: नेहरू जी अपने बाथरूम में दो घंटे तक पड़े रहे, दम निकल गया : ताशकंद में मौत के वक्त शास्त्री के साथ कोई भी नहीं था, वे भी दर्दनाक मौत मरे : बेहद अकेले होते जा रहे हैं हमारे समाज के वरिष्ठ नागरिक : अकेलेपन ने एकल-न्यूक्लियर के बुजुर्गों की छीछालेदर कर डाली :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आज गांधी जयन्ती है। लेकिन हकीकत यह है कि आज हमारे परिवार के बुजुर्गों की हालत बहुत बुरी है। अपने वरिष्ठ-पुरखों की होती मौत से मैं कभी भी नहीं घबराता हूं, लेकिन जो मौत बेहद दर्दनाक हालातों में होने वाली है, उनसे मैं सहम जाता हूं। मेरी मां आज उसी मोड पर हैं, जहां मौत की परछाईं घनेरी होती जाती है।
लेकिन इसके पहले तो मैं आपको कुछ ऐतिहासिक हादसे बता दूं। पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू जी अपने त्रिमूर्ति आवास के बाथरूम में पड़े मिले गये थे। जब तक यह खबर मिल पाती कि नेहरू जी अपने बाथरूम में जमीन पर पड़े मिले हैं, नेहरू जी की मौत हो चुकी थी। इतना ही नहीं, कम से कम 2 घंटों पहले ही नेहरू जी के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। ठीक यही हालत लालबहादुर शास्त्री जी के साथ हुई थी। ताशकंद के अपने कमरे में शास्त्री जी बिलकुल अकेले मृत पाये गये थे। उनकी मौत की खबर मिलने से घंटों पहले ही शास्त्री जी की मौत हो चुकी थी।
आपको बता दूं कि अपने दौर के बच्चों के चाचा-नेहरू के तौर पर मशहूर नेहरू जी का सार्वजनिक तो बेहद भीड़-भाड़ का रहा। लेकिन अपने आवास में पहुंचते ही वे पूरी तरह अकेले हो जाते थे। उनके पास कोई भी ऐसा शख्स नहीं होता था, जिसे वक्त-बेवक्त वे बुला सकते या कोई उनकी निगरानी करता रह सके। उनके पास न कोई आया थी और न ही कोई नर्स, या फिर कोई ऐसा कोई शख्स जो उनकी देखभाल का जिम्मा सम्लाल सकता। या फिर यह कि किसी ने भी इस बारे में तनिक भी नहीं सोचने की जरूरत तक नहीं समझी कि बेहद बीमार हो चुके नेहरू जी की देखभाल के लिए किसी बेहद समर्पित व जिम्मेदार शख्स की जरूरत भी है।
यह तब है कि इसके पहले ही नेहरू जी की हालत बहुत बिगड़ चुकी थी। अपनी मौत के छह महीना पहले 7 जनवरी-64 की सुबह ही नेहरू जी को भुवनेश्वर के कांग्रेस अधिवेशन में फालिज का हमला हुआ था। नतीजा, वे उस अधिवेशन में शामिल नहीं हो पाये। ऐसे में सरकार को सम्भाल पाना नेहरू के लिए असम्भव ही रह गया था। इसका इलाज यह खोजा गया कि लालबहादुर शास्त्री को नेहरू जी के कामधाम को देखने के लिए मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो के तौर पर बाकायदा केंद्रीय सरकार में मंत्री के तौर पर शामिल कर लिया गया। कहने की जरूरत नहीं कि अगर शास्त्री जी के तौर पर नेहरू की सहायता के लिए एक मंत्री तो मिल गया, लेकिन नेहरू जी के अंतिम समय में उनकी देखभाल के लिए एक भी शख्स नहीं खोजा जा सका।
शास्त्री जी के साथ भी यही हुआ। प्रधानमंत्री बनने के बाद ही उन्हें एक हल्का सा दिल का दौरा पड़ा था। लेकिन इसके बावजूद शास्त्री जी ने अदम्य साहस और नेतृत्व का प्रदर्शन करते हुए जय जवान, जय किसान का उद्घोष कर पूरी दुनिया को दहला दिया। मगर ताशकंद में उनकी मौत बिलकुल तन्हा ही हुई। मौत के वक्त एक भी शख्स नहीं तैनात किया जा सका, जो उनकी तबियत का जायजा ले सकता। इसके बावजूद कि उस समय उन पर खतरों के बादल बहुत पहले से ही मंडरा रहे थे। शक के सवाल तो अब तक हैं कि आखिर शास्त्री जी की लाश काली क्यों पड़ गयी थी।
यह सब लापरवाहियां और कमियां ही तो गोडसे जैसी हैं, जो गांधी, नेहरू और शास्त्री जैसे शख्स की मौत हो जाती है।
मेरी मां का जीवन अब बेहद संकट में हैं। मैं लेह-लदाख से तब आनन-फानन लौटा, जब पता चला कि मम्मी सीएनएस अस्पताल में मस्तिष्क की बीमारी से ग्रसित हैं। कुछ दिन वहीं रहने के बाद जब मम्मी को मैं अपने घर लाया तो उनकी देखभाल का संकट पसर गया। अब हालत यह है कि तड़के सुबह से लेकर देर रात तक मम्मी की देखभाल करनी होती है। आया-नर्स रखने की हैसियत हमारे जैसे परिवारों में अकल्पनीय होती है। ऐसे में 84 बरस की हो चुकी मम्मी की देखभाल कर पाना दुष्कर हो जाता है। बावजूद इसके कि मम्मी का व्यवहार लगातार इरीटेटिव है, और बीमारी में तो यह समस्या और भी भड़क चुकी है।
केवल मैं ही नहीं, हमारा पूरा समाज ही ऐसी ताड़का-नुमा समस्याओं से दो-चार है। ऐसा भी नहीं है कि ऐसी समस्याओं का ढेर लगाने में केवल हमारी-आपकी पीढ़ी जिम्मेदार है। वाकई कहूं तो मम्मी जैसे पुरखों-बुजुर्गों ने भी तो इस समस्या का समाधान नहीं खोजा, जिनके चलते संयुक्त परिवारों पर भौतिक प्रतिपूर्तियों के एटम-बम फेंक कर उन्हें चिन्दी-चिन्दी करते हुए उन्हें बाकायदा एकल या न्यूक्लियर परिवार में उछाल दिया। वहां उर्जा रहने तक तो खूब आनन्द होता है, लेकिन उसके क्षरण की शैने-शैने: प्रक्रिया असह्य पीड़ाजनक होती जाती है। मैं मानता हूं कि अपना जीवन अपने हिसाब से चलाने की अपनी ख्वाहिशों को पूरा करते हुए मेरी मां जैसी बुजुर्ग-इकाइयों ने एकल परिवारों को खूब पाला-पोसा। जिसका दुष्परिणाम आज मम्मी और जाहिर है कि मैं खुद भी झेल रहा हूं।
लेकिन हम केवल इन्हीं तर्कों के बल पर इस समस्या को मम्मी जैसे बुजुर्गों के माथे पर नहीं फेंक सकते हैं। हमें अब खोजना पड़ेगा एक ऐसा कदम, जिसमें मम्मी समेत ऐसे बुजुर्गों को पूरे आत्मीयता के साथ उन्हें बाकी जीवन जीने की गारंटी दी जाए। यह इसलिए और भी जरूरी है कि आज न कल हमें ही मम्मी जैसी हालत से दो-चार होना ही पड़ेगा।
और मैं पहले ही कह चुका हूं कि यही दारूण परिस्थितियों ही तो गोडसे जैसी हैं, जो सम्भावनाओं की हत्या कर देती है।