शम्‍भूनाथ का शिगूफा: बुड्ढे पत्रकारों को देंगे नौकरी, तन्‍ख्‍वाह भी देंगे !!!

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: शम्‍भुवम् शरणम् गच्‍छामि, लगने लगे हैं नारे शम्‍भूनाथ शुक्‍ल की गलियों में : 55 प्‍लस वाले अनुभवी बुड्डों को मोटी रकम के साथ नौकरी केसै अदा कर पायेंगे, बड़ा सवाल : ऐतिहासिक और बड़ा नाम जैसे आफर्स से कान खड़े हो गये ठलुहा-पत्रकारों के कान :  ख़ैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, बैर, प्रीति, मधुपान। रहिमन दाबे न दबे, जाने सकल जहान :

मेरीबिटिया संवाददाता

गाजियाबाद : एक पत्रकार हैं शम्‍भूनाथ। कनपुरिया आदमी हैं, बसे हैं गाजियाबाद में और जात के है शुक्‍ल। अमरउजाला के सम्‍पादक रह चुके हैं। मनमौजी हैं, गाहे-ब-गाहे उन पर जातिवादी चेहरा का मुखौटा पहनाने का शौक चर्रा जाता है। बहुत ज्‍यादा जोश चढ़ता है तो वे अपना सरनेम या जातिवाद का बिल्‍ला हटा देते हैं, लेकिन बाद में फिर शुक्‍ल का बिल्‍ला टांग लेते हैं। लेकिन हर बार एक से बढ़ कर एक प्रभावशाली तर्क भी भिड़ा देते हैं।

फिलहाल उनकी चर्चा आजकल फिर उनके शुरू हुए एक शिगूफा को लेकर हो रही है। शम्‍भूनाथ शुक्‍ल को जानने वालों में चर्चाएं आजकल बेहिसाब चल रही हैं कि न जाने कौन सी लॉटरी मिल गयी है शम्‍भूनाथ शुक्‍ल को, कि वे पत्रकारों को नौकरी देने की तैयारी में जुट गये हैं। वह भी बुड्ढे पत्रकारों को, जो कम से कम 55 बरस के हों। सठिया चुके लोगों को ज्‍यादा तरजीह देने की बात कर रहे हैं सुकुल जी। लेकिन उससे भी ज्‍यादा दिक्‍कत तो इस बात पर है कि इस काम के लिए वे वेतन भी देंगे, और खासियत यह होगी कि यह काम बेहद ऐतिहासिक होगा। हैरत की बात है कि आखिर शुक्‍ल जी के पास इतने संसाधन कैसे जुट गये कि वे अब खलिहर और बुजुर्ग लोगों को नौकरी देने का अभियान छेड़ रहे हैं, तुर्रा यह कि वे वेतन भी देंगे।

अपनी वाल पर शुक्‍ल जी ने लिखा है कि:- जो लोग अनुभवी हैं और जिनकी हिंदी, अँग्रेजी तथा संस्कृत में अच्छी पकड़ है साथ ही कंप्यूटर पर काम कर लेते हैं। वे लोग मेरे इनबॉक्स अथवा मेरे ईमेल (shambhunaths@gmail.com) पर संपर्क करें। काम बड़ा है और ऐतिहासिक भी। वेतन योग्यतानुसार। कृपया 55 प्लस के लोग संपर्क करें तो बेहतर। रिटायर्ड को वरीयता।

कानपुर से जुड़ी खबरों को पढ़ने के लिए निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

कानपुर

जैसी कि उम्‍मीद थी, इस पोस्‍ट के बाद चर्चाएं होनी शुरू हो गयीं। जरा ऐसी चंद प्रतिक्रियाओं का जायजा ले लीजिए:-

Ashok Kumar Pandey: हमारे लिए कछु चांस है? हिन्दी अँग्रेजी में द्रुत गति है।

Shambhunath Shukla: संस्कृत भी।

मुकुन्द हरि शुक्ल : बंदा तीनों भाषाओं का अत्यल्प ज्ञान रखता है। जो आदेश हो, प्रयास रहेगा।

Shambhunath Shukla : ठीक है। आपका नाम ज़ेहन में रहेगा।

Ashok Kumar Pandey:  Bibhas Kumar Srivastav इन तीनों के अलावा भी कई भाषाएँ जानते हैं।

रेणु राजपूत: सर वेतन का transaction अपग्रडे प्लस माइनस मैं कर सकती हूँ , पर यहाँ सैलूट आपको की वरीयता आपने रिटायर्ड लोगों को दिया है ! सर रिटायर्ड लोगों की सेल्फ रेस्पेक्ट कार्य के प्रति उत्साह और जीने की जिजीविषा मैंने पुणे में देखा है ! काफी लोगों से बात भी की हूँ जो 70 से ऊपर के हैं पर जीवन की सकारात्मकता मुझे प्रेरित करती हैं !और उनमें आप भी हैं !!

Shambhunath Shukla: शुक्रिया! रिटायर्ड अपनी संतानों पर निर्भर रह कर अपना आत्मसम्मान खो देते हैं। जबकि वे अनुभवी भी होते हैं और जोश में होश न खोने वाले भी। इसीलिए मैने उनको वरीयता दी है।

रेणु राजपूत: जी सर !! जब मैं नई आई थी तो मेरे कैब के ड्राइवर जो मिलें वो तक़रीबन 75 के होंगें ! मुझे थोड़ी देर बहुत असमंजस रहा कुछ कहने में थोड़ी उनकी उम्र देखकर भावुक भी हुई पर जब उन्होनें पूरे रास्ते मुझे पुणे के बारे में बताना शुरू किया और खुद के बारे में बोले की मैं रिटायर्ड फौजी हूँ ! वाइफ टिफिन सेवा देती है और में कैब चलाता हूँ ! अभी तो मैं सिर्फ 72 का हूँ तो तब से मेरी उनसे दोस्ती पक्की हो गई है  जीवन की कीमत समझने वाला इंसान कभी रिटायर्ड नहीं हो सकता और ना ही निराश !

Abhinav Pandey:  55- को अंडरएस्टीमेट कर रहे हैं सर आप

Shambhunath Shukla: कुछ कम उम्र के भी होंगे। हर आयु वर्ग के लोग रखने हैं। लेकिन वही जो जटिल विषयों की सरल और सहज भाषा में व्याख्या कर सकते हैं।

डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान शंभू सर.. हम हिंदी -अंग्रेज़ी -उर्दू -अरबी -फ़ारसी -संस्कृत कामचलाऊ जानते हैं..कंप्यूटर के कान भी उमेठ लेते हैं लेकिन 55+ नहीं हैं.. दूसरा कि हमें वेतन लेना नहीं बल्कि तनख़्वाह देना पसंद है.. लिहाज़ा हम आपको ना तो मेल करेंगे और ना ही इनबॉक्स.. So Sorry शंभू सर

Shambhunath Shukla: लेकिन आपकी ज़रूरत पड़ेगी। क्योंकि आपका ज्ञान और ज़मीनी पकड़ तथा भाषा लाजवाब है। आप छुपे रहना चाहें तो छुपे रहें लेकिन ख़ुशबू कब रुकती है।

Shambhunath Shukla: ख़ैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, बैर, प्रीति, मधुपान।

रहिमन दाबे न दबे, जाने सकल जहान।।

(तो खान साहब यहाँ आप ख़ुशी हैं!)

पत्रकारिता से जुड़ी खबरों को देखने के लिए निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

पत्रकार

Shambhunath Shukla: अरबी-फ़ारसी का कोई भी विद्वान संस्कृत से अनजान हो नहीं सकता। और यह विद्वता मैने डॉ. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी में देखी है।

डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान शंभू सर.. आजकल अरबी -फ़ारसी के ज़्यादातर विद्वान संस्कृत से बिल्कुल अनजान रहते हैं और संस्कृत के आलिम अरबी -फ़ारसी से दिमाग़ सन्नाटा..

Shambhunath Shukla: डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान इसकी वजह है भाषाओं का धार्मिक बँटवारा। जो उन्नीसवीं सदी ख़त्म होते-होते अँग्रेज कर गए थे। उर्दू से मुसलमानों ने हिंदुओं को हटाया और हिंदुओं ने हिंदी अपना ली। जो पहले उर्दू ही थी।

डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान : शंभू सर.. हिंदी -उर्दू फ़साद की जड़ में अंग्रेज़ थे.. लल्लू लाल ने प्रेमसागर की भूमिका में लिखा था कि ‘ मैं गिलक्राइस्ट साहब के आदेश से उर्दू -फ़ारसी शब्दों का बहिष्कार कर रहा हूँ ‘ .. ना हिंदुओं को मुसलमानों ने उर्दू से हटाया और ना हिंदुओं ने हिंदी से मुसलमानों को टाट बाहर किया..ये कमाल तो अंग्रेज़ों ने किया

Shambhunath Shukla: डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान हाँ, लेकिन जोश मलीहाबादी ने लिखा है कि वे स्वयं और क़ाज़ी ख़ुर्शीद अहमद सर किशन प्रसाद शाद के यहाँ दावत में थे। दावत के बाद क़ाज़ी साहब ने जोश से कहा “मियाँ जोश, बहुत ग़नीमत, महाराज न देहलवी हैं न लखनवी लेकिन अच्छे शेर कहते हैं, और वह भी हिंदू होकर।” मानों हिंदू हैं तो उर्दू में क्यों लिखते हैं। शिबली साहब ने प्रेमचंद को पूर्वी यूपी का कायस्थ लिखा है।

डॉ. शारिक़ अहमद : ख़ान शंभू सर ..उस समय तक अंग्रेज़ों की हिंदी-उर्दू बंटवारा कराने की चाल सफ़ल हो चुकी थी.. एक बार फ़िराक़ साहब ने जोश मलीहाबादी से कहा कि ” अच्छा ,जोश ये बताओ कि मुशायरे वालों ने तुमसे क्यों कहा कि फ़िराक़ को भी बुला लेना, वो मुझसे भी तो कह सकते थे कि जोश को भी बुला लेना ,आने दो मुशायरे वालों को मैं गालियाँ देता हूँ ” …जोश ने जवाब में कहा कि.. ” देखो फ़िराक़ तुम अब झगड़ा करना चाहते हो.. बिना झगड़ा किए तुम्हारा पेट नहीं भरता.. तुम गालियाँ बकना छोड़ दो..” …

फ़िराक़ साहब ने जवाब दिया कि ” अबे फ़िराक़ की गाली फ़क़ीर की गाली है..अगर मैं तुमको गाली दे दूँ तो ” ..

जोश ने कहा कि ” ख़बरदार फ़िराक़ मैं पठान हूँ क़त्ल कर दूँगा ”

फ़िराक़ साहब ने जवाब में कहा कि ” अबे पठान तो दर्रा-ए-ख़ैबर में पाए जाते हैं.. तुम तो मलीहाबाद के एक आम बेचने वाले बाग़वान हो.. माली हो ” ..

….शंभू सर यह किस्सा बताने का अर्थ यह है कि उन्नीसवीं सदी में सन सत्तावन के दस बरस के भीतर ही अंग्रेज़ हिंदी -उर्दू के बंटवारे का अपना काम पूरा कर चुके थे.. शिब्ली -जोश -फ़िराक़ के वक़्त उर्दू मुसलमान हो चुकी थी और मुशायरे भी मुसलमाँ हो गए थे.. ये अंग्रेज़ों का कमाल था

Shambhunath Shukla: सही है।

Sanjaya Kumar Singh : 53 साल। बिना संस्कृत। तो मैं भी हूं।

रेणु राजपूत बड़े भईया आप प्रतीक्षा करें

यहाँ परिवारवाद नहीं चलेगा…;)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *