: मारवाडि़यों बनाम हमारे यूपी-बिहारियों का मैच : बिहार-यूपी में भाइयों को हेय और दगाबाज माना जाता है, मारवाडि़यों में बेहद सम्मान : घर में शक-शुबहा का सैलाब उमड़ा है, मारवाडि़यों में रिश्तों की :
कुमार सौवीर
कानपुर : आइये, एक जबर्दस्त मैच खेलाते हुए देखा जाए। मारवाड़ी बनाम यूपी-बिहार। यह होगा व्यवसाय का, आर्थिक विकास का, आगे बढ़ने की ललक का, नये प्रबंधकीय कौशल का, संस्कृतियों को समझने और उसकी समालोचना का। इसमें मैदान तो व्यवसाय होगा, जबकि गेंदें होंगी बिजनेस के हुनर के दांव-पेंचों की। अनाड़ी हाथों में दायित्वों के कैच हुआ करेंगे, जबकि बिसात पर नासमझ लोग स्टम्प-आउट हो जाया करेंगे। बहुत मस्त मैच हो सकता है यह। इकतरफा मैच, जिसमें हर बॉल पर स्टम्प-आउट होंगे यूपी-बिहार के भइया लोग, और उनकी हर फेंकी गयी हर बॉल को मारवाड़ी टीम लपक के कैच करेगी। मतलब यह कि पूरा का पूरा गेम कुल साढ़े तीन ओवर में पूरा गेम ओवर हो जाया करेगा। हर बॉल पर यूपी-बिहार के लोग पोंय-पोंय की आवाज निकालना शुरू करेंगे, जबकि मारवाड़ी लोग हुर्रे-हुर्रे चिल्लाने की हुंकार भरेंगे।
खासा मजेदार होता है ऐसा मैच, जिसे आप देखना-समझना के लिए पहले देसी लोगों की खासियतों को समझ लिया जाये। अपने किसी करीबी को अपना बिजनेस-पार्टनर बनाना देसी लोगों के लिए हराम होता है। जैसे मुसलमानों के लिए सुअर खाना या फिर हिन्दुओं के लिए गो-मांस। कितना भी कोई काबिल या कितना भी करीबी रिश्तेदार होगा, हमारे देसी भाई लोग उससे व्यवसाय में जोड़ना तो दूर, उससे एक धेला तक का रिश्ता नहीं रखना चाहते। कभी मजबूरी में जरूरत में कोई मदद कर भी दी, तो बाद में बाकायदा डुग्गी बजवा कर पूरी दुनिया में ऐलानिया बता देंगे।
अपने किसी को धंधे-पानी से जोड़ने की भूल वे कभी नहीं करते, स्वप्न में भी नहीं। अपने मित्र, नाते-रिश्तेदार तो दूर, अपने सगे भाई तक को अपने साथ जोड़ने की कोशिश, राम राम। बिजनेस में भागीदारी कराना तो दूर की बात है, मानो उन्होंने अगर ऐसा किया तो उनके श्रीगणेश का ही खण्ड-खण्ड हो जाएगा। नरायण का खण्ड ही खंड हो जाएगा। खतना शैली में। दोस्त खतना शब्द प्रयोग पर बवाल मत करना मेरे यार आज।
तो भइये, फिर इतना बवाल क्यों किया जाए:- ऐसा मानना होता है हमारे देसी लोगों का। अपने ही ढक्कन में घुसे रहेंगे, लेकिन कुछ ठोस करने की पहल कर पाना उनके वश में नहीं। उन्हें लगेगा कि वे अपनी केंचुल से बाहर निकले तो समूल नष्ट हो जाएंगे।
हमारे देसी इलाके के थानों में जितने मुकदमे दर्ज हैं, उसमें तीन-चौथाई मुकदमें भाइयों के दोगलेपने के खिलाफ उनके ही सगे अपने भाइयों ने ही दर्ज कराये हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे झगड़ा नासमझी, नादानी और अविश्वास से जुड़े ज्यादा होते हैं। लेकिन हैरत की बात है कि रिश्तेदारों के बीच होने वाले ऐसे झगड़े-टंटे को समुदाय, पंचायत या घरेलू चौपाल पर निपटाने की रवायत हमारे देसी लोगों में हर्गिज है ही नहीं।
ऐसा कोई मामला हुआ तो मामला सीधे पुलिस-थाने पर सौंप देंगे। तेल-मसाला लगाकर, चटखारा लगाकर। भले ही इस मामले में चाहे कितना भी खर्च हो जाए। दो कौड़ी का मामला होगा तो हजार रूपया का खर्चा करने का हौसला दिखा देंगे, लेकिन अपने कदम पीछे नहीं हटायेंगे। बोलेंगे:- मरने दो इस्साले को जेल में।
लेकिन अगर किसी बाहरी ने कोई गड़बड़ की तो चुपचाप पी जाएंगे। मगर मजाल है कि एक बार भी अपने गिरहबान में झांकें। नहीं साहब, हर्गिज नहीं। पड़ोसी पर लगातार शक करते रहेंगे कि वह उसकी बीवी पर लाइन मारता है, लेकिन कोई बाहरी आदमी उसकी बीवी को भगा ले जाए, तो सौ बार चुप्प, बाप-दादों की चुप्प।
एक भी मामला दर्ज हुआ हो तो बताइये, जहां मारवाडियों के साथ कोई बड़ा हादसा हुआ हो, जहां उसके ही करीबी ने काम लगा दिया हो। हां, गुजरातियों में ऐसा खूब होता है, अम्बानी परिवार को ही देख लीजिए। मुकेश और अनिल की दुकान अलग-अलग हो चुकी थी बरसों पहले।
खैर, अगली बार की बात मारवाडि़यों पर। उसके बाद गुजरातियों, सिंधियों और पंजाबियों पर भी। लेकिन पहली बैटिंग मारवाडि़यों पर।
( इस मैच का मारवाड़ी मैच यानी इसका अगले खण्ड का शीर्षक होगा:- केवल कानपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश की औद्योगिक और व्यावसायिक विकास की रीढ़)
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