दो दशक बाद भी सू ची की रिहाई के संकेत नहीं

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

दो दशक से घर में नजरबंद है लोकतंत्र की बिटिया

बर्मा में अपने ही घर पर नजरबंद हैं आंग सान सू ची
पिता और पति तक दे चुके हैं अपनी बलि देश की आजादी के लिए
सू चीः शर्त ना मानने पर लटक सकती है मुक्ति पर तलवार
पूरी दुनिया का दबाव भी सैनिक शासन को हिला नहीं पा रहा
एक बेटी पिछले करीब दो दशकों से इंसानियत और क्रूरता के बीच झूल रही है। म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आन सांग सू ची की नजरबंदी का दौर अब तक खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। अपने पति और पिता तक को खो चुकीं और म्यांामर में लोकतंत्र की स्थापना के लिए सतत संघष कर रहीं सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार भी मिल चुका है।
पूरी दुनिया के दबाव के बावजूद बर्मा की लोकतंत्र समर्थक जन नेता आंग सान सू ची की रिहाई का मामला अब तक साफ नहीं हो पाया है। वे पिछले करीब दो दशकों से अपने ही घर में नजरबंद हैं। आंग सान सू ची की नज़रबंदी की समय सीमा शनिवार की शाम को खत्म हो रही है लेकिन अभी यह मामला जबर्दस्त संशय में है कि म्यांमार का सैनिक शासन का नेतृत्व उन्हें नजरबंदी की अवधि खत्म होने के बावजूद उन्हें रिहा करेंगा भी या नहीं।
आशंकाएं इस बात की भी जतायी जा रही हैं कि सू ची की रिहाई के लिए उनके सामने यह शर्त रख दी जा सकती है कि वे रिहा होने के बाद किसी भी राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेंगीए मगर जानकार बताते हैं कि सू ची इस शर्त को मंजूर नहीं करेंगी और इस तरह रिहा होने के बजाय नजरबंदी को ही अपना लेंगी।
कभी बर्मा के नाम से मशहूर रहे म्यांमार की सैन्य सरकार जुन्टा की ओर से भी सू ची की रिहाई पर कोई भी बयान अब तक नहीं आया है। इसके चलते रिहाई को लेकर संशय लगातार बढते जा रहे हैं। इतना ही नहींए नजरबंदी खत्म होने या ना होने के फैसले के आने के पहले ही पूरे म्यांमार और देश की राजधानी यंगून रंगून में सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम कर दिये गए हैं। सू ची समर्थकों के किसी सम्भावित आक्रोश को देखते हुए म्यांमार की सडकों और गलियों में भी दंगा विरोधी पुलिस बडी तादात में तैनात कर दी गई है।
गौरतलब है कि सू ची को पिछले साल ही रिहा कर दिया जाना चाहिए थाए मगर इसी बीच एक हादसा और हो गया। हुआ यह कि करीब डेढ़ साल पहले एक अमरीकी नागरिक उनके घर की झील को पार करके चुपचाप उनके आवास तक पहुंच गया। बस फिर क्या था। बर्मा के सैन्य शासन को यह बात सू ची का फिर से नजरबंद कने के लिए पर्याप्त लगी। उसने सू ची को उस विदेशी को शरण देने के आरोप फिर जड दिये और इस तरह सू ची की नज़रबंदी की मियाद डेढ़ साल के लिए और बढ़ा दी गयी।
उधर बर्मा में सू ची की रिहाई को लेकर अटकलों का दौर जारी है। सी ची के एक करीबी ने कल ही कह दिया था कि म्यांमार के किसी भी क़ानून के तहत अब सू ची को नज़रबंद नहीं रखा जा सकता। इस शुभचिंतक के अनुसार सू ची की नज़रबंदी की अवधि शनिवार को ख़त्म हो जाएगी और उसके बाद उन्हें फौरन रिहा कर दिया जाएगा। सू ची के इस करीबी ने तो यहां तक दावा कर दिया था कि अपनी रिहाई के बाद सू ची अपने राजनीतिक दल एनएलडी की केंद्रीय समिति के सदस्यों से मिलेंगीं और इसके बाद सू ची का मीडिया के अलावा और भी अनेक लोगों से मिलने का कार्यक्रम है। उधर बीबीसी के अनुसार बर्मा में ब्रितानी राजदूत एंर्ड्यू हेइन का कहना है कि ब्रिटेन और यूरोपीय संघ सू ची की रिहाई के लिए लंबे समय से दबाव बना रहे हैं और उनकी आज़ादी से महत्वपूर्ण असर होगा।
बर्मा में पिछले रविवार को ही 20 साल बाद चुनाव हुए है। हालांकि इन चुनावों में वहां के सैनिक शासन की खासी दखलंदाजी ने इन चुनावों को माखौल बना दिया है। कहने की जरूरत नहीं कि अब तक मिले नतीजों से ज़ाहिर होता है कि सेना समर्थित पार्टी यूनियन सॉलिडरिटी एंड डवलपमेंट पार्टी ने दोनों सदनों में बहुमत हासिल कर लिया है। यह दावा सैन्य शासन के प्रवक्ता ने किया है। वहां हुए चुनावों में यूएसडीपी ने 330 सीटों वाले निचले सदन की अब तक घोषित 219 सीटों में से 190 सीटें जीत ली हैं। इसी तरह से 168 सीटों वाले उच्च सदन के लिए अब तक 107 सीटों में से 95 पर यूएसडीपी को विजयी घोषित किया गया है।
दिलचस्प बात तो यह है कि इन चुनावों में विजयी घोषित लोगों में वहां के प्रधानमंत्री थेन सेन भी हैं जो इसी साल अप्रैल में सेना में जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। म्यांमार के सैन्य शासन जुन्टा ने कहा है कि इन चुनावों से देश सैन्य शासन से लोकतंत्र में चला गया है। यह बात तब है जबकि पूरी दुनिया यह साफ तौर पर मान रही है कि बर्मा के चुनाव किसी भी हालत में निष्पक्ष नहीं हुई हैं। गौरतलब है कि सू ची की पार्टी एनएलडी ने सन 1990 में देश में चुनाव जीत लिया था लेकिन लेकिन वहां के सैनिक शासन के अफसरों ने उसे कभी भी वहां की सत्ता संभालने का मौका नहीं दिया गया। और इस बार जब उनकी पार्टी ने तय किया कि वे इस चुनाव में हिस्सा ही नहीं लेंगी तो उनकी पार्टी की मान्यता ही खत्म कर दी गयी।
बर्मा की सरकार भले ही यह दावा करें कि वहां लोकतंत्र जीत गया हैए  लेकिन कई तथ्य ऐसे हैं जो हकीकत बयान कर देते हैं। मसलन वहां के मौजूदा नियमों के अनुसार दोनों सदनों की 25 प्रतिशत सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं और संविधान में किसी भी परिवर्तन के लिए 75 प्रतिशत या दो तिहाई बहुमत का प्रविधान कर दिया गया है। इससे साफ़ जाहिर हो जाता है कि बर्मा में अब सेना की मंजूरी के बिना किसी भी तरह का बदलाव किया जा पाना मुमकिन ही नहीं है।
म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू ची की शनिवार को रिहाई को लेकर अटकलों का बाजार अभी तक जारी है। और म्यांमार में नागरिकों के दिल में खुदर-बदुर जबर्दस्त चल रहा है।
म्यांमार की राजधानी रंगून में सुबह से ही इस बारे में संदेह बना हुआ है कि सुश्री सूकी की रिहाई से संबंधित आदेश पर हस्ताक्षर हुए हैं अथवा नहीं हो पाये हैं। हालांकि सू ची के वकील यान विन ने बताया कि सूकी की नजरबंदी की अवधि आज समाप्त हो रही है इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। हालांकि इस दिशा में अभी कुछ भी नहीं किया गया है।

आन सान सू ची की जीवन-गाथा

1945 में बर्मा को आज़ादी दिलाने के हीरो रहे जनरल आंग सान की 1947 में हत्या कर दी गई थी। सू ची उन्हीं की बेटी हैं।
1960 में बर्मा छोड़ दिया। बाद में ऑक्सफ़र्ड में उन्होंने अपनी पढाई की।
1988 में बीमार माँ की देखभाल के लिए सू ची लौटीं मगर तब तक देश के तानाशाह विन के ख़िलाफ़ संघर्ष में लग गईं।
1989 में सैन्य शासन जुन्टा ने मार्शल लॉ लगा दिया और सू ची नज़रबंद कर ली गईं।
1990 में एनएलडी ने चुनाव तो जीत गयी लेकिन वहां के सैनिक शासन ने उस विजय को गलत करार कर दिया।
1991 में सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1995 में सैन्य शासन ने सू ची पर नज़रबंदी तो हटा ली मगर हटाई गई लेकिन गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी।
2000 में फिर से एक बार नई नज़रबंदी का दौर शुरू हो गया।
सितंबर 07 में पांच साल बाद पहली बार जनता के बीच आईं और आंदोलन कर रहे नागरिकों को बधाई दी।
नवंबर 10 में एनएलडी ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया। यह बात म्यांमार के सैनिक शासन को नागवार गुजरी और उसने सू ची की पार्टी की रद कर दी।

 

 

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