आइ जियो। मैं पुष्‍पक-विमान से लदाख चढ़ गया

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: वाकई कमाल होता है पुष्पक-विमान, आप भी चढि़ये न : मेरे साथ दुनिया घूमने का मन हो तो चलिये, खर्चा आपका, और ज्ञान मेरा : मैं तो आशिक-मिजाज पर्यटक हूं, पर्यटन के लिए ही जन्‍मा हूं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : अगर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी अपनी पत्नी सीता माता और भाई लक्ष्मण के साथ यात्रा कर रहे हों तो पुष्पक-विमान, और मैं खालिस रंडुआ अगर अकेला यात्रा करूँ तो बांस-मंडी के किनारे खड़े पुष्पक-विमान का नारा लगी बसों के शव-वाहन जैसा लगता हूँ। समय, काल, परिस्थितियां भी गजब होती हैं। है क़ि नहीं?

लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे पर में जैसे ही दाखिल हुआ, झंझट शुरू हो गया। एक सुन्दर महिला मुझे निहारने लगी। माना कि मैं झाड़ू-टाइप करमजला मुंह वाला शख्स हूँ, जैसे काकोलूक। लेकिन आजकल की औरतों को देखिये न, कि वे अब मुझ जैसे कौव्वा भी नहीं छोड़ना चाहतीं।

ओए खवातीनों ! अस्‍सी की करां ?

उधर, एक महिला से उसका साथी लगातार झगड़ता ही रहा। दूसरा फोन पर गालियां देता दिख रहा था। एक अन्य शख्स उसे बिलकुल चूतिया बना चुकी अपनी प्रेमिका पर गुस्सा-भड़ास निकाल रहा था, कि मुझे काहे बर्बाद किया। जबकि उसकी पत्नी ने उसे बिलकुल बाबा जी घंटा बना रखा था। बात-बात पर कंधे उचक देती हैं। मानो, टन्न की आवाज ही निकालेगी। अचानक चेयर-लॉबी में बैठ एक युवक यकाबक भों-भो करके रोने लगा। हड़बड़ा गए आसपास बैठे लोग। पुलिस वाले आये। पूछा:-क्या मामला है सर ?

युवक हिचकियाँ लेते हुए सुबका, फिर बड़ी मासूमियत से बोला:-माशूका की याद कर रही है।

रुकिए, रुकिए। यहां दिल्ली के एयरपोर्ट पर हंगामा पसर गया है। एक यात्री के बैग में महिलाओं की करीब 30 जोड़ी सैंडिल और कोई सवा सौ अंडर-वियर लुढक कर फैल गई। कुतूहल का सैलाब बेहिसाब। मजा लेने वाले फ्री में आनंद लेने में जुटे हैं। वाइ-फाइ नहीं है तो क्‍या हुआ, दिमाग तो कनेक्टिविटी और क्रियेटिविटी का ही सिम्‍बल होता है, है कि नहीं ?

लेकिन मेरा क्या। मैं तो वह खुश-किस्‍मत हूं जिसकी लाटरी लग गई है। मैं जा रहा हूँ अन्‍त-अनंत की यात्रा में। जन्म-जन्मान्तर वाले चिरकुटेश्वर प्रदीप के साथ अब लदाख जा रहा हूँ। लेह-लदाख। पल-पल बदलते भू-भाग क्षेत्र का प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए। इस बार पैर में खासी चोट आ चुकी है। पहले से ही चो‍टहिल दाहिना घुटने में खून जम चुका है। इसलिए अब हवाई यात्रा लेह तक, उसके बाद वहां रॉयल इन्‍फील्‍ड यानी बुलेट की धक-धक धक-धक।

रही बात प्रदीप की, तो उनका चिराग बहुत पहले ही बुझ-बुत चुका है। बेरहम ज़माने ने उनकी बत्ती पर कई बार जोर से फूंक मारी है।

आफ़्फ़्फ़्फ़्फ़् फूं।

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