: इराक़, टर्की, ट्यूनेशिया, ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया समेत २२ मुल्क खारिज कर चुके हैं शरीयत के कानून : या फिर आईपीसी के खिलाफ हाथ काटने या संगसारी की भी वकालत हाथोंहाथ कर लो : कॉमन सिविल कोड के बहाने तीन तलाक पर साजिश का धंधा चकाचक है :
ताहिरा हसन
मौजूदा वक़्त में तीन तलाक़ ने समाज में एक भूचाल सा ला दिया है। हर तरफ इसकी ही चर्चा गरम है। असलियत तो यह है कि तीन तलाक़ एक बार में कहना गैर इस्लामिक और गैर इंसानी के साथ साथ मुस्लिम महिलाओं के सिर पर लटकती तलवार है। जबकी इसका सही तरीक़ा क़ुरआन की तीन आयतों (सूरे निसा की बीसवीं, सूरे बक़रा की 228 वीं और सूरे अल एहज़ाब के 28वीं ) में दिया हुआ है। कि तीन बार तलाक़ कहने में एक-एक महीने का वक़्फ़ा होना चाहिए ताकि तलाक़ सोच समझ कर और पैचअप की कोई गुंजाइश ख़त्म होने पर ही हो। हालात को देखे तो भी यह प्रासंगिक लगता है। क्यों कि अगर एक ही समय में तीन बार तलाक़ कहना था तो इसे तीन बार क्यों एक ही बार कहा जा सकता था। दलील दी जाती की हालांकि क़ुरआन में तरीक़ा फ़र्क़ है लेकिन दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर के वक़्त में जब कुछ मर्द अपनी पत्नियों को परेशान कर रहे थे तो इस तरह के तलाक़ को इस्तेमाल कर उन महिलाओं को आज़ाद किया गया था।
हालांकि वक़्त बदलने के साथ लगभग सभी मुस्लिम मुल्कों ईरान, इराक़, टर्की, ट्यूनेशिया, पाकिस्तान, मलेशिया समेत २२ मुल्कों ने इसको ख़त्म कर दिया। लेकिन हिंदोस्तान के मौलानाओं और पर्सनल लॉ बोर्ड इसे लागू रखने पर अड़ा हुआ है। मेरा मानना है की समाज में तलाक़ का प्रोवीजन एक बहुत ही प्रगतिशील सोंच है कि अगर किसी दम्पति का आपस में ताल मेल नहीं हो रहा और परिवार चलाना नामुमकिन हो रहा है तो उनके पास हर वक़्त ये मौक़ा है की वह तलाक़ लेकर अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरू कर सके। लेकिन मौजूदा हालात में मर्द शराब के नशे में, गुस्से में या सनक में ज़बानी, फोन या ई मेल से एक बार में तीन तलाक़ दे देता है और एक महिला की ज़िन्दगी तबाह हो जाती है। हालांकि कई बार देखा गया है की बाद में खुद होश में आने पर वह पछताता भी है लेकिन तब तक सब बर्बाद हो चुका होता है।
हैरत की बात है कि जब निकाह में लड़की की रज़ामंदी और गवाहों की गवाही से होती है फिर तलाक़ इतना आसान क्यों? पर्सनल लॉ के लोग अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भोली भाली और कम पढ़ी लिखी महिलाओं को जमा कर बरगला रहे हैं कि तीन तलाक़ में बदलाव शरिया और मज़हब में बदलाव है और आपने अगर इसे मान लिया तो आने वाले वक़्त में नमाज़ तथा रोज़ा रखने में भी सरकार मदाख़लत करेगी। हालांकि शरिया क़ानून ये मौलाना सिर्फ महिलाओ पर ही लागू करना चाहते हैं। दूसरे मामलो जैसे- चोरी, क़त्ल, बलात्कार या दूसरे अपराधों में वह शरिया क़ानून द्वारा तय की सज़ा जिसमे हाथ काटने, संगसार करने या कोड़े लगाने की जगह इन्डियन पैनल कोड (IPC) द्वारा निर्धारित सज़ा को मानने के लिए तैयार है। तो फिर महिलाओं के लिए ये दोहरे माप दंड क्यों?
अब पर्सनल ला बोर्ड के लोग इसको कॉमन सिविल कोड से जोड़ कर भ्रम फैला रहे हैं। अरे भाई जब कॉमन सिविल कोड का मसौदा बनकर सामने आएगा तब देखा जाएगा अभी तक तो यह सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यको को डराने के अलावा कुछ भी नहीं। और मेरा विश्वास है जिस दिन इस कॉमन सिविल कोड का ड्राफ्ट आएगा, इसका विरोध दूसरे धर्मों की तरफ से ज़्यादा होगा। बदकिस्मती से मुसलमानों में अपनी विश्वसनीयता खो चुकी मौजूदा सरकार के समय में यह सब हो रहा है तो उसकी नियत पर शक स्वाभाविक है और जिसका पर्सनल लॉ बोर्ड और मौलानाओं को भरपूर फायदा मिल रहा है। साभार: खबरनॉनस्टॉप
ताहिरा हसन महिलाओं के हक-हुकूक को लेकर लड़ने वाली एक जाना-पहचाना नाम है। वे आल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमन एसोसियेशन एपवा की महासचिव हैं।