नफरत और थूकने की जरूरत क्‍या है दीबा जी ?

दोलत्ती

: थूकने या बोलने से बाज आना चाहिए मुसलमानों को : क्‍या फर्क कि आपका मकसद क्या था, आपके शब्‍द ही आपके समुदाय पर कालिख पोतेंगे :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक का कहना है कि एक समुदाय खाने-पीने के चीजों पर थूक लगा रहा है, जबकि दूसरा अपनी साफ-सुधरे होने का प्रमाण देने की फिराक में उस पर थूक रहा है। दोनों ही तो थूक ही रहे हैं। एक व्‍यवहार में थूक रहा है, तो दूसरा प्रवृत्तियों पर। कोई अपना गुस्‍सा निकालने के लिए थूक रहा है, तो दूसरा अपनी घृणा के चलते थूक रहा है। लेकिन सबसे ज्‍यादा खतरनाक अंदाज तो वह है जो आपके चेहरे पर ही चस्‍पां होता जा रहा है। आपको अहसास तक नहीं हो रहा है कि आपके शब्‍द आपके चरित्र में किसी फेवीक्विक से भी ज्‍यादा पुख्‍ता जुड़ते जा रहे हैं।
हाल ही एक महिला ने अपना गुस्‍सा जाहिर होने के लिए फेसबुक पोस्‍ट पर लिख दिया कि मीडिया का एक बड़ा हिस्‍सा सांप्रदायिक चश्‍मा लगाये घूम रहा है, इसलिए वह ऐसी मीडिया पर थूकती है। यह महिला हैं दीबा नियाजी। उन्‍होंने इरफान की मौत के बाद एक पोस्‍ट लिखी है। पोस्‍ट में उन्‍होंने इरफान की मृत्‍यु पर तो कोई खास जिक्र नहीं किया है, लेकिन इरफान की मौत के बाद किसी चैनल पर जो खबरें चली हैं, उससे दीबा नियाजी बहुत खफा हैं। इतना खफा है कि बाकायदा उस चैनल पर नफरत की नजर से देखना शुरू कर दिया है दीबा नियाजी ने। इतना ही होता, तो भी कोई बात नहीं थी। लेकिन दीबा नियाजी ने यहां तक लिख डाला है कि वह ऐसी मीडिया के चेहरे पर थूकती हूं।
जरा देखिये न, कि दीबा नियाजी ने क्‍या लिखा है:- इरफान खान धार्मिक कट्टरता के ,साम्प्रदायिकता के विरोध में थे और उधर उनको याद करते हुए ज़हरीली मीडिया एक न्यूज़ चैनल का एंकर बेशर्मी से कहता है कि वो मुल्लाओं से बहुत चिढ़ते थे और यह कह कर धार्मिक ज़हर घोलने की लगातार कोशिश कर रहा है। यह विडंबना है। हाँ यही विडम्बना है। इस समाज को यह मीडिया ले डूबेगी। मीडिया में बैठे लोग इस समाज को खा जाईंगे। ऐसे ही लोगों से चिढ़ते थे इरफान।
आज एक इंसान को खो दिया हमने और उंनको सच्ची श्रद्धांजलि बस यही हो सकती है कि समाज मे ज़हर फैलाने वाले, कट्टरता फैलाने वालों का हम हरदम विरोध करें और ऐसे ज़हरीले लोगों की रेस में मीडिया सबसे आगे चल रहा है।
मैं ज़हर बोने वाले तमाम न्यूज़ चैनल पर थूकती हूँ।
अंतिम जोहर
मैं नहीं जानता कि दीबा नियाजी को पूरी मीडिया से नफरत करने के चलते पूरी मीडिया पर थूक रही हैं, या वे केवल उसी चैनल पर अपनी नफरत दिखाते हुए उस पर थूक रही हैं। लखनऊ में एक पत्रकार हैं ओबैद नासिर। केवल कटुता का ही प्रदर्शन करने में माहिर हैं। खुद को कहते तो पत्रकार हैं, लेकिन उनके तेवर किसी कट्टर लीगी मुसलमान से कम नहीं है। उनका अंदाज कट्टर हिन्‍दुओं के गिरोह को भी कोसों पिछाड़ देता है। दाढी तो झकास सफेद है उनकी, लेकिन उनकी अब तक की शिक्षा-दीक्षा में अब तक असहमति का नाम ही नहीं शामिल हो पाया। जब भी उन्‍हें किसी से असहमत होना होता है, तो वे सीधे तपाक से कह-लिख देते हैं कि मुझे फलां चीज या ढमकानी बात करने वालों से नफरत है।
क्‍यों भई। आपको नफरत क्‍यों है। जरा खुद के गिरहबान में झांक कर देखिये तो तनिक, कि दूसरे लोगों के प्रति आपका यह नफरत भरा व्‍यवहार देख कर दूसरों की प्रतिक्रिया आपके प्रति कैसी हो रही होगी। यह कैसे हो सकता है कि आप दूसरों से नफरत करते रहें, लेकिन जब दूसरे लोग आपसे नफरत करना शुरू करें, तो आपको दिक्‍कत होने लगे। आपको कोई नहीं रोक रहा है कि आप किसी दूसरों को नफरत करें या नहीं करें। लेकिन यही व्‍यवहार दूसरों के प्रति भी तो रखिये। आपका नफरत भरा नजरिया श्रेष्‍ठ है, और यही व्‍यवहार दूसरा आपके प्रति करना शुरू करे तो आपको दिक्‍कत हो। यह कैसे चल पायेगा।
आप लोग तो खुद को पढ़े-लिखे और समझदार कहलाने वाले लोग हैं। आप ही देखिये कि आपके पास नफरत के अलावा कोई शब्‍द या भाव ही नहीं है दूसरों को लेकर। आपको पता है कि असहमति और नफरत में क्‍या फर्क है। असहमति या विरोध का मतलब होता है बातचीत की सम्‍भावनाओं का बचा रहना। यानी परस्‍पर समझदारी तरीके से बातचीत होने की पूरी गुंजाइशें बनाये रखना, स्‍पेस बनाये रखना। लेकिन नफरत का मतलब है कि आप उसके लिए कोई भी स्‍पेस या गुंजाइश हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म कर चुके हैं। उसके बाद आप उस बारे में कोई भी तर्क नहीं सुनेंगे। नफरत का मतलब सिर्फ यही होता है कि नफरत करने वाले व्‍यक्ति अथवा तर्क या पदार्थ को हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म कर दिया जाए।
अब आप बताइये न कि आपका आशय क्‍या है नफरत करने से, और किसी पर थूकने से।
ओबैद नासिर जैसे लोग तो लीगी टोन पर ही जिन्‍दगी बिताते हैं। वे मरकज, वहाबी और लीगी जमाती करतूतों को सिर्फ जायज ही ठहराते हैं। लेकिन यही व्‍यवहार अगर कोई कट्टर हिन्‍दू करने लगता है तो ओबैद नासिर जैसे लोगों को उसमें सांप्रदायिकता की महक आने लगती है। ऐसे लोगों के बारे में क्‍या किया जा सकता है, जहां कूट-कूट कर नफरत ही भरी पड़ी है। सिर्फ घृणा की ही खेती करते हैं ऐसे लोग और उसकी फसल को लहलहाने के लिए हर जुगत भिड़ाते रहते हैं। लेकिन दीबा नियाजी तो पढ़ी-लिखी महिला दीखती हैं। उनसे तो बातचीत की शुरूबात तो हम कर ही सकते हैं, तब तक वे खुद ही मेरे के प्रति घृणा यानी नफरत का प्रदर्शन न करें, और मुझ पर थूकने की कोशिश न करें।
मैं तो दीबा नियाजी से केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि थूकने की अदा को लागू करने या उसके बारे में सिर्फ बोलने से अब बाज आना चाहिए मुसलमानों को। दीबा जी, आपको अहसास भी नहीं होगा कि आपके शब्‍द ही आपके पूरे समुदाय को कलंकित कर रहे हैं।
थूकने की प्रवृत्ति छोड़ दीजिए। आपको पता ही नहीं होगा कि आपके ऐसे नफरत भरी प्रवृत्ति को भक्त-समुदाय अपनी लकीर में जोड़ लेकर खेलना शुरू कर देंगे। कोई भी नहीं मानेगा कि आपका मकसद क्या था। वे बस थूकने को ही खेलना शुरू करेंगे।
वैसे भी विरोध को विरोध तक ही सीमित रखिये, उसे नफरत की शाही सवारी पर क्यों चढ़ाना चाहती हैं आप?
विरोध को विरोध तक ही मानिए न।
अगर नफरत हो तो भी थूकने की क्या जरूरत?
और फिर आपको अगर थूकना ही है या नफरत ही करनी है, तो पहले ऐसे अली सोहराब जैसे लोगों पर ही हाथ साफ कीजिए। कट्टरता व सांप्रदायिकता के मामले में ऐसे लोग आला दर्जे पर मौजूद मिलेंगे।

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