: सूत्र का नाम गुप्त नहीं रख सकते, तो आप पत्रकार तो हर्गिज नहीं : ठेके पर शुरू हो चुके धंधेबाजी को आप पत्रकारिता कैसे मानेंगे : प्रेस-क्लब या संघ तो पत्रकारों की एकजुटता का केंद्र होना चाहिए, मगर वहां शराब-गोश्त का धंधा चलता है : समाचार सेनानी -एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मैं जानता हूं कि जिस खबर श्रंखला की शुरूआत कर रहा हूं, उसको पढ़-सुन कर यूपी के अधिकांश पत्रकारों के या तो सारे रोंगटे भड़क पड़ेंगे, या फिर वे सब के सब भस्मीभूत हो जाएंगे। एक बड़े और जुझारू पत्रकार के जीवन की एक घटना से शुरू हो रही है यह श्रंखला, जिसने अपने अदम्य साहस से वह काम कर डाला, जिससे पूरी हाईकोर्ट दहल गयी। कानून के हाथ उसके तर्क के सामने बौने साबित होने लगे। सम्पादक को पूरा विश्वास था अपने इस रिपोर्टर पर, और मालिक ने भी तय कर लिया था कि चाहे जितनी भी थैली खोलनी पड़ी, मगर अन्याय के सामने सिर नहीं झुकाना होगा।
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यह कहानी उस पत्रकार के जीवन में हुई एक घटना के इर्द-गिर्द तैयार की जा रही है, जिसमें पत्रकार, उनका समुदाय, हाईकोर्ट, राजनीति, माफिया, सम्पादक और मालिक शामिल हैं। मैं कोशिश करूंगा कि अपनी इस श्रंखला में इन सारे पहलुओं-कोनों को अलग-अलग एक खंड के तौर पर आप सब के सामने पेश किया जाए। यह इसलिए भी ज्यादा जरूरी है ताकि हम अपने समुदाय में मौजूदा खतरों से भिड़ने लायक साहस जुटा सकें, ताकतवर बन सकें, मुखर हो सकें और सबसे बड़ी बात यह कि एकजुट होने की ईमानदार कोशिशों के लिए कमर कस सकें।
जैसा कि मैंने कहा कि यह अपने पत्रकारीय दायित्वों के प्रति बेहद संवेदनशील और ईमानदार शख्स की साहस-कथा है, जिसने प्रचलित धारा के प्रवाह को ही मोड़ दिया। शुरूआत हुई खबर से जुड़े सूत्र के नाम को हर कीमत पर गोपनीय करने के अभियान की। यकीन मानिये कि आपकी विश्वसनीयता का पहला पैमाना ही है सूत्र को गुप्त रखना। हमेशा-हमेशा के लिए। सच बात तो यही है कि अगर हम अपने सूत्र का नाम गुप्त रखने का अपना सर्वोच्च धर्म नहीं रख सकते, तो आप पत्रकार तो हर्गिज नहीं। ऐसे में हम पत्रकारों को ही तय करना होगा कि हम क्या बनना चाहते हैं। पत्रकार या बिकाऊ-दलाल।
यह उन पत्रकार-समुदाय के उन कुख्यात पत्रकारों की कहानी हर्गिज नहीं है, जहां के पत्रकार सिर्फ दलाली के लिए यूनियन बनाते-बिखेरते ही रहते हैं। खबर सूंघते-खोजने के बजाय, खबर को बनाते हैं, साजिशें बुनते हैं, खबर को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। काना-फूंसी सुनने के बजाय कानाफूसी करने में मशगूल होते हैं। इसकी बात उस तक, और उस की बात तहां तक पहुंचाने का बाजीगर माध्यम बन चुके हैं यहां के पत्रकार। सूत्र की गोपनीयता को अपना एकमेव धर्म मानने के बजाय अधिकांश पत्रकार सूत्र की टोपी उछालने में तनिक भी गुरेज नहीं रखते। यह सब तो दूर की बात है, इनमें से अधिकांश तक में लिखने-बोलने तक की तमीज नहीं। ठेके पर पत्रकारिता का एक नया धंधा शुरू दिया गया है। प्रेस-क्लब पर उनका कब्जा है, शराबखोरी का अड्डा बना दिया इन लोगों ने प्रेस-क्लब को। इतना ही नहीं, सरकारी फुटपाथ तक पर कब्जा करा कर वहां भुने मांस की दूकानें खोल डाली हैं इन पत्रकारों ने। मंत्री-अफसर, सचिवालय और मुख्यमंत्री एनेक्सी पर वे काबिज हैं। पत्रकार यूनियनों में धंधा चला रहे हैं यह पत्रकार। उनकी दलाली का आलम तो यह है कि वे अब बड़े-बड़े सरकारी ठेके हथियाते हैं, तबादला-उद्योग पर भी उनकी सेंधमारी है, मारपीट और खून-खच्चर तक में उनका दखल है। कई तो ऐसे हैं, जिनके बड़े-बड़े फार्म हाउस मौजूद हैं। जिला स्तर के स्ट्रिंगर्स-रिपोर्टरों से नियमित उगाही करते हैं लखनऊ के यह पत्रकार।
अब आप की बारी है कि ऐसे दलाल पत्रकारों को अपने-आप के गिरहबान में झांकिये। और फिर खुद तय कीजिए कि आपको किस तरह का पत्रकार चाहिए। यह सवाल केवल पत्रकारों से ही नहीं, बल्कि समाज के उस हर समुदाय-समूह से है, जो पत्रकारों को जानते हैं, उनसे मिलते हैं, उनको पढ़ते या देखते भी हैं। और खास बात यह कि उनकी खबरों से आप किसी न किसी मोड़ पर प्रभावित हो भी जाते हैं।
इस सच से रू-ब-रू होकर आप की मसें न फड़कने लगीं, तो समझ लीजिएगा कि आप किस श्रेणी के शख्स हैं, लेकिन पत्रकार तो हर्गिज नहीं। अब यह दीगर बात है कि लखनऊ ही नहीं, बल्कि यूपी की पत्रकारिता में अब दो-चार ही ऐसे नाम बचे हैं जो असल पत्रकारिता के झण्डे फहरा रहे हैं, तमाम खतरों और भयावह आर्थिक तंगी से जूझने के बावजूद। लेकिन उनका हौसला, जुझारूपन और ताकत ऐसी मुश्किलातों से लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
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