: टुन्न पत्रकारों को जूतों से रौंदा गया, फोटो खिंचवा कर उनके दफ्तर भिजवाया। कूटा गया मुंहलगा रिपोर्टर भी : राजकीय अतिथि गृह में खर्चा आया करीब पौन लाख : सहकारिता मंत्री कहां से करता यह भुगतान, साफ इनकार कर दिया : सांध्य समाचार अखबार के संपादक की करतूतें :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक ही संस्थान की बात है। नाम है टाइम्स समूह का सांध्य समाचार। इस अखबार में एक संपादक बेमिसाल थे सत सोनी। वे आम आदमी की पीड़ा को सुनने नहीं, उसके आर्तनाद को पहले ही सूंघ कर महसूस कर लेते थे। उनका मकसद हुआ करता था कि अधिकतम लोगों के काम आ सकें। इसके लिए दफ्तर का अधिकांश काम खुद ही निपटा लिया करते थे। दूरस्थ प्रदेशों और जिलों से आये अखबारों को खुद ही टटोला करते थे। आज उनका निधन हो गया। टाइम्स समूह का अखबार था सांध्य समाचार।
लेकिन इसी संस्थान में करीब 37 बरस पहले लखनऊ में संपादक हुआ करते थे घनश्याम पंकज। उनके घर लाजवाब और महंगे कपड़ों, इत्र और अलभ्य विदेशी शराब की बोतलों समेत सभी विलासिता की सामग्रियों का भंडार हुआ करता था। लकदक कपड़ों में खुशबूदार अंदाज में ही वे किसी बड़े नौकरशाह की तरह वे अपने वातानुकूलित दफ्तर की कुर्सी में धंस जाते थे और इसके तत्काल बाद उनके दरवाजे के बाहर लाल बत्ती जल जाती थी। कोई भी तब ही भीतर आ सकता था, जब वे खुद किसी को बुलायें। चाहे वह कोई अधिकारी हो, पत्रकार या कोई दीगर। वे यदाकदा ही लिखते थे। लेकिन खासियत यह कि बेहद कम वेतन में ही किसी मेहनती को लगा कर बढिया खबर खुदवा लेते थे। सन-85 की अप्रैल 660 रुपये महीने के वेतन वाले साप्ताहिक सहारा की बंदी के बाद बेरोजगार हुआ, तो घनश्याम पंकज ने मुझे मात्र 150 रुपये में रिपोर्टर रख लिया। वे आइडिया देते थे, और मैं समझदार घोड़े की तरह उनके हुक्म को संवारने-सजाने में जुट जाता था।
शुरुआत में उन्होंने स्टेट गेस्ट हाउस में डेरा डाला था। करीब 11 महीनों तक। बिल तो बन गया पौन लाख, लेकिन भुगतान धेला भर नहीं किया। इसी बीच सरकार ने उनको डॉलीबाग में एक महान दे दिया। मगर स्टेट गेस्ट हाउस में उनका बकाया तो दर्ज ही था। पंकज चाहते थे कि गेस्ट हाउस पर बकायों का भुगतान खुद करा दें। इसके लिए पंकज और उनका एक मुंहलगा रिपोर्टर ने तब के सहकारिता मंत्री अरुण कुमार सिंह की प्रशंसा में खूब कसीदे काढ़े और खबरें छापीं। लेकिन एक दिन मुन्ना सिंह ने साफ कह दिया कि इतना भुगतान करा पाना न तो उनकी हैसियत में है और न ही सहकारिता विभाग से कोई खर्चा निकाला जा सकता है।
बस, पंकज जी का पारा गरम हो गया। पूरे स्टाफ को लगा दिया कि चाहे कैसे भी खोजो, बुनो, गढ़ो, लेकिन अरुण कुमार सिंह मुन्ना की छीछालेदर कर डालो। अभियान छिड़ गया। करीब दस दिनों तक यही होता रहा। एक दिन मुन्ना जी ने पंकज को रात्रि-भोजन पर बुला लिया। अपनी जीत पर इतराते हुए पंकज जी अपने मुंहलगे रिपोर्टर के साथ मुन्ना जी के घर गये। विदेशी दारू, मुर्गा और लजीज भोजन परोसा। दारू मुन्ना जी ही सर्व कर रहे थे। पूरी बात आत्मीयता से ही हो रही थी। मुन्ना जी यह कहते हुए पंकज जी को बार-बार दारू साग्रह पेश कर रहे थे कि अब तो हम लोगों के बीच कड़वाहट दूर हो ही गयी है। इसी पर एक पेग और। पंकज गटकते रहे, लेकिन अंतत: कुछ ज्यादा ही पी गये, हालत बेहोशी तक पहुंच गयी।
इसके बाद अरुण ने पंकज जी और रिपोर्टर को जम कर पीटा। मिली जानकारियों के अनुसार मुन्ना जी ने दारू की खाली हो चुकी बोतलों को पंकज जी और उनके रिपोर्टर के गुह्य-स्थान में प्रविष्ट करा दिया और उस पूरे कर्मकांड की दर्जनों फोटो भी खींच ली। हालांकि दोलत्ती ने मुन्ना जी से इस बारे में बातचीत की, तो वे ठहाके लगाते हुए बोले कि नहीं बोतल वहां नहीं घुसेड़ी गयी थी, लेकिन उनकी छीछालेदर जरूर कर दी गयी थी। बोले कि आखिर कब तक बर्दाश्त कर पाता। अपना घर-दुआर बेच देता, या सहकारिता विभाग को कंगाल बना देता। हालांकि यह दीगर बात है कि इस घटना की मिर्च-मसालादार चर्चा पूरे पत्रकारिता जगत में कई महीनों तक जारी रही। बताते हैं कि सुबह जब पंकज जी अपने दफ्तर पहुंचे, तो एक अति गोपनीय लिफाफा आया। पंकज जी ने लिफाफा खोला, तो दंग रह गये। लिफाफे में बीती रात हुई सारी घटनाओं की विस्तार से फोटोज रखी हुई थीं।
उसके बाद न तो अरुण कुमार सिंह मुन्ना के बारे में कोई खबर सांध्य समाचार अखबार में छपी, और न ही कोई खुसफुस। हां, अगले दो दिनों के भीतर ही स्टेट गेस्ट हाउस पर बकाया सारी रकम को पंकज जी ने अदा कर दिया था।