सहारा प्रेस मतलब चकल्लस, चकल्लस और सिर्फ चकल्लस

मेरा कोना

लगते थे जोरदार नारे:- सुब्रत ढम्पो का, सुब्रत लम्पो का

सहारा में भगदड़ शुरू, देवरिया में निवेशकों ने कर्मियों को बंधक बनाया

नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे दर्ज चार बरस ( नौ )

कुमार सौवीरसहारा प्रेस मतलब चकल्लस, चकल्लस और सिर्फ चकल्लस strick-on-sahara-india-press

लखनऊ: यकीन मानिये, मुझे खुद भी पता नहीं है कि ढम्पो का या लम्पो का क्या अर्थ होता है। लेकिन यह शब्द पुरानी लखनऊ की हर गली-नुक्कड़ पर खूब चलता है। नयी शहरी आबादियों में भले इसका प्रचलन न होता है, लेकिन पुराने बस्तियों में आज भी, कम ही सही लेकिन, इन शब्दों का खूब इस्तेमाल होता है। मगर आज से 30 पहले तक यह शब्द इंदिरा नगर से लेकर अमौसी, राजापुरम से लेकर अलीगंज और तेलीबाग से अलीगंज तक खूब प्रचलित था। वैसे इन शब्दों के प्रयोग की शैली से मुझे लगता है कि शायद इन शब्दों का प्रयोग किसी को मूर्ख करार देने के लिए इस्तेमाल होता है। जरा देखिये इन शब्दों से बने वाक्यों को:- क्या बे, ढम्पो का है क्या

लेकिन अपने आंदोलन में हम लोगों ने इन शब्‍दों का खूब इस्‍तेमाल किया। हां, हां, गालियों के तौर पर। यह जानते हुए भी कि इन शब्‍दों का अर्थ क्‍या है, लेकिन चूंकि हम लोगों का तब संस्‍कार ऐसा नहीं था कि आदर-फादर करता, लेकिन सवाल यह तो था भी कि आखिर हम अपनी भड़ास कैसे निकालते। इन शब्‍दों से भले ही कोई अश्‍लील अर्थ न निकलता रहा होगा, लेकिन हम लोगों का आत्‍मा तो संतुष्‍ट हो ही जाती थी। इस ढम्‍पो वाले भजन की शुरूआत हमेशा देर शाम होती थी और शुरूआती अलाप लिया करते थे हमारे अग्रज रामेश्‍वर पाण्‍डेय, जो आज दैनिक जागरण से सेवानिवृ‍त्‍त हो चुके हैं। अक्‍सर इस पर थाप दिया करते थे उदय सिन्‍हा और आशुतोष मिश्र जी। बावजूद कि इन लोगों का सुर हमेशा लीक से बाहर बहता रहता था। लेकिन हम दर्जनों साथी जोर-जोर से हल्‍ला करते थे। कुछ दिन तो हमारे कुछ बंगा‍ली पड़ोसियों ने हल्‍का मुंह बनाया कि शोर बहुत होता है, लेकिन जल्‍दी ही उनका ऐतराज खत्‍म हो गया। और शाम होते ही किस लाजवाब नुमाइश-जलसे की तरह कीर्ति प्रेस में पड़ोसी और उनके बच्‍चे धमक जाते थे। गोया, यहां आंदोलन नहीं हो रहा होगा, बल्कि किसी वाटर-पार्क का माहौल हो।

मैं फिर कहूंगा कि हम लोग हर्गिज नहीं चाहते थे कि इन शब्दों का प्रयोग सुब्रत राय के लिए किया जाए। वजह यह कि सुब्रत राय मूर्ख नहीं है, दरअसल वह एक दर-शातिर टाइप शख्स है। उसकी खोपड़ी में सिर्फ और सिर्फ भेजा भरा हुआ है। बेहिसाब दिमाग। मुझे तो लगता है कि मेधावी और मेधा शब्द का पर्यायवाची है सुब्रत राय। आप देखिये ना कि शारदा ग्रुप के सुदीप्तो घोष उसके चेला-चपाटी निदेशकों ने छोटे-छोटे ठेला-गुमटी वाले आम आदमी से अरबों-अरब पैसा उगाहा, जबकि सुब्रत राय ने अपनी राह तो सुदीप्तो घोष की शैली पर पकड़ी, लेकिन जल्दी ही सु्ब्रत राय को साफ दिख गया कि वैभव का दिखावा-प्रदर्शन सर्वाधिक माल बरसा सकता है। उसे साफ पता चल गया कि इस देश में अगर  किसी के पास बेइंतिहा और बेशुमार माल भरा-अटा है, तो वह है बेईमान नेता और अफसर के गिरोह। सुब्रत ने इस गिरोहों की नब्ज टटोली और मर्ज समझते हुए इसीलिए सुब्रत राय ने फिल्मी एक्टर्स और क्रिकेटर्स पर पैसा फेंका। यह प्रदर्शन के लिए कि सुब्रत राय क्रिकेटर्स और एक्टर्स का प्रभा-पुंज और गॉड-फादर है, और उनकी करीबी वाली फोटोज-खबरें मार्केट में फ्लोट करना शुरू किया। जल्दी ही सुब्रत राय बड़े अधिकारियों और नेताओं का बगलगीर बन गये। इन अफसरों-नेताओं की होने काली अतुल्य कमाई का प्रवाह सहारा इंडिया के धन-कुण्ड में गिरने लगा। सहारा इंडिया से जुड़े कई लोगों ने मुझे बताया, लेकिन यह बात करीब 25 साल पहले तक सचिवालय से लेकर सरकारी गलियारों में गूंजती रहती थी कि सुब्रत राय के पास बेशुमार रकम का राज यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह का खजाना है। चर्चा तो यही थी कि वीर बहादुर ने अपना सारा काला पैसा सुब्रत राय के पास जमा करा रखा था, लेकिन जैसे ही वीरबहादुर सिंह की मौत हुई, यह पूरा का पूरा खजाना हजम हो गया। कहां गया, कोई नहीं जानता। इतना ही नहीं, इस समय मौजूद बड़े-बड़े नेताओं की खरबों-खरब ब्लैक-मनी सहारा इंडिया में खपी हुई है।

कुछ भी हो, सुब्रत राय ने पैसा तो भले इन नेताओं से हासिल किया हो, लेकिन उसे सबसे ज्यादा शोहरत दिलायी उसके खिलाड़ी मित्रों ने। सुब्रत ने इन खिलाडि़यों की जेबों में दिल खोल कर रकम ठूंसी थी। हां, जो खिलाड़ी सीधे-सीदे गये थे, उन्हें रकम तो नहीं मिली, हां, मौत का आगोश जरूर मुहैया हो गयी। लेकिन आज मैं दिल से कहता हूं कि सैयद मोदी से सुब्रत राय के रिश्ते आत्मीय ज्यादा था। लखनऊ स्टेडियम के पिछले दरवाजे पर सन-89 में जब सैयद मोदी पर जानलेवा हमला हुआ, मैं सबसे पहले मौके पर पहुंचा था। और पाया कि उसके करीब 10 मिनट बाद ही सुब्रत राय भी वहां पहुंच गये थे। मैं चश्मदीद हूं कि सैयद मोदी की लाश को देखते ही सुब्रत राय की आंख बहने लगीं थी। यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं, क्यों कि मैं खूब जानता हूं कि सुब्रत राय की आंखों से पानी निकलना रेत से तेल निकालने के समान है। लेकिन उस समय सुब्रत राय सचमुच रो रहे थे। मैंने पत्थर को पिघलता देखना उस समय पहली बार देखा था। इसीलिए मैं अक्सर सोचता हूं कि सुब्रत राय को मैं वाकई प्रेम करता हूं।

फिर ऐसे शख्स को हम ढम्पो–का, लम्पो-का या मूर्ख के तौर पर क्यों कहते-समझने लगते।

हां, अगर आप सुब्रत राय को घमण्डी कहना चाहें तो यह दीगर बात है। सुब्रत राय बाकायदा एक क्रूरतम घमण्डी शख्सियत हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सुब्रत राय तिहाड़ जेल में अपने दिन न काटते। ऐसा न होता तो दुनिया के इस सबसे महानतम ट्रिकलिश और दुर्दान्त आर्थिक अपराधी की पींगें आसमान से भी ऊपर चलती-उड़तीं। दरअसल सुब्रत राय में अति-आत्मविश्वास है और इस कदर है कि अपने अलावा किसी पर भी विश्वास नहीं करते। सहारा इंडिया के अंदरखाने वाले सूत्रों का कहना है कि सुब्रत राय को ओपी श्रीवास्तव ने इस मामले को खुद को सौंपने का अनुरोध किया था, क्योंकि सुब्रत राय को टेढी ऊंगली से घी निकालने का महारत है, जबकि ओपी श्रीवास्तव सीधी ऊंगली से ही ऐसे काम कर सकते हैं। लेकिन, सूत्रों के अनुसार, ऐसा नहीं हुआ। सुब्रत राय ने ओपी श्रीवास्तव को यह मामला नहीं सौंपा और खुद ही डील करने लगे। मेरा मानना है कि अगर सुब्रत राय यह काम ओपी श्रीवास्तव के हवाले करते तो सुब्रत राय आज जेल में न होते। डील कराने में ओपी श्रीवास्तव का कोई सानी नहीं है। वे अपने सारे दायित्वों को पूरी तरह ईमानदारी के साथ निभाते हैं और कोई ढिंढोरा भी नहीं बजता है। महीन शख्सियत। सहारा इंडिया के कई कर्मचारियों-अधिकारियों ने मुझसे निजी बातचीत में कई-कई बार साफ-साफ कहा है कि ओपी श्रीवास्तव और सुबोध सहाय और सहारा हॉस्पिटल वाले डॉ एचपी कुमार जैसे कुछ को अगर छोड़ दिया जाए तो सहारा इंडिया में बड़ी अफसरशाही बाकायदा किसी पाप-कुण्ड से कम नहीं है।

तो, अब लब्बोलुआब यह कि सुब्रत राय अपनी लीक से तनिक भी डिगने को तैयार नहीं थे। वे सोचते रहे थे कि जिस तरह वे अपने तनिक भर विरोध करने पर अपने किसी भी कर्मचारी को तबाह-बर्बाद करते हैं, ठीक उसी तरह सेबी या सर्वोच्च न्यायालय तक को भी खौखियाकर काट-नोंच सकते हैं। नतीजा आपके सामने है कि सुब्रत राय तिहाड़ जेल में हैं और सहारा इंडिया की नींव बुरी तरह डगमगा रही है। निवेशकों ने बवाल करना शुरू कर दिया है। ताजा खबर है कि देवरिया में पैसा अदा न करने पर बुरी तरह भड़के निवेशकों ने सहारा की ब्रांच के कर्मचारियों को बंधक बना लिया था, जिन्हें जल्दी ही अदायगी की शर्त पर इन गुस्साये निवेशकों ने रिहा किया। खबर तो यह है कि आस-पास के इलाकों-जिलों में सहारा इंडिया के लोग अब निवेशकों के गुस्से से बचने की कोशिश में हैं। मतलब यह कि सहारा इंडिया के बुरे दिन अब आने ही वाले हैं।

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