पत्रकार ने तुक्‍तक सुनाया तो सम्‍पादक के सारे रोम भक्‍क से फुंक गये

मेरा कोना

: कानपुर का परमट मोहल्‍ला का असल नाम तो परमिट है, मगर गोरी हुकूमत के खिलाफ अवाम का अवज्ञा-आंदोलन : माल से लदी नावों के आने-जाने के सरकारी परमिट जारी करने का आफिस इस इलाके में था : नये पत्रकार को जड़ से उखाड़ने को बड़े पत्रकारों ने कमर कसी थी : विष्‍णु त्रिपाठी- एक :

कुमार सौवीर

कानपुर : इस पत्रकार की उम्र उस वक्‍त बमुश्किल 35 रही होगी। यह वह उम्र होती है, जब कोई भी नौकरीपेशा शख्‍स अपने भविष्‍य को सुरक्षित करने की कवायदों में जुटा होता है। और ऐसी कवायदों में आमतौर पर मक्‍खनबाजी ही होती है। खास कर उस दौर में, जब उस अखबार का सम्‍पादक ही उस अखबार का मालिक हुआ करता था। ऐसे में चाहे कोई टेक्‍नीशियन हो, कम्‍पोजीटर हो, कोई बड़ा-छोटा कर्मचारी हो अथवा कोई पत्रकार, सब के सब सम्‍पादकनुमा मालिक के चरण चांपने में जुटे रहते थे। मालिक को देखते ही सारे पत्रकार भी किनारे तक सिमट जाते थे, और बेहद विनीत भाव में खड़े हो जाते थे। मालिक को तेल-लगाने के लिए उनकी जी-हुजूरी का मौका तलाशा करते थे, अपने लिए चापलूसी और एक-दूसरे के खिलाफ चुगली। जुगत रहती थी, कि कैसे भी हो, मालिक के अगाड़ी-पिछाड़ी ही दिखते रहे।

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तो जनाब, इस पत्रकार ने भी यही किया। मगर अलहदा अंदाज में। उसने पहले तो मालिक को माला पहना कर अपनी दस साल की नौकरी जारी रखने का शुक्रिया अदा किया। मगर उसके बाद उसने जो तुक्‍तक सुनाया, उसे सुन कर मालिक-सम्‍पादक के सारे-के-सारे रोंगटे वाले रोम-कूप भक्‍क से भस्‍मीभूत हो गये।

आज कानपुर में हूं। सन-41 में जन्‍मे और सन-61 में दैनिक विश्‍वमित्र की नौकरी से पत्रकारिता का जीवन शुरू करने वाले विष्‍णु त्रिपाठी के आवास पर बैठा हूं। पास ही गंगा बह रही हैं, लेकिन यहां के विख्‍यात आनंदेश्‍वर शिवाला के पास के पार्क के ठीक पीछे उनका पुश्‍तैनी मकान है। इलाका का नाम है परमट। ठेठ मोहल्‍ला है परमट, शुरूआती बसावट जैसा ही है, जैसा शुरूआती रहा होगा। परमट का नाम अपभ्रंश है। असल शब्‍द है परमिट। यह इलाका तब बसा था, जब सड़कें नहीं होती थीं। माल से लदी नावों के आने-जाने के सरकारी परमिट जारी करने का आफिस इस इलाके में था। पूरा व्‍यापार नौकाओं-नावों पर हुआ करता था। लेकिन इस अंग्रेजी शब्‍द को यहां के लोगों ने परमट के तौर पर आत्‍मसात किया। शायद इसी शैली में वे गोरी-हुकूमत के खिलाफ अवज्ञा-आंदोलन में अपना योगदान करना चाहते रहे होंगे। आज है यहां घनी आबादी में वाहनों की रेलमपेल। गलियों में भारी अतिक्रमण। सी-पों, पों-पों से सिरदर्द हो सकता है।

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कानपुर

पूरा जीवन खपा लिया है विष्‍णु त्रिपाठी ने कानपुर को जीने में। उसे समझने की समझ तो अपने आप ही धीरे-धीरे आने ही लगी थी। विष्‍णु जी किंवदंतियों के नहीं, पुख्‍ता प्रमाणों वाले कानपुर की वकालत करते हैं। लेकिन पूरी भावुकता और संवेदनशीलता के साथ। लेकिन कानपुर ही क्‍यों, उनकी यह अन्‍वेषी-दृष्टि

बहरहाल, सन-66 में विष्‍णु त्रिपाठी को दैनिक जागरण से ऑफर मिला, तो ज्‍वाइन कर लिया। मगर हरिनारायण निगम और समर बहादुर सिंह नामक पुराने खबीसों ने नये विष्‍णु त्रिपाठी की छीछालेदर करने का संकल्‍प कर लिया। उनकी नौकरी पर संकट लाने के लिए उनकी राह पर कांटे बोने शुरू हो गये। लेकिन आज स्‍वर्गीय हो चुके, मगर तब के एक पुराने पत्रकार सियाराम शरण त्रिपाठी ने विष्‍णु त्रिपाठी के हर संकट को उबार लिया। बाद में सियाराम शरण त्रिपाठी की 27 जनवरी सन-85 का देहांत हो गया, लेकिन हरिनारायण निगम हिन्‍दुस्‍तान के समूह सम्‍पादक हो गये। समर बहादुर के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ( क्रमश: )

दुनिया के महान महानगरी की सूची में दर्ज है कानपुर का नाम। आजकल इसी महानगरी के विभिन्‍न लोगों पर प्रमुख न्‍यूज पोर्टल मेरीबिटियाडॉटकॉम लम्‍बी बातचीत में जुटा है। उस वार्तालाप की विभिन्‍न कडि़यों के तौर पर हम विषयवार प्रकाशित करने जा रहे हैं। इसी बाकी कडि़यों को पढ़ने के लिए आप नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कीजिए:-

कानपुर-कनपुरिया

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