मुस्लिम औरतों की हालत देखना हो तो फहमीना दुर्रानी या तसलीमा नसरीन की किताबों में खोजिये

सैड सांग

: आनन्‍द की वस्‍तु और बच्‍चा जनने की मशीन से ज्‍यादा नहीं है मुस्लिम स्‍त्री की हालत : इस्लामी जिहादियों द्वारा ‘अस्थाई विवाह’ (मुता’ह) के नाम पर अनाचार कैसे न्‍यायोचित किया जा सकता है : अधिकांश मुस्लिम देशों में भी अब उठनी लगी है स्‍त्री-विमुक्तिकरण की आवाजें :

संवाददाता

लखनऊ : जैसे भी कहें, इस पर ध्यान देना ही होगा कि इस्लामी विवाह पंरपरा में किसी आध्यात्मिकता और उच्चतर भाव का सर्वथा अभाव है। एक पति को एक साथ, एक समय चार पत्नियाँ रखने की इजाजत; रखैलें अलग से; किसी स्त्री पर बलात्कार का मामले साबित होने में पुरुष गवाह की अनिवार्यता; वैसे गवाह के अभाव में उल्टे बलात्कृत स्त्री को ही क्रूर सजा; आदि भयंकर प्रावधान भी उसी ‘व्यवहारिक’ मानसिकता के परिणाम हैं। कश्मीर में बाहरी इस्लामी जिहादियों द्वारा ‘अस्थाई विवाह’ (मुता’ह) के नाम पर स्थानीय मुस्लिम लड़कियों के साथ मनमाने भोग, जैसे अनाचार की तुलना किसी अन्य समुदाय में स्त्री की स्थिति से नहीं की जा सकती।

स्वयं मुस्लिम स्त्रियाँ यह बखूबी जानती हैं। फहमीना दुर्रानी की पुस्तक माई फ्यूडल लॉर्ड अथवा तसलीमा नसरीन की लज्जा में स्त्रियों की दुर्गति के प्रमाणिक चित्र हैं। तसलीमा के अनुसार, ‘‘इस्लामी समाज में महिलाओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है। उन्हें सिर्फ एक वस्तु और बच्चे जनने वाली मशीन समझा जाता है।’’

अतः विचार करें तो इस्लाम के स्त्री संबंधी सभी कायदे – निकाह, तलाक, मेहर, इद्दत, बहुपत्नी प्रथा, रखैलें रखने, मुता’ह, भगांकुर हटाने या स्त्री-खतना (इनफिब्यूलेशन), बिना बुरके वाली स्त्री को ‘खुला मांस’ मानने जिस का बलात्कार करने में बलात्कारी दोषी नहीं, आदि – सब की सब पुरुष व स्त्री के संबध में एक व्यवस्थित धारणा के दुष्परिणाम हैं।

अफ्रीका के कम से कम अट्ठाइस मुस्लिम देशों में मात्र उस स्त्री-खतने की बर्बरता से सालाना हजारों लड़कियों की जान चली जाती है। यूरोप के लोकतांत्रिक कानूनों को अँगूठा दिखाकर वहाँ रहने वाले मुस्लिम समुदाय में उलेमा द्वारा बहुपत्नी प्रथा, बुरके, तीन तलाक, स्त्रियों की पिटाई, प्रतिष्ठा के नाम पर हत्या, आदि बर्बर प्रथाएं जबरन लागू की जाती हैं। सऊदी अरब में बुरके में भी स्त्री का सड़क पर अकेले निकलना मना है, उन के साथ एक पुरुष होना अनिवार्य है।

यह ठीक है कि विभिन्न मुस्लिम देशों में स्त्री संबंधी सभी इस्लामी कायदे और मान्यताएं एक जैसे लागू नहीं है। किन्तु उस में प्रायः उलेमा की शक्ति-सीमा या राजनीतिक विवशताओं की भूमिका है। इसीलिए तुर्की या जॉर्डन में किन्हीं ‘सुधारों’ का कोई प्रभाव अन्य मुस्लिम देशों अथवा इस्लामी विमर्श पर नहीं पड़ता।

अतः केंद्रीय बात यह है कि स्त्री संबंधी सभी इस्लामी कायदों में एक संगति है। वह एक विशिष्ट मजहबी मतवाद से बनी मानसिकता की उत्पत्ति हैं। इस की खुली समीक्षा किए बिना मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक बनाने के प्रयास बहुत दूर नहीं जाएंगे। इस कार्य में मुस्लिम स्त्रियों को भी उठना होगा। किन्तु उन्हें गैर-मुस्लिम समाज के सक्रिय सहयोग की भी बड़ी आवश्यकता है।

क्योंकि इस्लाम को वैचारिक चुनौती देने का कार्य बाहर से, यानी गैर-मुस्लिमों द्वारा अधिक सहजता से हो सकता है। दुर्भाग्य से इस पर भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका अब तक अत्यंत लज्जास्पद रही है। उन के मौन ने मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति बनाए रखने में सहयोग दिया है। अभी सायरा बानो का सुप्रीम कोर्ट में अकेले लड़ाई लड़ना इसी का प्रमाण है। हमारे मीडिया और अकादमिक जगत के नकली वाक्-बहादुरों को शर्म आनी चाहिए, जो केवल सुरक्षित मुद्दों पर कलम और तलवार उठाते हैं।

यह हमारी आधी दुनिया का सवाल है। उनकी अस्मिता, उनके सम्‍मान, उनके अस्तित्‍व का प्रश्‍न है। यही से उगते हैं सवाल, कि हम क्‍या वाकई इंसान हैं भी या नहीं। खैर, इस मसले को ज्‍यादा खोजने के लिए निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:- मुस्लिम औरतें

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