: हाईकोर्ट को मूर्ख बनाने के चक्कंर में हुआ मथुरा का अमानवीय हादसा : मथुरा तो हत्याकांड है, जिसकी जिम्मेदारी डीएम और एसएसपी पर : रामबृक्ष को हमेशा प्रश्रय देता रहा है प्रशासन कि कब्जा बनाये रखो :
कुमार सौवीर
लखनऊ : सरकारी कामकाज में कामधाम केवल दो ही तरीकों से होता है। या तो उसे पूरा करना होता है या फिर लटका कर कभी भी नहीं करना होता है। इन दोनों ही मार्गों का निर्माण प्रशासन उन कानूनों के बल पर करता है, जो उसे हालातों से निपटने के लिए दिये जाते हैं। और कहने की जरूरत नहीं कि जो भी काम नहीं करके उसे हमेशा-हमेशा के लिए लटका करने के लिए होते हैं उसमें भी प्रशासन को महारत होती है और जिसमें करना होता है उसमें भी पूरी मास्टेरी होती है प्रशासन में। बस इधर का कानून, उधर लगाना होता है। काम करना है तो पुलिस का बल साथ खड़ा होता है और अगर नहीं करना होता है तो फिर केवल कागजी काम चलता रहता है।
मथुरा में यही हुआ। लेकिन ऐन वक्त पर बाजी पलट गयी। यह जमीन कुल करीब 280 एकड़ है। दिल्ली हाईवे पर। बेशकीमती। सरकारी जमीन है। लेकिन इस पर कब्जा करने की साजिशें शुरू कर दी गयी थीं। रामबृक्ष यादव एक बिगड़ैल शख्स था इसलिए जयगुरूदेव सरीखे उसके उल्टे-पुल्टे वायदे-आश्वासन आम आदमी को अपील कर देते थे। इसी बल पर उसके पास मध्य प्रदेश के आसपास समर्थकों की भीड़ भी जुट गयी थी। जयगुरूदेव की मौत के बाद उसका सपना अपना भी एक नया आश्रम-नुमा दुकान खोलना था। लेकिन उसके पास इतनी जमीन ही नहीं थी।
लेकिन यूपी में उसे अपने सपने पूरे का मौका मिल गया। सरकार में बैठे कई रसूखदार लोग उसके करीबी थे। इनमें में से कई लोग अक्सर मथुरा में आया-जाया करते थे। ऐसे में उसे अपने सपने पूरा करने के लिए मथुरा मुफीद लगा। उसके राजनीतिक प्रश्रयदाताओं को भी लगा कि इसके बल पर इस पूरे इलाके में अपना सत्ता-संतुलन को और ज्या दा मजबूत कर सकते हैं। और रामबृक्ष यादव को साफ लग रहा था कि अगर जमीन उसे मुफ्त में मिल जाएगी तो फिर चंदा जुटाना मुश्किल नहीं होगा। फिर क्यां था। खेल शुरू हो गया। मथुरा के प्रशासन ने एक ऐतिहासिक आदेश जारी कर दिया और रामबृक्ष यादव को दो दिन के लिए उद्यान विभाग का एक विशालकाय भूखंड थमा दिया।
कहने को यह कब्जा दो दिन के लिए किया गया था, तमाम बंदिशों के बावजूद। लेकिन यह कब्जा बंदिशों के लिए नहीं दिया गया था। बल्कि यह तो एक सोची-समझी साजिश थी प्रशासन की रामबृक्ष यादव के सपनों को पूरा करने के लिए। वरना क्या वजह थी कि रामबृक्ष ने अपने समर्थकों को ललकारा, कब्जा नहीं छोड़ा। कलेक्ट्रेट पर अक्सर हंगामा करते रहे। एसपी, सिटी मैजिस्ट्रेट और दारोगों को कई बार पीटा। उद्यान विभाग के कर्मचारियों को पीटा, उन्हें बेघर किया। लेकिन न कोई डीएम बोले और एसएसपी। चाहे वह चंद्रकला रही हों या फिर मंजिल सैनी। मौजूदा डीएम और एसएसपी तो सीधे इटावा, कन्नौज से पुरस्कार के तौर पर मथुरा भेजे गये थे।
रिपोर्ट दर्ज करायी गयी। हर बार। लेकिन हर बार केवल फाइलों पर ही प्रशासन ने घोड़े दौडा़ये। शिकायतें हुईं, लेकिन सुनी नहीं गयीं। हार कर उद्यान विभाग के कर्मचारी सामने आये, फिर भी प्रशासन सोता रहा। कर्मचारियों के साथ कलेक्ट्रेट कर्मचारी संघ भी आमने आया, लेकिन फिर भी प्रशासन सोता रहा। बावजूद इसके कि प्रशासन के बड़े अफसर सरेआम पीटे गये, लेकिन प्रशासन खामोश ही रहा। फाइलों तक ही सीमित रहा।
हार कर कर्मचारियों ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। इस पर हाईकोर्ट ने सख्त आदेश जारी कर दिया कि जिला प्रशासन जवाहरबाग पर जमे दंगाइयों को निकाल बाहर करे और जमीन को मुक्त करे। आदेश में यह भी कहा गया था कि 4 जून को अदालत इस मामले की प्रगति पूछेगी।
लेकिन प्रशासन तो हाईकोर्ट से लेकर बाकी सब को मूर्ख बनाने पर आमादा था न। तो कर दिया। प्रशिक्षण में पुलिस लाइन में रह रहे नये चंद रंगरूटों को लेकर लाठियां फटकारी गयीं, बवाल हुआ और फिर यह गोलीबारी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसमें साजिश क्या थी। डीएम ने 2 जून को प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करके कहा था कि प्रशासन पूरी ताकत से इस जमीन को खाली करायेगा।
हैरत की बात है यह किसी भी ऑपरेशन के पहले इस तरह की डींग कभी मारी ही नहीं जाती हैं, लेकिन डीएम राजेश कुमार ने यह कर ही दिया। नतीजा, दंगाई सतर्क हो गये।
उधर यूपी के डीजीपी जावीद अहमद बताते हैं कि पुलिसवाले रेकी करने गये थे जब उपद्रवियों ने हंगामा किया। कितना मूर्खतापूर्ण बयान है यह। जावीद अहमद को यह तक पता नहीं कि रेकी दुश्मन करता है, अपराधी करता है। क्यों कि वह गैरकानूनी हरकत करता है। जबकि पुलिस या प्रशासन का काम रेकी करना नहीं, बल्कि खुफिया जानकारी जुटाना ही होता है। क्योंकि वह कानूनी और जनहित में काम करता है। लेकिन मथुरा में तो यह फर्क ही खत्मब हो गया कि कौन अपराधी रेकी कर रहा था और कौन खुफिया सूचना हासिल कर रहा था। पता भी चलता तो कैसे। यह सब के सब मिले हुए थे।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि शुरू से ही इस मामले में साजिशों का ही अम्बार था। जो भी शिकायत आती थी, फाइलों पर दर्ज हो जाती थी, ताकि फाइल का पेट भरता रहे। प्रशासन चाहता था कि जवाहर बाग में पुख्ता निर्मण जैसे हालात ऐसे हो जाएं कि फिर उस जमीन को छ़ड़ा पाना मुमकिन न हो। इसीलिए जब हाईकोर्ट ने 4 जून का समय दिया, तो प्रशासन ने एक नयी चाल चली। उसने इस अवैध कब्जा हटाने का नाटक भी शुरू किया और दूसरी और यह भी संकेत दे दिया कि प्रशासन की कार्रवाई शुरू होने वाली थी। इससे उपद्रवी सतर्क हो जाएं। और फिर जब हल्की–फुल्की झड़प शुरू होगी तो उसकी सारी जानकारी हाईकोर्ट को देते हुए प्रशासन अपनी असमर्थता व्यक्त कर देगा। और इस तरह यह कब्जा हमेशा-हमेशा के लिए उपद्रवियों के हक में चल जाएगा। लेकिन अचानक मामला भड़क गया। एक दारोगा और एसपी मार डाला गया तो पुलिस भी अपना आपा खो चुकी और उसने दो के बदले 28 लाशों का अम्बार लगा दिया जवाहर बाग में।
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