: गज़ब दस्तूर सियासत का। अखिलेश को न्योता तक नही मिला, और मेट्रो-मैन श्रीधरन को मंच पर धकिया दिया गया उद्घाटन समारोह के मंच पर : लेकिन अब सवाल तो यह है कि क्या लखनऊ को मेट्रो की वाकई जरूरत थी, या यह नवाबी शौक बन गया :
मेरी बिटिया डॉट कॉम संवाददाता
लखनऊ : तो भैय्या पूरे पांच साल की मशक्कत के बाद आखिरकर लखनऊ में मेट्रो का सपना पूरा हो गया। हालांकि ये सपना अभी एक बहुत ही छोटे 8.5 किमी के रस्ते पे सच हुआ है पर कम से कम कुछ तो हुआ। फीता कटा, मिठाइय्यां बटीं और सारे भाजपाई एक दूसरे पे चढ़ने लगे मेट्रो में योगी-राजनाथ के साथ सफर करने के लिये। मगर जिस महान नेत्रत्व की देखरेख में ये सपना सच हुआ, उस इंजीनियर ई. श्रीधरन को सब भाजपाइय्यों ने मिलकर मंच पर पीछे धकेल दिया। जिस व्यक्ति को मुख्यमंत्री और ग्रह मंत्री के साथ मंच पर बटन दबाकर मेट्रो की शुरुआत करनी चाहिये थी उसे छुटभैय्ये भाजपाइय्यों ने पीछे धकेल दिया।
यहां ये बताना भी ज़रूरी है की “मेट्रोमैन” के नाम से नवाज़े जाने वाले श्रीधरन साहब कोई छोटी-मोटी शख्सियत नही हैं। श्रीधरन साहब को ही देशभर में दौड़ रही सभी मेट्रो ट्रेनों का भीष्म पितामाह माना जाता है। सन् 1990 में भारतीय रेल इंजीनियरिंग सेवा से रिटायर होन के बाद उनके दिल्ली रेल मेट्रो कौरपोरेशन का प्रबंध निदेशक बना दिया गया था और उनको दिल्ली में मेट्रो चलाने का दायित्व दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी।
वहीं दूसरी ओर जिस पूर्व मुख्यमंत्री ने अपने कार्यकाल में मेट्रो का सपना देखकर युद्धस्तर पे काम करवाया उस अखिलेश यादव को इस कार्यक्रम का न्यौता तक नही दिया गया। सारा श्रेय भाजपाइय्यों ने लेने की कोशिश की जिन्होंने इस मेट्रो में कोई योगदान नही दिया। कुछ छुटभैय्ये भाजपाई कह रहे हैं की आखिर पैसा तो केंद्र सरकार का भी लगा इसमें, तो उनको बता दूं पैसा ना केंद्र का होता है ना राज्य का, पैसा तो टैक्स देने वाली जनता का होता है इसलिये गाल बजाना बंद करिये।
लेकिन इस पूरे प्रकरण में इतना तो तय ही हो गया है कि चाहे वह अखिलेश यादव रहे हों, या फिर योगी आदित्यनाथ, इन सभी ने मेट्रो पर पैरवी तो खूब की। लेकिन क्या किसी ने किसी ने इस बारे में सोचा कि लखनऊ को क्या वाकई मेट्रो की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपाधापी के चलते हम यह भी भूल गये कि लखनऊ को मेट्रो से ज्यादा और भी कई बड़े काम की जरूरत है।