कृष्‍ण की भक्ति से सूरदास ने छान लिया वात्‍सल्‍य रस का कोना-कोना

मेरा कोना

दृष्टि नहीं, दिव्यदृष्टि के मालिक हैं सूरदास
हरि, हौं सब पतितनि को नायक/ प्रभु, हौं सब पति‍तनि को टीकौ।
बात में दम था, लयबद्धता थी, गायन में शैली और रस था। और इन सबसे ऊपर हृदय से निकली और दिल को झकझोरी मौलिक रचना थी। लेकिन सच्‍चे गुरु के मन को खटक गया यह पद। वजह यह कि इसमें विनय की पराकाष्‍ठा तो थी, लेकिन प्रेम का वह हिलोरे मारता महासागर नदारत था,  जिसमें पस्‍त और त्रस्‍त पीडित जन गोते लगा सकते। बल्‍लभाचार्य तो सूर की कविता और गायन पर मुग्‍ध हो ही चुके थे, लेकिन इस सिद्ध कवि की वाणी में दैन्‍यता का बहता नाला उन्‍हें रास नहीं आ रहा था। सो आचार्य श्रीबल्‍लभाचार्य ने शिष्‍य को प्रेम से लताड़ते हुए कोसा:- सूर ह़वै कै ऐसी घिघियात काहे को हौ। सोतासौं कछु भगवत लीला बरनन करि।

इतना कह कर वे हंसे। लेकिन सूरदास पर उनके शब्‍द गहरे तक धंस गये। इस फटकार को अपमान के तौर पर लेने के बजाय उन्‍होंने ठीक वैसे ही लिया जैसे जाम्‍बवान ने हनुमान को उनकी ताकत का अहसात करा दिया हो। और उसके बाद तो सूरदास ने कृष्‍ण की सेवकाई तो स्‍वीकार कर ली, मगर उधर सूरदास की रची कृष्‍ण की बाल-लीलाओं की निर्झरिणी की अबाध धारा के सामने महाप्रभु बल्‍लभाचार्य खुद को ही धन्‍य मानने लगे। प्रभाव कुछ इतना ज्‍यादा पड़ा कि उसके बाद से सूर को उन्‍होंने कभी भी अपने से अलग नहीं किया और उन्‍हें लेकर अपने साथ वे गोवर्द्धन पर्वत ले गये और श्रीनाथ जी की स्‍थापना कर वहां कीर्तन आदि का जिम्‍मा सूरदास को सौंप दिया।
अब आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्‍ल और रामशरण शर्मा भले ही सूरदास को कवि के तौर पर मान्‍यता ना देते हों, लेकिन अंतर्दृष्टि से कृष्‍ण की बाल लीलाओं का दर्शन कर लेने वाले सूरदास आज पांच-छह सौ साल बाद भी भारतीय जन-सामान्‍य ही नहीं, भारतीय संस्‍कृति में रूचि रखने और कृष्‍ण को जानने-समझने के लिए भारत आने वाले लोगों को इसके लिए केवल और केवल सूरदास के पदों का ही सहारा लेना पड़ता है। सूर के पद-छंद ना होते तो शायद आज कृष्‍ण भी नहीं होते। हजारी प्रसाद द्धिवेदी तो यहां तक महसूस कर चुके हैं कि आज भारतीय जनमानस में कृष्‍ण का नाम सूरदास के कारण ही जिन्‍दा है।
करीब पंद्रहवीं शताब्‍दी के आसपास राजनीतिक उठापटक, विदेशियों के आतंक और लूटमार से अशांत भारतीय जन-मन को मानसिक त्राण देने के लिए सूरदास ने कृष्‍ण को माध्‍यम तो बनाया, लेकिन साथ ही अनजाने में ही सही, देश को धार्मिक तौर पर एकजुट करने के एक बडे़ दायित्‍व का भी निर्वहन कर दिया। यह जरूरी भी था कि जनमानस में आत्‍मसम्‍मान का भाव रोपा जाए, क्‍योंकि आक्रांताओं ने समाज को हताश कर दिया था। ऐसे वक्‍त में सूर ने कृष्‍ण के तौर पर एक ऐसे महापुरुष को स्‍थापित कर दिया जो अन्‍याय के खिलाफ और साधुजनों की रक्षा के लिए युद्ध करता है, व्‍यवहारवादी है और जरूरत पड़ने पर द्रौपदी जैसे निरीह लोगों के सम्‍मान की रक्षा करने के लिए पहुंच जाता है और कर्मवादी है, ना कि यथास्थितिवादी। समाज को इस आशा के अलावा और चाहिए भी क्‍या था। उसे बस इतने से ही जीवनी-शक्ति जैसा साहस मिला।
सूरदास के जन्‍म और मृत्‍यु को लेकर जितने मुंह उतनी बातें हमेशा से ही होती रही हैं। लेकिन विद्धानों का एक बड़ा वर्ग इनका जीवनकाल 1523 सं 1585 के बीच ही मानता है। जन्‍म स्‍थान और वंश को लेकर भी बड़ा विवाद है। लेकिन बड़ा तबका मानता है कि इनका जन्‍म सीही में हुआ और यह सारस्‍वत ब्राह्मण कुल से थे। हालांकि उनके पिता गोपाचल राजकीय गायक थे, लेकिन अंधता के चलते सूर ने घर त्‍याग दिया। सूर अंधे थे। सूरसागर में उन्‍होंने लिख भी दिया कि:- अंधे को सब कुछ दरसाई। लेकिन एक अंधे संत ने तत्‍व दर्शन के साथ ही भौतिक चीजों पर जितनी गहरी निगाह डालकर उसे पढ़-समझ लिया, वह स्‍तब्‍धकारी ही कहा जाएगा। चाहे वह मानव सौंदर्य हो, रूप-श्रंगार और रूपादिमानव चेष्‍टाएं हों या फिर विभिन्‍न प्राकृतिक उपादानों का जितना आकर्षक विशद और मोहक वर्णन कर दिया, वह तो आंख वालों की कल्‍पना से परे है। यानी यह तय हो गया कि ईश्‍वर को इन भौतिक आंखों के बजाय केवल आंतरिक नजर से ही देखा जा सकता है। और सूरदास ने इसे साबित भी कर दिखाया।
दरअसल, सूरदास के अंधे होने की परीक्षा भी ली गयी। मगर प्रमाणित हो गया कि उनके पास दिव्‍यदृष्टि थी। हुआ यह कि सूरदास रोजाना मंदिर का दरवाजा खुलने पर संकीर्तन करते थे। एक दिन गोकुलनाथ जी ने गिरिधर दास जी से भगवान को वस्‍त्रादि के बजाय केवल मुक्‍ता के हारों से लगभग नग्‍न श्रृंगार करने को कहा। हैरत तो तब हुई कि उस दिन उस प्रज्ञाचक्षु सूर ने भगवान के नग्‍न विग्रह का जबर्दस्‍त आकर्षक और सजीव वर्णन कर दिया। सीधी बात यह कि सूर ब्रह्मज्ञानी थे जिससे कुछ नहीं छिप सकता। श्रेष्‍ठता का आलम यह कि खुद ब्राह्मण होते हुए भी जाति‍-प्रथा या छुआछूत पर सूरदास का कोई असर नहीं। वे तो खुद कृष्‍ण से ही बोल उठे:- सूरदास प्रभु तुम्‍हरी भक्ति लगि तजी जाति अपनी, बिकानी हरि मुख की मुसकानी।
भ्रमण के दौरान एक बार सम्राट अकबर से भेंट हुई। अकबर ने खुद की प्रशंसा में गीत लिखने, और बदले में सरकारी ऐश्‍वर्य का प्रस्‍ताव रखा। सूर ने एक झटके में उसे ठुकराया और कहा कि मेरे मन में कृष्‍ण के अलावा किसी का कोई स्‍थान नहीं। ब्रजबोली में लिखने वाले सूर बाल-लीलाओं का वह अनोखा ब्‍योरा पेश कर दिया कि उनके आलोचक पं. रामचंद्र शुक्‍ल तक यह कहने पर मजबूर हो गये कि सूर तो वात्‍सल्‍य रस का कोना-कोना तक झांक आये। सूर ने राधा और कृष्‍ण के प्रेम को वासना मानने से इनकार कर दिया। हां, भक्ति और भजनहीन जीवन को यह शख्‍स कुकुर और शूकर सदृश्‍य मानता रहा। आज के संदर्भ में किसी को भी यह बुरा लग सकता है लेकिन तब की हालत में शायद सूरदास का अस्‍त्र भी शायद यही रहा हो। कौन जाने।
लेखक कुमार सौवीर लखनऊ के जाने-माने पत्रकार हैं. इन दिनों महुआ न्यूज में ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह लेख जनसंदेश टाइम्‍स में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लिया गया है.

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