: राजनीति में चाणक्य और पुष्यमित्र तथा सांस्कृतिक-स्तम्भ शंकराचार्य अप्रतिम : तुलसीदास और चैतन्य प्रभु ने बनायी एक नई आध्यात्मिक डगर : उसके बाद का मुख्य राजमार्ग तो विध्वंस की ओर पहुंचा : राम जन्मभूमि आंदोलन-एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आर्यावर्त में विभिन्न सांस्कृतिक रिश्तों को आपस में मधुर और रसीला बनाने की कवायदें हमेशा से ही होती रही हैं। यह कोशिशें चाणक्य और पुष्यमित्र शुंग जैसे राजनीतिक योद्धाओं की कसरत से बिलकुल अलग धुरी पर थीं। गुप्त-कालीन राजाओं ने भी उसे सांस्कृतिक आवरण देकर उसे सजाने-संवारने की पूरी कोशिश की, लेकिन विशुद्ध धार्मिक सम्मेलन की पहली शुरूआत आदि-शंकराचार्य ने करीब 800 ईस्वी में शुरू की। केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण शंकराचार्य मूलत: शैव यानी शिव-भक्त थे। उन्होंने केवल 16 बरस की उम्र में हिन्दुत्व के बिखरे तत्वों को मजबूत करने के लिए देशाटन शुरू किया और पूर्वोत्तर में असम, उत्तर में ज्योतिष्पुर के केदारनाथ और बद्रीनाथ, पश्चिम में द्वारिका तक की पैदल यात्रा कर डाली।
एक अन्य ठोस पहल के तौर पर हम तुलसीदास जी को देखते हैं। जैसा कि इतिहास में दर्ज है कि प्राचीन काल से ही शैव और वैष्णव के बीच खूब और अक्सर लट्ठमलट्ठा हुआ करता था। दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ रक्त-रंजित लंगोट कसे रहते थे। काशी भी उससे अलग नहीं थी। शैव अलग नंगई करते थे, और वैष्णवों को अपने ज्ञान, मेधा और शिक्षा पर दर्प था। इतना कि एक-दूसरे को देखते ही वे हिंसक हो जाते थे। इसी खाई को पाटने की कोशिशें कीं तुलसीदास ने। तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण से अलग हट कर अपने रामचरितमानस में राम और शिव का एक पारस्परिक श्रद्धा का सम्बन्ध बनाया।
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तुलसीदास ने हिन्दू समाज के विभिन्न समुदायों-सम्प्रदायों के बीच एक ऐसी धार्मिक एकजुटता की परिकल्पना की, जहां औघड़ शिव-शंकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के भक्त है वहीं राम लंका पर आक्रमण करने के पहले सागरतट पर शिवलिंग बनाकर उसकी अर्चना करते हैं। मगर अधिकांश वैष्णवों और शैवों की भृकुटि तुलसीदास पर भड़क गयी। शैवों के अनुसार तुलसीदास एक अहंकारी वैष्णव समुदाय के अंग थे, जबकि वैष्णव समुदाय तुलसी से दूर कर उसमें शैवत्व देख कर त्याज्य समझते रहते थे। अस्पृश्यता तक की सीमा से भी ज्यादा। उनका मानना था कि तुलसीदास काशी की संस्कारी संस्कृत और संस्कृति में अवधी घुसपैठ के प्रतीक हैं।
कुछ भी हो, तुलसीदास ने मुगलों के खिलाफ हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए सांस्कृतिक रणनीति के तहत रामचरित मानस की रचना कर डाली। इसमें उन्होंने वैष्णवों और शैवों को समानता के स्तर पर खड़ा किया। कहने की जरूरत नहीं कि तुलसीदास ने ही राम और शिव के एक-पर्याय कहने, अपनाने की प्रभावी कार्रवाई छेड़ी, और उसमें वे काफी सफल भी हुए। हालांकि इस दौरान तुलसीदास को काफी अपमान भी सहना पड़ा, शैवों की ओर से भी, और वैष्णवों की ओर से भी। लेकिन असर पड़ा जरूर। (क्रमश:)