: खामोश हो गया आक्रोश, अर्द्धसत्य और चाची 420 का नायक ओमपुरी : ओम पुरी से 31 साल पहले बातचीत की थी कुमार सौवीर ने : अभिनय में बहु-आयामी और बेमिसाल व्यक्तित्व रहे हैं ओमपुरी :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ओम पुरी, यानी बहु-आयामी अभिनय का एक प्रभावशाली नाम आज सिर्फ स्मृति-शेष बन गया। प्रताडि़त, आदिवासी और गरीब आम आदमी की घुटी आवाजों को जिस तरह आक्रोश फिल्म में ओम पुरी ने बिना आवाज जिया, और उसके बाद वह एक के बाद अभिनय के बेमिसाल सीढि़यां चढ़ते ही गये। अपने सैकड़ों फिल्म में ओम पुरी ने एक भी वाहियात भूमिका नहीं कुबूल की। हर भूमिका में बेमिसाल रहे ओम। चाहे वह अर्द्धसत्य़ में पुलिस अफसर की भूमिका रही हो, या फिर चाची 420 में अपने नाक के बाल उखाड़ते चापलूस मुनीम की भूमिका। अधिकांश फिल्मों में उनकी भूमिका का चरित्र मौजूदा व्यवस्था और मान्यताओं से डटकर संघर्ष करता हुआ ही दिखायी देता है। और अगर यह कहा जाए, कि ओम पुरी एक संघर्ष-शील व्यक्तित्व और मानसिकता का ही नाम है, तो भी अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि अपनी फिल्मों के अलावा अपनी निजी जिन्दगी में भी वे उसी तरह हैं, जैसा फिल्मों में दिखाया जाता है। बम्बई की चमक-धमक इस पंजाबी युवक पर अपने कोई भी प्रभाव नहीं डाल पायी। व्यवहार हर व्यक्ति के साथ सहज और कहीं भी कोई भी बनावट या दिखावा नहीं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय डिप्लोमा लेकर ओम पुरी ने पहले तो दिल्ली में ही नाटक किये। कुछ ही समय बाद वे फिल्मों में मुम्बई आ गये। ओम पुरी इप्टा से असंतुष्ट होकर सन-82 में मजमा से सम्बद्ध हो गये। 22 अक्टूबर-85 को श्रीलाल शुक्ल कृत राग-दरबारी नामक उपन्यास पर बन रहे टीवी सीरियल की शूटिंग के दौरान ओम पुरी से कुमार सौवीर ने लम्बी बातचीत की थी। प्रस्तुत है उस बातचीत के कुछ अंश:-
प्रश्न : इधर कुछ समय से संस्कृतिकर्मियों पर दमन पर सिलसिला चल रहा है। बिहार तथा अन्य प्रदेशों और भागों में जनवादी सांस्कृतिककर्मियों की आवाज दबाने की कोशिशें हैं। ऐसे में संस्कृतिककर्मियों के लिए क्षेत्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर उनके किसी अपने संगठन-मंच की जरूरत समझते हैं, जहां ऐसे पीडि़तों को राहत दिलायी जा सके ?
ओम पुरी : संस्कृततिककर्मियों पर उत्पीड़न-दमन वाकई महत्वपूर्ण है। हमें देखना होगा कि आम आदमी को यह समझ कैसे बतायी जाए कि आम आदमी से जुड़ कर सांस्कृतिक कर्म करने वालों पर दमन का सिलसिला क्यों चल रहा है। और यह बात तो हमें अपने माध्यम से ही कहनी चाहिए। अब रही बात इसका विरोध कैसे हो, तो कम से कम मैं तो इसका समथर्क हूं ही, कि हर शख्स को अपने पर ढाये वाले जुल्म और अत्याचार का विरोध हर स्तर पर करना चाहिए। इसके लिए अपने माध्यम से बाहर भी जाया जा सकता है। और हमें अंतत: अपने माध्यम से हर हाल में निकल कर ही विरोध करना होगा। और यह तब स्थिति आयेगी जब हमारे माध्यम पर ही हमले शुरू हो जाएंगे।
मान लीजिए कि हमारे किसी नाटक पर कोई आपत्ति है, और वह उस नाटक का प्रस्तुति न देने की हरचंद साजिश करता है। तब हमें अपने माध्यम के बाहर आ जाना चाहिए। उस समय हम उस दुष्कृत्य का विरोध अपने माध्यम से ही करने की कोशिश की, तो वह बेवकूफी होगी। क्योंकि जो हमारे पहले नाटक को बंद करा सकता है, यदि उसके इस दुष्कृत्य के खिलाफ भी कोई नाटक करने का प्रयास किया गया तो क्या वह उसे भी न बंद करा देगा ?
हां, इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि हमें अपने माध्यम के भीतर ही पहले क्षेत्रीय स्तर पर जनसमर्थन जुटाते रहना चाहिए। ताकि अगर कभी हम पर कोई अत्याचार हो तो हमारे आसपास के लोग भी हमारी आवाज को ज्या्दा बुलंदी से पहुंचा सकें। राष्ट्री य स्तर पर सांस्कृतिककर्मियों का एक संगठन बनाने नि:सन्देह स्वागत योग्य है। इस तरह हम राष्ट्रीय स्तर पर अपने समर्थन में एक बड़ा समूह खड़ा कर सकते हैं। और इस तरह किसी भी घटना पर देश की कोने कोने से उठी आवाजें हमें मजबूती ही देगी। लेकिन ऐसा संगठन बनाते वक्त हमें एक बात का खास ध्यान देना होगा, कि बाद में चल कर उस संगठन में कोई टूटन न पैदा हो जाए। इसके लिए हमें संगठन की रूपरेखा तैयार करते वक्त काफी सतर्कता बरतनी पड़ेगी।
और हां, इस कुछ समय से सांस्कृतिक कर्मियों का शोषण भी जारी है। और इस संगठन के जरिये हम इन या ऐसी हर बात सशक्त विरोध कर सकते हैं।
प्रश्न: आपने इस दिशा में कोई पहलकदमी की है ?
ओम पुरी : राष्ट्रीय स्तर पर तो नहीं, हां छोटे स्तर पर मैंने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। और यह काम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से काम की तलाश में बम्बई पहुंचे कलाकारों को निर्माताओं के दंद-फंद और शोषण से बचाने के स्तर तक ही फिलहाल सीमित है। भई, मेरे पास तो ऐसा समय नहीं निकल पाता है, लेकिन मेरा पूरा ध्यान और समर्थन इस दिशा में है। आज भी जब भी मैं खाली होता हूं तो चाहे कुछ ही देर के लिए ही क्यों न हो, इस दिशा में विस्तार के लिए ही सोचा करता हूं।
प्रश्न: क्या आपने रंगमंच छोड दिया है ?
ओम पुरी : आपसे यह किसने कह दिया ? यह तो सरासर आरोप है। और वह भी भ्रामक और निराधार। फिल्मों में काफी समय देने के चलते मैं रेगुलर नाटकों में ज्यादा समय नहीं दे पाता हूं, लेकिन अभी भी तीन नाटकों पर काम कर रहा हूं। मैं तो नाटक मरते दम तक नहीं छोड़ सकता। भला कोई शरीर आसानी से आत्मा को छोड़ सकता है ?
प्रश्न: वह क्या वजह है कि एनएसडी या रंग संस्था़ओं के कलाकारों को फिल्मों की ओर आकर्षित करती है ? क्या यह वजह सिर्फ पैसा ही है, या फिर कुछ और ?
ओम पुरी: रंगमंच से फिल्म जाने वाले हर शख्स के साथ अपनी अलग-अलग वजह होती है। हां, यह जरूर है कि इनमें से अधिकांश लोग पैसा और शोहरत के कारण ही फिल्मों में आते हैं।
प्रश्न: आप फिल्मों में क्यों गये ?
ओम पुरी: देखिये, यह कुछ अजीब सा सवाल है। अच्छा् यह बताइये कि जब आप कोई अखबार छोड़ कर किसी दूसरे अखबार में नौकरी करने आते हैं, तो आपसे क्याव कोई सवाल पूछता है कि आपने ऐसा क्यों किया। मैं अपने माध्यम की ही दूसरी शाखा में ही गया हूं। यह कोई खास बात नहीं है। रंगमंच से फिल्मों में आने के दौरान मैंने किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। जब मुझे इस बात का पूरा यकीन हो गया कि मैं फिल्मों में भी मेरे वही उद्देश्य बरकरार रहेंगें जो रंगमंच में थे, तब भी मैं फिल्मों में आया। हां, एक कारण पैसा और शोहरत तो था ही। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैंने अपने उद्देश्यों को तिलाजंलि दे दी।
प्रश्न: आपने अपने किसी उद्देश्य की बात कही है। जरा खुलासा कीजिए, अपने मकसदों के बारे में।
ओम पुरी: मैं महसूस करता रहा हूं कि हमारी संस्कृति में कुछ विषैलापन भी है। और यह विषैलापन विगत कई बरसों से लगातार अपनी नई-नई सीमाएं तोडता जा रहा है। आज तो हालत यह है कि हमारी संस्कृति इतनी दूषित हो गयी है कि खुलेआम हम उसे अपनी संस्कृसति कहते हुए भी शर्माते हैं।
यह ठीक है कि समय के साथ-साथ संस्कृति के स्वरूप में भी परिवर्तन होता जाता है, लेकिन वह सामाजिक परिवर्तन जहरीला तो हर्गिज नहीं होता। हम अपना पूरा लहजा भी नहीं बदल पा रहे हैं और दिखावे के लिए गंदी चीजों की टॉनिक भी पीते जा रहे हैं। यह टॉनिक स्वाद में तो अच्छी लगती है, लेकिन उसका परिणाम बेहद खतरनाक होता है। और इसी का प्रभाव आज हमारे जीवन तथा मौजूदा व्यवस्था में साफ दिखायी पड़ रहा है। राजनीति से लेकर शिक्षा तक का सारा माहौल अनिश्चितता और बदहाली के दौर से गुजर रहा है। कत्ल, बलात्कार, राजनीति में अंदरूनी उठापटक दंगे वगैरह क्या हैं ? यह हमारी सांस्कृति में व्याप्त गंदेपन का ही तो प्रतिफल है। आज जरूरत है इसके विरोध और उसके बदलाव की।
प्रश्न : फिल्मों में अश्लीलता रोज ब रोज अपने एक-एक वस्त्र उतार कर लगातार निर्वस्त्र होती जा रही है। कौन है इसका जिम्मेदार ?
ओम पुरी : हमारा फिल्म सेंसर बोर्ड। और कौन। सारी गलती फिल्म सेंसर बोर्ड की है। मैं साफ कह दूं कि यह गलती नहीं है, बल्कि जैसा कि पहले ही कह चुका हूं, उसी तरह यह भी हमारी संस्कृति को पतननशील बनाने वाले तत्वों का एक प्रभाव ही है। जो हर व्यक्ति या व्यवस्था को जानबूझ कर ऐसी गलतियां करने पर बाध्य कर देता है। मान लीजिए कि किसी सिनेमाघर में वयस्कों के लिए कोई फिल्म चल रही है। अब इसके बावजूद अगर कोई किशोर उसमें घुस कर वह फिल्म देख लेता है तो इसमें किसका दोष? हॉल के मालिक का ही तो? चूंकि मालिक ने ही ऐसे भ्रष्ट और लापरवाह मैनेजरों की भर्ती की, जिसके अधीन काम करने वाले गेटकीपर अपने काम में कोताही या जानबूझ कर किशोर को वह फिल्म दिखा लेते हैं। इस तर्क को आप किसी भी उदाहरण के साथ खरा ही पायेंगे। निर्माता अगर ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में कोई फिल्म अश्लील बना लेता है, तो यह सेंसर बोर्ड का जिम्मा है कि वह उसे जांचे। अब यह मत पूछियेगा कि सेंसर बोर्ड क्यों और किस लापरवाही के चलते ऐसा कर बैठता है?
प्रश्न : अच्छा यह बताइये कि आखिर इस हालत से कैसे निपटा जाए?
ओम पुरी : बम्बई फिल्म इंडस्ट्री के समानांतर एक इंडस्ट्री का निर्माण तो हर हिन्दी भाषी प्रदेश में हमें करना ही होगा।
बम्बई की फिल्में अपने दर्शकों को तीन घंटों तक स्वप्नलोक की सैर करा कर उसे काहिल बनाने का ही काम करती हैं। फिल्म को आम आदमी का आइना बनना चाहिए। लेकिन अगर कुछ जुझारू फिल्मकारों को छोड़ दिया जाए, तो कोई भी फिल्म सार्थक और स्वस्थ नहीं कही जा सकती है। बम्बई की अधिकतर फिल्में बड़े-बड़े सेठों के काले धन को सफेद करने का जरिया ही तो हैं। और ऐसी हालत में उन फिल्मों में पैसा का खेल ही होता है, आम आदमी की जिन्दगी नहीं। उन फिल्मों से आम आदमी इसलिए जुड़ जाता है क्योंकि उसने पैसों का खेल इतना करीब से नहीं देखा होता है, या पैसों का खेला नहीं होता। उसकी यही हालत उसे ऐसी फिल्मों की ओर हमेशा आकर्षित करती है। नतीजा तो आप देख ही रहे हैं।
इस हालत से निपटने के लिए हमें स्वस्थ व सार्थक फिल्मों से आम आदमी को जोडना होगा। और इसके लिए हमें फिल्म के माध्यम से आम आदमी को आम जिन्दगी दिखानी होगी। जरूरत इस बात की है कि आम आदमी को उसकी अपनी जिन्द्गी से भाग न दिया जाए। तभी कुछ हो पायेगा।
दूसरी बात यह कि फिल्मों का क्षेत्रीयकरण भी बहुत जरूरी है। जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि हमें हिन्दी सिनेमा को बम्बई की गंदी और बदबूदार फिल्मे इंडस्ट्री से बाहर निकाल कर सफाई करनी होगी, वहां रह कर नहीं। अत: अब जरूरत इस बात की है कि बम्बई के पैरेलल ही और इंडस्ट्री तैयार की जाए, तो अपने राज्य की जिन्दगी का प्रतिनिधित्व कर सके। मुझे यकीन है कि ऐसा करके भी हम थोडे समय में ही दर्शकों की खासी तादात को इन फिल्मों की ओर आकर्षित कर सकेंगे।
रही बात फिल्मों में अश्लीलता की, तो इसके आंशिक उत्तरदायी तो हम खुद भी हैं। सेक्स के बारे में बच्चों को बताया-पढ़ाया नहीं जाता, हम आप अपने माता-पिता या परिचितों के सामने अपने शरीर के गुप्त अंगों के बारे में कोई भी चर्चा नहीं कर सकते। क्योंकि हम ऐसा कर पाना गलत समझते हैं। फलत: जो चीज बच्चों को व्यवस्थित तरीके से बताया जानी चाहिए, वह उसे अव्यवस्थित रूप से कुत्तों-पक्षियों और अन्य जीव-जन्तुओं से देखता है। जाहिर है कि ऐसी हालत में तमाम तरीके की विसंगतियां उसके दिमाग में पैदा होती हैं। वे बेचारा अपनी किसी शंका का समाधान भी नहीं कर पाता है। और करता भी है तो वह भी अपने दोस्तों के बीच गलत तरीकों से। जरा कल्पंना कीजिए कि किसी भी व्यक्ति को खेत जोतने की तमीज न हो, और उसे खेत जोतने को कहा जाए तो वह किस तरह अपने काम को अंजाम दे पायेगा। बस हमारी इसी कमजोरी को यह फिल्मो निर्माता भुनाते हैं।
प्रश्न: अच्छा यह बताइये कि आपका अभिनय चाहे वह किसी भी भूमिका में हो, इतना सशक्त और प्रभावशाली कैसे हो जाता है?
ओम पुरी: एक निवेदन है मेरा कि आप कोई चीज देखते वक्त उसकी पृष्ठभूमि को नजरअंदाज मत किया करें। ऐसा कत्तई नहीं है कि मेरे किसी भी जीवन्त अभिनय का सारा श्रेय मुझे ही मिले। इतना जरूर है कि मैं अपने स्तर पर पूरी कोशिश करता हूं कि मैं अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय कर लूं। लेकिन इसके बावजूद मैं इतना जरूर कहूंगा कि किसी भी कलाकार की अच्छे अभिनय का काफी दारोमदार लेखक का होता है। अपने पात्रों की भूमिका तो उपन्यास या कहानी का लेखक सबसे पहले जीता है। खुद को उस पात्र में विलीन करके ही वह कहानी लिखता है। और इस तरह अपनी कृति के पात्रों का एक सांचा तैयार करता है। और फिर कलाकार तो वह चिकनी मिट्टी है, जिसे निर्देशक अपने सांचों में सटीक बिठाने की कोशिश करता है। इससे आप इस तरह भी समझ लें कि कलाकार लेखक द्वारा निर्मित स्वादिष्ट भोजन में देशी घी का ही काम करता है।
प्रश्न : इधर लग रहा है कि हिन्दी नाटकों के दर्शक रंगमंच से दूर हटते जा रहे हैं।
ओम पुरी : न न। ऐसा नहीं है। और अगर ऐसा है भी तो बेहद छोटे स्तर पर ही। पहली बात तो यह कि पहले तो हिन्दी नाटकों के दर्शक ही नहीं थे। यह आज के जो दर्शक आप देख रहे हैं, वह हाल ही पैदा हुए हैं। पहले तो सिर्फ मुफ्त में नाटक देखने की प्रथा रही है, लेकिन अब कम से कम यह तो है कि लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आ जाते हैं। यह हालत हिन्दी नाटकों की सुखद स्थिति की ओर इशारा करती हैं। लेकिन जरूरत इस बात की जरूर है कि नाटक कामर्शियल न हों, हां, कामर्शियल ढंग से जरूर किये जाएं।