सहारनपुर दंगा: बड़कुओं ने छुटकुओं को सस्‍पेंड करा डाला

सैड सांग

: सहारनपुर का दंगा योगी सरकार की खासी किरकरी कर गया : केवल काना-फूंसी ही करते रहते हो, दंगा-नियंत्रण के लिए बड़े अफसरों को जिला का जिम्‍मा दो : सच बात तो यही है कि बवाल होने पर जिम्‍मेदार अफसरों को तंग करते हैं ऊपर से भेजे गये आका :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सहारनपुर में हुआ दंगा किस पार्टी को कितना-कैसा लाभ या नुकसान पहुंचा गया, यह तो बाद की बात है। फिलहाल तो सचाई यही है कि इस दंगे में जिला स्‍तर के प्रशासनिक ढांचे के खिलाफ हुई मुअ‍त्‍तली की कार्रवाई ने अफसरों का मनोबल बेहद कमजोर किया है। जिले स्‍तर पर तैनात अफसरों के ऊपर किसी भारी बोझ की तरह फेंके लखनऊ से भेजे गये अफसरों के होते हुए अगर यह दंगा नहीं रूक पाया, तो फिर इससे पूरी कवायद ही शक की जद में आ जाती है। कुछ भी हो, हैरत की बात तो यह है कि कई उदाहरणों के होते हुए भी कि प्रशासन पर बड़े अफसरों को थोपने के बजाय उन्‍हें सीधे जिलों का जिम्‍मा दिया गया था, हालिया निलम्‍बन की यह कार्रवाई पर अफसरों में काफी रोष है।

आपको बता दें कि सहारनपुर में दो महीना पहले हुए दंगों में अब तक वहां के सामाजिक ताने-बाने के साथ ही साथ प्रशासनिक ढांचे को भी खासी क्षति पहुंच चुकी है। मुअत्‍तली का शिकार बने हैं एक डीएम, एक एसएसपी, समेत कई दीगर अफसर। लेकिन प्रशासनिक तौर पर इस पूरे कर्मकाण्‍ड ने अपनी जमकर छीछालेदर करा दी है। अब सवाल यह उठने लगे हैं कि जब किसी भी जिले में दंगों-बवालों को थामने का जिम्‍मा स्‍थानीय प्रशासन का होता है, तो फिर वहां लखनऊ से भारी-भरकम अफसरों की तैनाती किसी भारी सिरदर्द की तरह क्‍यों की जाती है। सवाल तो यह भी है कि आखिर बाहर से भेजे गये अफसरों की भूमिका क्‍या होती है।

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सहारनपुर

सहारनपुर काण्‍ड में एसएसपी लव कुमार के बाद जिस तरह नये एसएसपी और डीएम की तैनाती के बावजूद लखनऊ से गृह-सचिव मणिप्रसाद मिश्र और एडीजी-एलओ आदित्‍य मिश्र को वहां भेजा गया, उसने इस पूरे मसले को और भी गम्‍भीर बना डाला है। खास तौर पर तब, जब कि उस इलाके में डीएम के ऊपर की श्रेणी में आयुक्‍त, डीआईजी, आईजी जोन और एडीजी की तैनाती होती है। ऐसे में लखनऊ से एडीजी और गृह सचिव की तैनात का क्‍या औचित्‍य था। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी अनौचित्‍यपूर्ण कार्रवाइयों के चलते ही प्रशासनिक ढांचा की किरकिरी हो गयी।

इसके बाद प्रश्‍न उठने लगे हैं कि आका अफसरों को जिलों की बागडोर सम्‍भालने के बजाय, वहां पहले से तैनात अफसरों की लगाम कसने की क्‍या जरूरत होती है। इससे बेहतर तो यह होता कि लखनऊ से काबिल और बड़े अफसरों को सीधे-सीधे उन जिलों का जिम्‍मा दे दिया जाता। इतिहास में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जो सहारनपुर बवाल में नजीर बन सकती थीं और सरकार व शासन अपनी छीछालेदर को रोक सकता था।

इलाहाबाद के पूर्व मंडलायुक्‍त देवेंद्र दुबे को खूब याद है कि इतिहास में हालातों को काबू में रखने के लिए कई ऐसी कई व्‍यवस्‍थाएं लागू हो चुकी थीं। दुबे बताते हैं कि इसके पहले तो आपातकाल के दौरान एक घटना मुजफ्फरनगर में हुआ था। हुआ यह कि उस वक्‍त थे ब्रजेंद्र यादव। नसबंदी के दौरान ब्रजेंद्र ने जबर्दस्‍ती और बेहूदगी, अत्‍याचार और शोषण की सारी हदें पार कर दीं, तो जनता बगावत पर उतर आयी। मामला काबू से बाहर जाने लगा तो शासन ने ब्रजेंद्र यादव को हटा कर सचिवालय में के एक विभाग के सचिव के तौर पर तैनात योगेंद्र नारायण को मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी के पद भेज दिया। योगेंद्र को मुजफ्फरनगर का अनुभव पहले भी हो चुका था। होने को तो यह वरीयता का उल्‍लंघन वाला मामला दिखता है, लेकिन शासन को अहसास था कि इस मामले में इससे बेहतर कोई भी सटीक कार्रवाई नहीं हो सकती है।

इसी तरह एक हादसा मेरठ में हुआ, जब वहां के जिलाधिकारी की करतूतों से मेरठ सुलगने लगा था। निदान यह कि शासन ने टी जार्ज जोजेफ को मेरठ का जिलाधिकारी बना दिया। उस वक्‍त जार्ज लखनऊ में वाणिज्‍य कर विभाग के आयुक्‍त थे, और इसके पहले भी मेरठ के डीएम रह चुके थे।

अब सवाल यह है कि सहारपुर में आदित्‍य मिश्र और मणि प्रसाद मिश्र को क्‍यों भेजा गया। और अगर भेजा भी गया तो उन्‍हें सीधे डीएम और एसएसपी क्‍यों नहीं बता दिया गया।

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