बंगाल की विधवा ने शिव की काशी को सधवा बना दिया

और रानी भवानी ने शिव को आत्‍मसात कर लिया
हुक्‍म रानी भवानी का: कहीं कोई भूखा ना रहे
शैव और शाक्‍तों का झगडा तो सिरे से ही मिटा दिया
बंगाल से काशी तक अन्‍नपूर्णा बन गयीं रानी भवानी

सन 1776 का दौर भारत के लिए बेहद त्रासद रहा। बंगाल से लेकर उत्‍तर भारत तक के एक बडे इलाके में दुर्भिक्षु अचानक एक महामारी की तरह आ गया। पहले तो राजनीतिक अराजकता और अन्‍याय से जूझ रही जनता को यह अकाल बेहद भारी पडा। बडे पैमाने पर लोग भूख से मरने लगे। कि अचानक ही दिल्‍ली और बंगाल की बडी सत्‍ता की चुप्‍पी के खिलाफ एक महिला ने बिगुल बजाया और अपने खजाने का दरवाजा खोल दिया। हुक्‍म दिया कि राज्‍य में कोई भी मौत अब भूख से नहीं होनी चाहिए। और इसके बाद से ही भारतीय इतिहास की इस महिला को जन-सामान्‍य ने साक्षात अन्‍नपूर्णा का ओहदा दे दिया।

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कृष्‍ण की भक्ति से सूरदास ने छान लिया वात्‍सल्‍य रस का कोना-कोना

दृष्टि नहीं, दिव्यदृष्टि के मालिक हैं सूरदास
हरि, हौं सब पतितनि को नायक/ प्रभु, हौं सब पति‍तनि को टीकौ।
बात में दम था, लयबद्धता थी, गायन में शैली और रस था। और इन सबसे ऊपर हृदय से निकली और दिल को झकझोरी मौलिक रचना थी। लेकिन सच्‍चे गुरु के मन को खटक गया यह पद। वजह यह कि इसमें विनय की पराकाष्‍ठा तो थी, लेकिन प्रेम का वह हिलोरे मारता महासागर नदारत था,  जिसमें पस्‍त और त्रस्‍त पीडित जन गोते लगा सकते। बल्‍लभाचार्य तो सूर की कविता और गायन पर मुग्‍ध हो ही चुके थे, लेकिन इस सिद्ध कवि की वाणी में दैन्‍यता का बहता नाला उन्‍हें रास नहीं आ रहा था। सो आचार्य श्रीबल्‍लभाचार्य ने शिष्‍य को प्रेम से लताड़ते हुए कोसा:- सूर ह़वै कै ऐसी घिघियात काहे को हौ। सोतासौं कछु भगवत लीला बरनन करि।

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