ज़िला मजिस्ट्रेट करते थे। उस समय भी पुलिस कोशिश करके मनमुताबिक़ मजिस्ट्रेट को नामित करवाने की कोशिश करते थे और यही कारण था कि यह जाँच मेरे कार्यालय में आ गई थी यद्यपि वह थाना मेरे क्षेत्राधिकार में नही था क्योंकि मेरे पूर्वाधिकारी मुक़दमे न निबटाने में माहिर थे। वह पाँच वर्ष से अधिक उसी जनपद में उसी पद पर रहे थे और मैं उनके स्थान पर न आ पाऊँ इसके लिए उन्होंने बड़े प्रयत्न किए थे। पर ज़िलाधिकारी उनसे आजिज़ आ चुके थे और उनको आख़िरकार उन्होंने कार्य मुक्त कर दिया और मुझे वायरलेस संदेश भेजा कि मै फ़ौरन आ जाऊँ। मेरे ज्वाइन करने के बाद भी वह कोशिश करते रहे कि मै हट जाऊँ और वह पुनर्स्थापित हो जायें पर सफल नही हुए , ज़िलाधिकारी की वजह से। मैंने पाया कि उनके मुक़दमों का निस्तारण “अदम पैरवी में ख़ारिज” के आदेश से ही होता था जो बाद में पुनर्स्थापित हो जाता था , सिवाय उन वादों के जिनमें उनकी रुचि जागृत हो जाए। पर वह पृथक बिन्दु है।
जाँच प्रारम्भ हो गई। एक दिन सामान्य वार्तालाप के दौरान ज़िला मजिस्ट्रेट ने पूँछा कि क्या मैंने उस इनकाउण्टर की जाँच शुरू कर दी है। मेरे हाँ कहने पर उन्होंने सामान्य रूप से कहा की पिछले पुलिस अधीक्षक विदाई के समय भी कह गए हैं कि यह थानेदार बहुत क़ाबिल है। मैंने सुना , समझा और चुप रहा।
यहाँ यह उल्लेख करना बहुत ज़रूरी है कि वह थानेदार वास्तव में बहुत प्रभावी थानेदार था। जहाँ तक अपराध नियंत्रण का ताल्लुक़ है और किसी भी भी थानेदार की क़ाबिलियत का यह लिट्मस टेस्ट है।पर मैंने किसी नाकाबिल को क़ानून हाथ में लेते नही देखा। और इसी वजह से वह पुलिस अधीक्षक उस थानेदार की तारीफ़ कर रहे थे और वह सही थे।प्रशासनिक अधिकारी के रूप में मै भी थानेदार को बढ़िया श्रेणी का मानता पर जाँच अधिकारी के रूप में मुझे न्याय और सिर्फ़ न्याय ही करना था और उस रास्ते ही चलना था जहाँ सत्य ले जाए। और पूरे सेवाकाल में मैंने यही कोशिश की कि मेरे निर्णय बग़ैर चेहरे देखे लिए गए हों क़ानून के अनुसार : न्याय की देवी अन्धी होती है।
जाँच प्रारम्भ हुई। जैसा मेरा नियम रहा है, बग़ैर किसी पूर्वाग्रह के। पर जैसे जैसे जाँच आगे बढ़ती गई मुझे उस माँ के आरोप में कुछ सच्चाई नज़र आने लगी। दौरान जाँच उस माँ की तरफ़ से कोई बोलने वाला तो था नही पर वह अकेले ही अपनी पैरवी करती रही। इतना अवश्य है कि मुझे मजिस्ट्रेट होने के साथ साथ इन्वेस्टिगेटिंग अधिकारी और लोक अभियोजक की भी भूमिका निभानी पड़ी जिसका विशद अनुभव मुझे इसके पूर्व भूमि-सीमारोपण के मुक़दमों में हो चुका था क्योंकि वहाँ सरकारी पक्ष का प्रस्तुतीकरण बहुत कमज़ोर होता था और खातेदार की ओर से बड़े बड़े वक़ील होते थे।
मौक़े पर भी कई बार जाना पड़ा और लगभग ४० साल के बाद भी याद है कि मृतक का मकान नदी किनारे ऊँचे टीले पर था , जिले की अन्तिम सीमा पर। पर काग़ज़ात , पुलिस के ही बयानों और समस्त परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यही निष्कर्ष निकला कि मृतक डकैत नही था और न उसने पुलिस पर हमला किया था और आत्मरक्षा में गोली चलाने की पुलिस की थ्योरी किसी भी प्रकार से सिद्ध नही हो रही थी।
मैंने विस्तृत जाँच आख्या बनाई और ज़िला मैजिस्ट्रेट को भेज दी। उन्होंने स्वयम् उसको दो बार पढ़ा और सहमत होते हुएशासन को अग्रसारित कर दी।
इस पूरे प्रकरण में न तो ज़िला मजिस्ट्रेट ने , न ही तत्कालीन पुलिस अधीक्षक (जो स्थानांतरण के पूर्व सिफ़ारिश कर गए थे), न ही कार्यरत पुलिस अधीक्षक ने, न ही किसी नेता ने मेरे कार्य में कोई हस्तक्षेप किया। ज़िला मैजिस्ट्रेट चाहते तो जाँच किसी और मजिस्ट्रेट को दे सकते थे, पुलिस अधीक्षक की सहमति से थाना प्रभारी मेरे विरुद्ध, झूठा ही सही प्रार्थना पत्र दे सकता था। मेरे ही कार्यक्षेत्र के तीन विधायक, जो ज़ाहिर है मेरी कार्य शैली से अन्यथा भी असंतुष्ट थे, पर शिकायत करने का कारण नही पाते थे, इस अवसर का फ़ायदा उठा सकते थे।
पर ऐसा कुछ भी नही हुआ। क्यों ? क्योंकि नैतिकता इतनी नही गिरी थी और किराए पर किए गए ख़ून को किसी की आत्मा स्वीकार नही कर पा रही थी ; इतना अवश्य था कि उसे कोई पहल करके खोदना नही चाहता था शायद इसलिए कि वह माँ और उसकी विपदा किसी को उतना नही कसकी जितना एक संवेदनशील , नौजवान परगना मैजिस्ट्रेट को कसकी पर बाक़ियों ने भी यह महसूस किया कि जब एक सही काम हो रहा है तो रोका क्यों जाए ! पर अब क्या यह सम्भव है। आज तो ज़िला मजिस्ट्रेट के इशारा करने के बाद एसडीएम वही करता जो उसका पूर्वाधिकारी कर रहा था , ऐसा न होने पर डीएम चिढ़ जाते
और स्वयम् प्रार्थनापत्र माँग कर जाँच हटा देते या एसडीएम का क्षेत्राधिकार बदल देते।
सबसे बड़ी बात आज जिस जाँच के लिए भारी भरकम आयोग बैठते हैं, करोड़ों रुपये और साल के साल ख़र्च होते हैं और नतीजा सिफ़र। वह जाँच एक छोटा अधिकारी अपने अन्य कार्यों के साथ कर लेता था बग़ैर एक पैसा ख़र्च किए और उसकी जाँच की उतनी ही विश्वसनीयता होती थी। इससे जनता की नज़रों में प्रशासन की इज़्ज़त और भय दोनो रहते थे।आज प्रशासन ने अपनी इज़्ज़त खो दी है क्योंकि न्याय प्रिय नही रहा। और परिणाम सबके सामने है।
( जीवन भर कानून और व्‍यवस्‍था को लेकर प्रतिबद्ध रहे देवेंद्र नाथ दुबे इलाहाबाद के मंडलायुक्‍त पद से सेवानिवृत्‍त हो चुके हैं। चाहे वह प्रतापगढ़ की पोस्टिंग का मामला रहा हो, अथवा अल्‍मोड़ा, आगरा अथवा लखनऊ, अपनी पोस्टिंग के दौरान दुबे जी अपने व्‍यवहार और अपनी न्‍यायप्रियता को लेकर लोकप्रिय रहे हैं। रायबरेली के जिलाधिकारी पद पर रहते हुए भी दुबे जी के फैसले आज भी लोग याद करते हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *