: श्रमजीवी एक्सप्रेस बम-विस्फोट काण्ड में जज बुद्धिराम के फैसले अब सवालों के घेरे में : अपराधियों को मृत्युदण्ड देने का फैसला तो समझ में आया, लेकिन जुर्माना बुद्धि से परे है: तो क्या यह मान लिया जाए कि हमारी न्याय व्यवस्था अब लोक-विश्वास के विरूद्ध हो चुकी : यही हाल रहा तो कोर्ट-जज की विश्वसनीयता ही धूल-धूसरित हो जाएगी :
कुमार सौवीर
लखनऊ : श्रमजीवी एक्सप्रेस ब्लास्ट-काण्ड में सिद्धदोष माने गये अपराधियों की जघन्य करतूतों पर न्याय-पालिका ने जो जजमेंट दिया है, उसने अदालतों की क्रिया-कलापों को लेकर कई सवाल उठाना शुरू कर दिया है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि कानून की परम्परा बनाम उसकी व्यावहारिकता पर उठना शुरू हो गया है। मैं समझता हूं कि अब ऐसे सवालों पर सार्वजनिक विचार-मंथन करना समय की बड़ी जरूरत है।
चूंकि हम लोक-व्यवस्था पर विश्वास करते हैं, इसलिए विवादों का निपटारा करने वाली पीठ-अदालतों पर अगाध विश्वास रखते हैं। आप जज हैं। संविधान ने आपको पूरा अधिकार दिया है कि आप किसी भी मामले में किसी भी अभियुक्त पर लगे आरोपों का विश्लेषण करें और उसे नियमत: समुचित सजा दें। अगर आप पाते हैं कि अमुक व्यक्ति निर्दोष आप चाहें तो उसे रिहा कर दें, और अगर आप पाते हैं कि फलां ने देश तक के प्रति जघन्य अपराध कर दिया है, तो आप उसे सीधे फांसी की सजा दे सकते हैं, जिसे आप मृत्यु-दण्ड कहते हैं और अपनी परम्परा के तहत यह सजा सुनाने के बाद अपनी कलम भी तोड़ देते हैं।
आपको बता दें कि 28 जुलाई-05 को पटना से दिल्ली जा रही श्रमजीवी एक्सप्रेस ट्रेन को सिंगरामऊ के पास हरपालसिंह रेलवे क्रासिंग पर कतिपय आतंकवादी देश-द्रोहियों ने एक जबर्दस्त बम से उड़ा दिया था। रोंगटे खड़े कर देने वाले इस हादसे में करीब कई लोग मौत की आगोश में चले गये थे। जिनमें महिलाएं और नवजात बच्चे भी थे। यह हादसा इस ट्रेन के इंजन के ठीक बाद वाले डिब्बे में हुआ था, जिसे जनरल बोगी कहा जाता था। हादसे के वक्त इस बोगी में बिहार से अपनी आजीविका खोजने के लिए दिल्ली जा रहे ठसाठस यात्री सपरिवार ठूंसे-भरे हुए थे। शाम का वक्त था, और जानवरों की तरह भरे इंसानों की भीड़ कहीं सतुआ, तो कहीं रोटी बस एक धमाका हुआ, और दर्जनों हंसते-खेलते इंसान अचानक लोथड़ों में तब्दील हो गये।
क्रूर आतंकवादी अपराधियों को निर्दोष करार देने और उन्हें बचाने की दूकान खोलने वालेे अभियान में जुटे रिहाई-मंच नामक एक संगठन ने इस हादसे में पकड़े गये आतंकवादियों को उनकी गिरफ्तारी के पहले ही दिन उन्हें पूरी तरह निर्दोष करार दे दिया था।
इस दर्दनाक हादसे ने पूरे देश को हिला दिया था। जन-मानस आतंकित था, और सरकार हतप्रभ। साफ-साफ हो चुका था कि यह देश के विरूद्ध युद्ध और एक भयानक षडयंत्र वाली करतूत थी। बाद में इस घटना के कई सूत्रधारों को पुलिस ने दबोचा और उन्हें जेल में बंद किया। उसके बाद की कहानी खासी लम्बी है। केवल इतना समझ लीजिए कि इस काण्ड के 11 साल बाद अब पिछले एक महीनों के दौरान अदालत ने अपराधियों को सुनाना शुरू किया है। इनमें सजा पाये दोनों ही लोग बांग्लादेशी हैं, जो देश पर हमला करने के दोषी पाये गये हैं। इनमें से रोनी और अबैदुरहमान को अपर जिला एवं न्यायाधीश बुद्धिराम यादव ने फांसी की सजा सुना दी है। इसमें रोनी को मृत्युदण्ड के साथ ही सात लाख रूपयों का जुर्माना ओर ओबैदुर्ररहमान को दस लाख तीस हजार रूपयों का अर्थदण्ड भी सुनाया गया है।
बस इसी अर्थदण्ड के पहलू पर विवाद खड़े हो गये हैं। सवाल यह है कि जब किसी को मृत्युदण्ड दिया गया है तो फिर उसे अर्थदण्ड दिये जाने का औचित्य क्या है। खासतौर पर तब, जब मृत्युदण्ड पाया हुए दोनों ही शख्स बांग्लादेशी हों। उलझन की बात यह है कि जिसे मरना ही है, वह अर्थदण्ड का भुगतान क्यों करेगा? और अगर देना भी चाहे तो वह बांग्लादेश से कैसे पैसे हासिल कर पायेगा? बांगलादेश में रहने वाले उसके परिवारी जन या मित्र जब यह मान जाएंगे कि उन्हें अब मौत की सजा होनी ही है तो फिर वे भारत को इतनी भारी रकम का भुगतान क्यों करेंगे? आखिरकार बांग्लादेश एक गरीब देश है, वहां पैसे की कीमत भरत के मुकाबले ज्यादा है। आखिरी सवालों में से एक सवाल यह भी है कि अगर मृत्युदण्ड पाये कोई शख्स अगर अर्थदण्ड का भुगतान नहीं करेगा, तो आप उसका क्या बिगाड़ लेंगे?
इस मामले पर मैंने अपने कई मित्रों से बातचीत की, जो विधिवेत्ता भी हैं। एक ने बताया कि सामान्य तौर पर जिसे कैपिटल-पनिश्मेंट दिया जाता है, उस पर अर्थदण्ड नहीं लगाया जाता है। लखनऊ हाईकोर्ट में एक वरिष्ठ अधिवक्ता मित्र ने बताया कि इन दोनों ही अपराधियों ने भारत राष्ट्र के विरूद्ध युद्ध छेड़ा है, और इसके लिए धारा 121 में दण्ड की व्यवस्था है। ऐसे में धारा के तहत अर्थदण्ड लगाया जा सकता हे। ठीक यही मत मेरे एक अन्य मित्र का भी है, जो राजस्थान के एक जिले में जिला जज के पद पर तैनात हैं। लेकिन मूल प्रश्न तो यह है कि क्या श्रमजीवी एक्सप्रेस हादसे को लेकर हुए फैसले ने न्याय प्रणाली की क्रिया-विधि और उसकी व्यावहारिकता पर सवाल नहीं उठा दिया है?
मेरा प्रश्न तो इस फैसले की व्यावहारिकता को लेकर है। है कि नहीं ?