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पंजाब सिंह: कांट्रेक्ट खेती से बदलेगी किसान की किस्मत

: मृदा में कुछ भी अनुपजाऊ नहीं होता : रेगिस्तान में चावल और बांस इलाकों में अंगूर पैदा हो सकता है : गुल्ली-डंडा खूब खेला, मगर पद्दी देने वाले सवाल पर बिदक जाते हैं पंजाब सिंह :

कुमार सौवीर

वाराणसी : मिर्जापुर के एक छोटे से गांव अनंतपुर में 10 दिसंबर, सन 42 को पैदा हुए श्री सिंह आठ भाई-बहन हैं। कृषि-आधारित इस परिवार में व्यवसाय, राजनीति और उद्योग का भी प्रभाव रहा। बनारस के यूपी कालेज के बाद आगरा के बलवंत राजपूत कालेज से पढाई की। खड़गपुर आईआईटी से पढने के बाद कैलीफोर्निया से चावल में जल व पोषक तत्व प्रबंधन पर पीएचडी की। सन 69 में वहां से लौटे तो मेरठ में बने इंस्टीच्यूट आफ एडवांस स्टडीज के तम्बू में पढाने लगे। बाद में जोधपुर के भारतीय कृषि शोध संस्थान में शस्य वैज्ञानिक हो गये। सात साल बाद दिल्ली में इसी संस्थान में अपर महानिदेशक बने। देश भर में 127 क्षेत्रीय केन्द्रों की स्थापना की। आज कृषि में हो रहे ज्यादातर शोध इन्हीं केन्द्रों की देन हैं। सन 85 में चारा अनुसंधान केन्द्र के निदेशक बने और 94 में पूसा के शोध निदेशक का काम सम्भाला।

उनका कहना है कि भारत में हरित क्रांति और उसके बाद भोजन के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता क्या बढ़ी, हमारे प्रयासों को लेकर षडयंत्रों और अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। इसमें कुछ हिस्सा बंटाया हमारी अज्ञानता ने। हमने तार्किकता को आत्मसात करने में खासी देरी लगा दी। लेकिन सबसे अहम बात यह रही कि हमारी बढती क्षमता के मुकाबले अपना स्वार्थ पूरा न होते देख विदेशियों ने हमारे काम को बदनाम करने की कोशिशें कीं।

जबलपुर और पूसा इंस्टीच्यूट के भी कुलपति रह चुके प्रोफेसर पंजाब सिंह का कहना है कि कृषि क्षेत्र में शोध और अनुसंधान का काम नितांत औपचारिक  और केवल कर्तव्यों के शुष्क पालन तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। ऐसे सारे काम आम किसानों के हितों के लिए होने चाहिए। इसके लिए सीधे किसानों से ही पूछ लिया जाना चाहिए कि उनकी वास्तविक जरूरत क्या है। इसके बाद ही नयी तकनीकियों के विकास पर जोर दिया जाना चाहिए। कृषि में विज्ञान को केवल इसी तरह से ही सहायक बनाया जा सकता है।

प्रो सिंह ने ऊसर भूमि सुधार का काम भी किया है। वे बताते हैं कि कुछ भी अनुपजाऊ नहीं होता। हां, ऊसर की श्रेणियां होती हैं और उन्हीं के अनुरूप ही उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। रेगिस्तान में चावल और बांस वाले इलाकों में अंगूर का प्रचुर उत्पादन मुमकिन है। रेगिस्तान तक में इतना बेहिसाब चारा उगाया व संरक्षित किया जा सकता है कि अकेला राजस्थान ही पूरे देश को वहीं से दूध व पशु उत्पादों की आपूर्ति हो सकती है। केवल जानकारी की जरूरत है। इसके न होने पर ही खेती को खतरा होता है।

मंडियों में देखिये कि किस तरह मजबूर किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने पर मजबूर होता है, फल-सब्जियां सड़ती है। झाड़ू से बुहार कर उन्हें फेंका जाता है। किसानों को बस कृषि के लिए लागत और उत्पादों की मार्केटिंग का गुर बता दिया जाए, तो सारी दिक्कतें दूर हो जाएं। अब तो छोटे कोल्ड स्टोरेज चंद सौ रूपयों में ही तैयार होने लगे हैं जिनमें एक हफ्ते तक तो हरी सब्जी व फल आदि सुरक्षित रह सकते हैं। कांट्रेक्ट फार्मिंग में किसान की सहभागिता उसे श्रेष्ठ लाभ दिला सकती है। उनका कहना है कि हमारा किसान बुद्धिमान और कर्मठ है,  मगर इनमें से ज्यादातर को तो जरूरी जानकारी ही नहीं। और जिन्हें यह जानकारियां हैं वे सफल हैं।

प्रोफेसर पंजाब सिंह को खेल का भी शौक है। आज वे बैडमिंटन वगैरह खेलते हैं, मगर बचपन में गुल्ली-डंडा खूब खेला है। मगर आप जैसे ही यह इस खेल में पद्दी देने सम्बन्धी सवाल करेंगे, पंजाब सिंह हत्थे से उखड़ जाते हैं। जाहिर है भी तो, कि बचपन में पहनी गयी चड्ढी को आज इस उम्र में कैसे उतार सकता है।

प्रोफेसर पंजाब सिंह पर प्रकाशित रिपोर्ट के अगले अंक को देखने के लिए कृपया क्लिक करें:- आदमी के भूख से पिचके पेट का जवाब खोजते हैं प्रो पंजाब सिंह

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