पत्रकार होते हैं तुर्रम-खां, माफी नहीं मांगते

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: खुद को साक्षात ब्रह्म जी की लेखनी से उपजे, अमिट भाग्‍यविधाता का घमंड पाले हैं पत्रकार : लेकिन जब कोई उन को हौंक देता है, तो छींकें निकल जाती हैं पत्रकारों की : चैनलों के रिपोर्टर या सम्‍पादक तो बड़े-दिग्‍गज बाहुबली से कमतर नहीं समझते : धंधा थूक-चटाई -एक :

कुमार सौवीर

लखनऊ : एक दौर हुआ करता था जब पत्रकार अपने आप को तुर्रम-खां समझने के बजाय स्‍वयं को किसी सहज जिज्ञासु अथवा शोधकर्ता मान कर ही व्‍यवहार करता था। हां, उसकी भाषा में प्रांजल-भाव होता था, और साहस से परिपूर्ण होती थी उसकी लेखनी। उनके लिखे अक्षरों का झुण्‍ड अपने पाठकों में विश्‍वसनीयता का प्रवाह दिलाता था। आज भी ऐसे पाठक लोग आपको मिल जाएंगे, जिन्‍होंने अपनी भाषा और शैली को सीखने के लिए अखबारों का ही सहारा लिया था। जाहिर है कि तब खबरों और अखबारों तथा उसमें प्रकाशित खबरों के प्रति पाठकों में एक जबर्दस्‍त आस्‍था हुआ करती थी।

लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। कोई भी ऐसा अखबार आपको नहीं मिलेगा, जिसकी खबर में वर्तनी या समझ के स्‍तर में परिपूर्णता मौजूद हो। खबरों की विश्‍वसनीयता के संदर्भ में तो आज के पत्रकारों ने पूरा गोबर ही लीप रखा है। हिन्‍दी अखबार और चैनल तो इस मामले में सबसे रसातल की ओर बढ़ गये थे, लेकिन अब अंग्रेजी के समाचार-संस्‍थान भी खुद को दो-कौड़ी के पत्रकार रखने की होड़ पालते दिख रहे हैं। हालत यह है कि अब किसी को समझ में ही नहीं आता है कि किस समाचार संस्‍थान की किस रिपोर्ट वाकई सच और यथार्थ-सत्‍यपूर्ण है और कौन सी नहीं। भाषा की दुर्गति का अंदाजा केवल इसी से लगाया जा सकता है कि लखनऊ से ही हाल ही संचालित हो चुके एक टीवी चैनल के सम्‍पादक ने अपने एक चर्चित कार्यक्रम का नाम  fool proof के बजाय full-proof के तौर पर पेश कर दिया। वह भी मोटे-मोटे हरफों में।

इतना ही नहीं, पहले तो किसी भी गलती के प्रति सार्वजनिक क्षमा-याचना की एक परम्‍परा हुआ करती थी। लेकिन अब यह धीमे-धीमे होते हुए लगातार लुप्‍त होने की कगार तक पहुंच चुकी है। अब अव्‍वल तो कोई भी अखबार अपनी करतूतों की माफी-नामा छापने को ही तैयार नहीं होता। यानी क्षमा-चायना। लेकिन अगर कोई बहुत ज्‍यादा दबाव पड़ने लगा भी, तो भी वे क्षमाचायना अथवा खेद-प्रकाश तक नहीं छापते। इधर तो इनसे भी निम्‍न स्‍तर की एक शैली विकसित होकर भी जल्‍द ही दम तोड़ गयी, जिसमें किसी खबर के खंडन के प्रति स्‍पष्‍टीकरण छाप दिया जाता था।

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पत्रकार पत्रकारिता

दरअसल, अब नये दौर की पत्रकारिता के सेनानियों ने अपने तेवर ही खासे सख्‍त और अक्‍खड़ बना डाला है। अब यह लोग अपने अपराधों को मान कर उसकी माफी मांगने तक को तैयार नहीं होते हैं। न ही खेद-प्रकाश अथवा स्‍पष्‍टीकरण। यह सारे शब्‍द-संयोजन अब बेकार लगते हैं इन नये खबर-प्रबंधकों की नजर में।

लेकिन यह भी केवल उसी हालत में होता है, जब दबाव डालने वाला शख्‍स या समूह उस पत्रकार की खंझड़ी बजा सकने की क्षमता रखता हो। न्‍यूज चैनल तो इस गर्त में सबसे नीचे तक धंस चुके हैं। (क्रमश:)

खबरों की दुनिया जिस तरह तेजी से चकाचौंध से भरती जा रही है, उसमें विश्‍वसनीयता का अमृत-जल सूखता ही जा रहा है। अधूरी-बचकानी और अधकचरी खबरों की भीड़ में अब झूठी और गढ़ी खबरों ने भी जमकर सेंध लगाना शुरू कर दिया है। खबर-कर्मी अहंकार में हैं, और प्रताडि़त लोगों की सुनवाई ही नहीं हो पाती। ऐसे में जब कोई अक्‍खड़ अपनी बात पर अड़ जाते हुए सीधे अदालत में अपनी अरज लगाता है, तब पत्रकार-जगत में सांप सूंघ जाता है।

यह खबर इसी नव-स्‍थापित कुत्सित परम्‍परा को बेपर्द करने की कोशिश है, जहां विश्‍वसनीयता के व्‍यवसाय को लगातार गंधले धंधे में तब्‍दील करने की गटर-गंगा बहायी जा रही है। यह श्रंखलाबद्ध है, और लगातार आपको इसके अगले अंक मिलते रहेंगे। इसके अगले अंक को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

थूक-चटाई

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