: जब जजों की कुर्सी खाली है, तो फिर छोटे मामलों में डबल-जज की पीठ क्यों : जनता तो तोला भर में ही किसी को सिर पर बिठाती, और माशा में ही रौंद डालती है : माना कि कुछ दिक्कतें जरूर आयेंगी, लेकिन संकट का समाधान जरूर हो जाएगा :
कुमार सौवीर
लखनऊ : सन-90 के आसपास का किस्सा है। उसी दौरान लखनऊ में अचानक हैजा फैल गया। डंडहिया बाजार क्षेत्र के कोई छह मोहल्लों में। चावल के मांड जैसा दस्त बहाते मरीजों के चेहरों पर अशक्तता और मृत्यु की खटखटाहट बज रही थी। करीब एक हफ्ते तक इसका भयावह तांडव चला। करीब एक सौ लोग मारे गये थे इस हादसे में। पूरे दौरान मुझे डॉक्टरों से पता चला था कि हैजा यानी कॉलरा एक जानलेवा विषाणु है, जिसका पहला हमला जिन पर पड़ता है, उनमें से 97 फीसदी लोगों का मरना तय होता है। सच बात तो यह है कि हैजा जैसे हमलों को रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसकी विभाषिका को थामा जा सकता है। केवल सतर्कता और सजगता से। जाहिर है कि इसमें सरकारी एजेंसियों की ही भूमिका प्रभावी हो सकती है।
लेकिन इस हादसे में मुझे पुख्ता प्रमाण मिले कि सरकारी विभागों और उनके अफसरों की करतूतों अक्षम्य लापरवाहियां की थीं। कई तो जान-बूझ कर, और बाकी ने तो अपनी गलतियों को छिपाने के लिए उस पर झूठे तर्कों-आधारों की गर्द-धूल फेंक कर उेस विभीषिका को भयावह बना डाला। तब मैं दैनिक जागरण में वरिष्ठ संवाददाता के पद पर काम कर रहा था। इस हादसे को मैंने खूब समझा और जमकर लिखा भी। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि सरकारी अफसरों की चिन्ता जन-स्वास्थ्य की नहीं, बल्कि एक-दूसरे की खाल और पूंछ को बचाने की ही है, और अपनी इस साजिश के तहत वे इस मामले पर छिपाने पर आमादा हैं। यह समझते ही मैंने इस पूरे मामले को हाईकोर्ट में पेश कर दिया। मेरा मानना था कि चूंकि मैंने इस हादसे को बेहद करीब से देखा और महसूस किया है, इसलिए मैं इस मामले को सीधे जजों के सामने पेश करूंगी तो बेहतर होगा। इससे वकीलों की फीस भी बच सकती थी।
जिस दिन मेरे मुकदमे को लिस्ट पर लगाया गया, उस दिन अदालत में दो जज मौजूद थे। उन जजों का नाम मुझे आज याद नहीं आ रहा है। मैं इस मामले में इन-पर्सन एपीयर हुआ था, इसलिए कोर्ट का माहौल थोड़ा असहज महसूस लगा मुझे। कुछ वकील मेरी खिल्ली भी उड़ाने पर आमादा थे। बहरहाल, मेरी पूरी बात एक जज ने सुनी। कुछ सवाल भी पूछे मुझसे, और उसके बाद सम्बन्धित विभागों के अफसरों को नोटिस जारी करके छह हफ्तों से जवाब मांग लिया। बात खत्म।
यहां मेरे कहने का यह मकसद नहीं कि मुझे इस न्यायिक प्रक्रिया में कोई खामी दिखी, या फिर उसमें किसी संशोधन के लिए मैं तर्क गढ़ने जा रहा हूं। मैं तो यह कहना चाहता हूं कि इसके बाद की कहानी कुछ और भी है। तो साहब, तब तक लंच हो चुका था, मैं भी बाहर निकला। गैलरी में देखा कि उसी बेंच के एक जज कहीं जा रहे थे। उनका अर्दली चुटकियां बजाते हुए बाकी लोगों को रास्ता देने के लिए एलर्ट जारी कर रहा था। चुटकी की आवाज सुनते ही लोगों की भीड़ रास्ता दे देती थी, और इस तरह जज साहब यह गये, वह गये, निकल गये।
तो, बस यही तो कहना चाहता हूं जज साहब। आप सिर्फ चुटकियां बजाइये, हल्ला-बवाल नहीं योर ऑनर। हल्ला करना जन-प्रतिनिधियों का काम है। आप को तो केवल चुटकियों में काम कराने का तरीका सीखना-अपनाना चाहिए। आपकी चुटकियों की आवाज सुनते ही लोग सतर्क हो जाएंगे, संकट टल जाएगा। कहीं कोई चूं-चपड़ तक नहीं होगी।
जी हां, मैं कोलोजियम पर बात कर रहा हूं योर ऑनर टीएस ठाकुर। और चूंकि आप देश के सर्वोच्च इंसाफाधिकारी हैं, और देश की जनता को आप पर पूरा यकीन है, इसलिए यकीन मानिये कि आपकी एक ही चुटकी पर्याप्त होगी। मैं यह कहां कह रहा हूं कि आप कोलोजियम की सूची को तीसरी-चौथी बार भेजिये। मत कीजिए ऐसा। सिर्फ ऐसा कीजिए, कि अपने जजों को मुक्त कीजिए। निरंकुश नहीं, बल्कि व्यवस्थित कीजिए। मैं तो कहता हूं कि क्या जरूरत है कि आप 26 साल पहले हुए लखनऊ के हैजा-काण्ड की सुनवाई के लिए दो जजों की बेंच बनाइये। अरे, छह हफ्ते की नोटिस जारी करने जैसा यह काम तो एक जज ही कर सकता है। है कि नहीं। आप नये वादों-मुकदमों की सुनवाई दो जजों की बेंच को क्यों भेज रहे हैं। मत कीजिए ऐसा। यह काम सिंगल जज को ही सौंपिये। वह भी तो आपका बुद्धिमान जज ही है। है कि नहीं।
यकीन मानिये ठाकुर जी, मैं भी कि मैं आपके बराबर बुद्धिमान नहीं। लेकिन मतलब भर का समझदार तो हूं ही। सलाह देने जैसी सलाहियतें तो रखता ही हूं।
आदेशों सरकारी कामकाज में स्थगन जैसे मामले, चोरी-सियारी जैसे धंधे, हत्याओं-लूटों की जमानतों के मामलों में जमानत देने या न देने की भरपूर क्षमता आपके जजों में हैं। फिर तो फिर ऐसे मामले डबल जज बेंच को क्यों सौंपी जाएं। बोलिए न। क्या मैं गलत कह रहा हूं योर ऑनर।
कोलोजियम पर केंद्र सरकार आपकी नाक में दम किये है, तो उससे झंझट करने के बजाय, आप अपने जजों को मुस्तैद कीजिए। डबल या ट्रिपल जजों की बेंच को खत्म कीजिए। इन्हें दुगने-तिगने मामलों की सुनवाई का अवसर दीजिए। आम आदमी को न्याय दिलाने के नये-नये रास्ते खोजिए ठाकुर जी। यह करने में आपके सामने कोई भी सांवैधानिक संकट नहीं है। यह तो आपकी ही निजी व्यवस्था है, जो आपने ही तो इन्हें बनाया है। जन-समर्पित न्याय व्यवस्था को और ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए तैयार किया है। तो आज चूंकि आप आपद-काल है, उन नियमों को रद कर दीजिए न। अरे, क्या दिक्कत है।
हां, मैं मानता हूं कि इसे लागू करने में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं। तो आने दीजिए। सरकार जाए भाड में। कम से तो आम आदमी को सरलता से न्याय तो मिल जाएगा। कुछ लोगों को दिक्कत हो सकती है, कुछ बेईमानी भी हो सकती है, कुछ घोटाले भी हो सकते हैं। तो क्या इस समय ऐसा नहीं हो रहा है क्या। असल समस्या यह है कि आम आदमी को न्याय मिलने का दिलासा तक नहीं मिल रहा है देश के सर्वोच्च इंसाफाधिकारी ठाकुर जी। और फिर डबल-ट्रिपल जजेज बेंच हटाने से लाभ बेशुमार होंगे। ज्यादा मामले निपटाये जा सकेंगे। खर्चा बिलकुल भी नहीं होगा। दफ्तर और स्टाफ का बवाल भी नहीं बढेगा। कार -बंगला-सुविधा-वेतन-भत्ता वगैरह-वगैरह इसी खर्चे में निपट जाएगा।
और आप जैसे भी ठाकुर है, उसी तरह हमेशा ही ठाकुर रहेंगे। बस, लोकतंत्र आपका हमेशा ऋणी जरूर रहेगा। आज तो आप सिर्फ ठाकुर हैं, कल ठाकुर जी हो जाएंगे। मजाक नहीं कर रहा हूं, सच यही है कि बेशुमार वादकारी आपके नाम पर ठाकुर जी को भोग लगाना शुरू कर देंगे। पूजे जाने लगेंगे आप ठाकुर जी। यह देश की जनता है, तोला भर में ही किसी को सिर पर बिठा लेती है, और माशा में ही रौंद डालती है।
कोलोजियम की सूची को लेकर न्यायपालिका और केंद्र सरकार के बीच रिश्ते अब खट्टे होते जा रहे हैं। आरोप और प्रत्यारोपण का दौर है। जो बातचीत सर्वोच्च पीठों के बीच होनी चाहिए, वह अब सरेआम कही, सुनी और बोली जा रही है। गरमा-गरमी की आंच अब शोलों में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में इस समस्या का समाधान करना सर्वोच्च प्राथमिक बन चुका है। आइये, हम सब मिल कर इस समस्या का समाधान खोजने की दिशा में हम सब भी अपनी कोशिश करें। थोड़ा-बहुत बहस-मुबाहिसा करें और इस झगड़े को बेहतर मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश करें। मेरी बिटिया डॉट कॉम इस मसले पर लगातार सक्रिय है।
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