सारा दोष आरएसएस पर ही क्‍यों ?

मेरा कोना

: चिंतक-पत्रकार त्रिभुवन सवाल करते हैं क्‍या संघवादी मानसिकता से जुड़े लोग ही दोषी हैं : कांग्रेस और उसके छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी नेता ही तो कर रहे थे यह अनर्थ : यह कहना कि देश में सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा और संघ परिवार के लोग ही माहौल बिगाड़ रहे हैं, तर्कसंगत नहीं :

त्रिभुवन

उदयपुर : इन दिनों जो माहौल चल रहा है, उसे लेकर देश का एक बड़ा वर्ग आरएसएस और उससे जुड़े लोगों को दोषी मानता है। यह स्वर छुपा हुआ नहीं है। यह बहुत मुखर स्वर है और ख़ासकर वामपंथी झुकाव वाले प्रगतिशील खेमे के बुद्धजीवियों में। लेकिन क्या सिर्फ़ संघवादी मानसिकता के लोग ही इस वातावरण के लिए दोषी हैं?

मैं इतिहास का एक सामान्य सा विद्यार्थी हूं। मैं जब इतिहास पढ़ता हूं तो देखता हूं कि गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष और बहुतेरे बुद्धिजीवी भविष्यवाणी करते हैं कि अंगरेज़ भारत से दफ़ा हो जाए तो हम अमन-चैन से रहेंगे और सांप्रदायिकता सदा के लिए विदा हो जाएगी। ब्रिटिश उपनिवेशवाद की उंगली थामकर सांप्रदायिकता भी भारत की धरती को छोड़ देगी। जातिवाद से तो हम निबट ही लेंगे। यह तो कोई समस्या ही नहीं।

सच बात तो ये है कि अगर किसी खेत में खरपतवार बुरी तरह उग आया हो तो उसके लिए आप खरपतवार को कभी दोष नहीं दे सकते। अगर कोई ऐसा करेगा तो लोग उसे मूर्ख ही कहेंगे। खेत किसान के पास है और फ़सल को नष्ट करके अगर खरपतवार लहलहाने लगा है तो किसान दोषी है। वह इतने दिन तक कर क्या रहा था! देश में अगर सांप्रदायिक माहौल बना और यह विष बेल परवान चढ़ी तो अब तक मुख्यधारा की सबसे बड़ी और सत्तासीन पार्टी कांग्रेस और ताकतवर दल के रूप में रहे कम्युनिस्ट और समाजवादी कर क्या रहे थे? उन्होंने ऐसा माहौल बनने ही क्यों दिया? अगर आप सत्ता में हों और आप की मति नहीं मारी गई हो तो आप समाज और देश को ठीक से आगे ले जाने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या ऐसा किया गया?

इतिहास के सफ़ेद पन्नों पर काले अक्षर नाच-नाच कर कह रहे हैं कि 1947 से पहले कांग्रेस ने दो बड़ी रणनीतिक भूलें की थीं। गांधी-नेहरू और पटेल इसके लिए जिम्मेदार थे। इन सबने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन प्रणाली स्वीकार की थी।

आज कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवादी दल और इनकी मानसिकता से जुड़े पत्रकार-लेखक और विचारक वंदेमातरम्, रामराज्य, गौपूजा, वर्णाश्रम धर्म और सनातन धर्म के प्रतीकों का नाम भर सुनकर नौ-नौ ताल उछलते हैं। लेकिन मैं बड़ी विनम्रता से जानना चाहता हूं कि वंदेमातरम्, रामराज्य, गौपूजा, वर्णाश्रम धर्म और सनातन धर्म के प्रतीकों को देश की राजनीतिक संस्कृति में सबसे पहले लाया कौन था? “सत्यमेव जयते” क्या आरएसएस लेकर अाया था? सुप्रीम कोर्ट का आदर्श घोष वाक्य “यतोधर्मस्ततो जय:” किसने चुना था? उस समय विधि मंत्री तो महान् क्रांतिकारी सुधारक और संविधानवेत्ता डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। हिन्दू प्रतीक चिह्नों को भारतीय जीवन दर्शन बनाने वाले लोग तो ख़ुद कांग्रेस के थे और दोष मंढ़ा जा रहा है अकेले आरएसएस पर। अरे भाई, आरएसएस ने तो ये चीज़ें कांग्रेस के कबाड़ खाने से निकालकर अपने खाली आलों में सजाई हैं, क्योंकि उनके पास अपना कुछ था नहीं। वे भारत को परम वैभव पर पहुंचाना तो चाहते थे, लेकिन राह नहीं थी। राह कांग्रेस के पास भी नहीं थी। लेकिन वे हिन्दू धर्म के पुरातत्व युग में जाकर गीता की कसमें खाने से लेकर न जाने कितनी चीज़ें उठाकर लाए।

कांग्रेस एक तरफ़ तो सनातन संस्कृति से जुड़े लोगों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए इन प्रतीकों को गढ़ रही थी और दूसरी तरफ़ मुस्लिम अल्पसंख्यकवाद के प्रेत को पाल-पोस रही थी। अब आप दो-दो प्रेतों की सेवा करें और 70 साल तक बचे रहें तो और आपको क्या चाहिए? अरे आपको तो बहुत पहले नष्ट हो जाना चाहिए था।

अभी आरक्षण पर लोग बहुत हो हल्ला-करते हैं, लेकिन सच तो ये है कि ब्रिटिश सरकार भारत में मुसलमानों की तरह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए भी अलग निर्वाचन प्रणाली ला रही थी। लेकिन गांधीजी ने हिन्दू समाज की एकता के नाम पर ब्रिटिश योजना के ख़िलाफ़ अनशन किया और उन जातियों को आरक्षण का वादा करके लड़ाई जीत ली। आरएसएस आज इसी विचार को लेकर तो प्रचंड हो रहा है। तो यह मूल विचार है किसका? आरएसएस का कि कांग्रेस का? कि गांधीवादियों का? किसी और का?

हमारा देश आज़ाद हुआ तो कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता को अपनाने की बात तो की, लेकिन उसके मूल में हिन्दुत्ववादी पुरुत्थानवाद के बीज ही थे। अब यह बीज वटवृक्ष बना है तो ज़मीन किसी और ने छीन ली है। आज़ादी के तत्काल बाद स्वतंत्रता दिवस के सरकारी समारोहों में शंखनाद क्या आरएसएस ने शुरू करवाया था? हिन्दू पूजा पद्धति से जुड़े मंत्र क्या हिन्दू महासभा पढ़ रही थी? भारत का नाम “भारत” कांग्रेस के लोगों ने रखा था तो क्या इसे संघ के लोगों ने सुझाया था? भारत शब्द क्या महाभारत से नहीं लिया गया था। क्या यह भारत माता से लिया गया शब्द नहीं था? और क्या यह कांग्रेस के नेताओं के मस्तिष्क की उपज नहीं था? अगर यह उस दिन सही था तो आज भारत माता सांप्रदायिक कैसे हो गया और अगर आज सांप्रदायिक है तो उस दिन कांग्रेस कैसे धर्मनिरपेक्ष थी?

मुंडकोपनिषद से लिया गया राष्ट्रीय घोष “सत्यमेव जयते” क्या नागपुर से कांग्रेस मुख्यालय को या संविधानसभा के प्रमुख को भेजा गया था? हिन्दू परंपरा का पवित्र पक्षी मोर देश का राष्ट्रीय पक्षी कैसे बना? भाजपा का प्रेम तो ऊंट और गधे के प्रति पिछले कुछ समय में दिखाई दिया है, जो कि पूरी तरह मुसलिम संस्कृति से जुड़े पशु हैं। हिन्दू परंपरा तो ऊंट और गधे का विकराल उपहास ही करती है।

गो-रक्षा का मुद्दा तो भाजपा पिछले कुछ वर्ष से लेकर आई है, लेकिन संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में इसे क्या आरएसएस ने शामिल करवाया था? यह काम कांग्रेस के नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू आदि ने ही नहीं किया था? गोवध पर पाबंदी लगाना भारतीय संविधान के उद्देश्यों में एक बताया गया है। इसमें बहुत सारे नीतिनिर्देशक तत्व हैं, लेकिन एक गाय ही बाकी उद्देश्यों को भूखी मरती चर गई।

जैन एक अलग धर्म था। सिख एक अलग पंथ था। लेकिन इन्हें हिन्दू धर्म का ही अंग बताने वाला संविधान किसने रचा था? क्या संघ ने? संघ तो उस तो उस समय पावर में था ही नहीं। यह सब कांग्रेस और उसके छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी नेता ही तो कर रहे थे। क्या यह सब झूठ है?

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मुझे लगता है, कांग्रेसजनों, समाजवादियों, वामपंथियों, लोहियावादियों आदि आदि का यह कहना कि देश में सिर्फ़ और सिर्फ़ भाजपा और संघ परिवार के लोग ही माहौल बिगाड़ रहे हैं, तर्कसंगत नहीं है। दरअसल धर्मांधता और सांप्रदायिकता वाले इस राजनीतिक खेल के नियम बनाए तो किसी और ने पहले अपने फ़ायदे के लिए थे, लेकिन समय आने पर इसे किसी और ने हथिया लिया। यह ऐसा ही है कि आप अपनी सियासी कमज़र्फ़ी के चलते पहले तो बंदूकों को दूसरों की तरफ़ तान दें, लेकिन जैसे ही किसी दूसरे के हाथ में यह चीज़ आ जाए तो यह ग़लत हो जाए। यही मूलभूत चूक है।

इतिहास की ग़लतियों को अगर आप आज खुले तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे तो वही होगा, जो हो रहा है। कोई भी देश अतीत के मूल्यों को हृदय में तो धारण कर सकता है, लेकिन उन्हें पहन-ओढ़कर एक आधुनिक भावबोध वाला राष्ट़्र नहीं बनाया जा सकता।

आज हमारे देश को हमारे महान् नेताओं ने जिस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, वहां उनकी राजनीति सत्ता प्राप्ति तक सीमित है और देश और देश के लोग जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनमें से किसी एक का भी हल उनके पास नहीं है। वे एक दूसरे को ग़ाली देने, देशद्रोही और नाकाम घोषित करने के प्रपंच को कामयाब बनाकर चुनाव जीतने तक का वास्ता रखते हैं।

इस देश का इंटेलिजेंटसिया इन नेताओं से भी अधिक धूर्त और मक्कार है। वह सत्ता के गलियारों का मज़ा जहां और जितनी आसानी से ले सकता है, वह उसके साथ रहता है। उसे इस देश के वास्तविक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं हैं। उसके शौक महंगी शराबें, लग्जरी कारें और लैविश लाइफस्टाइल है। आम भारत किस गांव में, किसी गली पर, किस कोने में, किसी आदिवासी अंधेरे में सुबक रहा है, उसे कुछ पता नहीं है। वह अपने स्वार्थ के लिए किसी को भी गर्व से अपना बाप कह सकता है और गर्व से किसी को भी देशद्रोही ठहरा सकता है।

भारत के नए हालात बता रहे हैं कि हम एक सुइसाइड स्क्वैड के शिकंजे में हैं और हमें एक नागरिक के तौर पर सदा सजग और चैतन्य रहने की आवश्यकता है। जो आदमी सत्ता के लालच में ख़ुद ज़हरीली दिल्ली को अपनाने चला है, वह आपके लिए कोई शस्य श्यामला धरती का टुकड़ा ढूंढ़कर लाएगा, अगर आप ऐसा भ्रम पाले हैं तो इस पृथिवी पर आपसे मूर्ख कोई नहीं है।

हमें अपने देश के हितों को देखना चाहिए, न कि किसी व्यक्ति, किसी दल, किसी संगठन, किसी विचारधारा, किसी धर्म विशेष या किसी रंग विशेष के हितों और एजेंडे को। इनका शिकार होने का मतलब है आप देश के हितों को नहीं समझ पा रहे हैं। देश का हित इसमें है कि आप सदा सैनिक की तरह चौकन्ने रहें। ग़लत को ग़लत और सही को सही कहें।

वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि बहुत बार विष को सोने के घड़े में ही रखा जाता है। इसलिए आप विष को भी समझें और घड़े को भी ठीक से देख लें। आज एक नहीं, कई घड़े हैं और उनमें भांति-भांति के और इंटरनेशनल ब्रैंड के विष भरे हुए हैं। वे इतने सम्मोहक हैं कि हम स्वयं ही विषपान को उत्कंठित हो जाते हैं और अपने आपको रोक ही नहीं पाते।

आप समझ गए न : सोने के घड़े में ज़हर!

लेखक त्रिभुवन दैनिक भास्‍कर के उदयपुर संस्‍करण में सम्‍पादक हैं। त्रिभुवन के लिखे आलेखों-समाचारों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

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