: अघोर-धर्म श्रेष्ठतम है, अगर आप समझना चाहें तो : मैं और चाहे कुछ बन पाता या नहीं, लेकिन अघोरी तो हर्गिज नहीं बन पाता : आज भी जिन्दा है काल बाबा, हमेशा भी जिन्दा रहेगा : धन्य हैं पीसीएस-लोग, जहां अभी भी जिन्दा है अद्भुत दर्शन :
कुमार सौवीर
जौनपुर : यह बारह साल पहले की एक मानसूनी रात थी। घुप्प अंधेरा पसरा था। झमाझम बारिश हो रही थी। शर्त तय हो रही थी कायनात में, कि टीन पर गिरने ताबड़तोड़ बारिश की बूंदें ज्यादा आवाज करती हैं या फिर कड़कती बिजली। हवाएं अपना अलग सुर ही निकाल रही थीं, सांय-सांय। उफ्फ
जौनपुर में पहुंचे मुझे केवल एक साल ही हुआ था। कड़े परिश्रम से रोटी कमाने और पूरे परिवार के भरण-पोषण के लिए मैं राजस्थान के जोधपुर से लेकर जैसलमेर-बाड़मेर तक की रेत फांकता रहा था। दैनिक भास्कर में भी मैंने खूब हंगामी खबरें कीं। कि अचानक सुश्री मृणाल पाण्डेय जी ने मुझे शेखर त्रिपाठी के कहने पर हिन्दुस्तान के वाराणसी केंद्र पर नौकरी करने का आदेश दिया। पहला हुक्म दिया:- “जाओ, जौनपुर। वहां एक पक्का दलाल का कब्जा किये है हिन्दुस्तान अखबार। सुधारो वहां का माहौल।”
जौनपुर में मेरे लिए कांटों और जहर बुझी शैतानी कालीन बिछी हुई थीं। कमीनों की टोली ने कीलों से मेरा स्वागत किया। लगातार एक महीने तक, जब तक मैं जीत नहीं गया। लेकिन वे लगातार मेरे खिलाफ आग सुलगाने की साजिशें फूंकने में व्यस्त ही रहे। खैर, यह बात फिर कभी होगी, इस वक्त उससे ज्यादा जरूरत तो इस बात की है कि हम लोग जौनपुर की खासियत, उसी खुसूसियत, उसकी मृदुता, उसके स्नेह, उसकी मोहब्बत, उसके त्याग, उसके अपनापन, उसके ज्ञान, उसकी जन-निष्ठा और उसके प्रकर्ष आध्यात्मिक धारा पर बातचीत कर लें। ।
खैर, शायद आषाढ़ की बात है। सन-2004 का, जब विह्वल प्रेमिका अपने अकेलेपन पर आर्तनाद कर रही थी, आप भी देखिये न:- रिमझिम पड़ेली झीसी, जिउवा जरेला खीसी, पाला लागे बिछवनवा, सजनवा बिना न।
इसके पहले अक्तूबर-2003 में बेहिसाब मेहनत की और एक नयी लेख श्रंखला छापना किया, जिनका नाम था:- जो पहुंचे जमीं से आसमान तलक। इनमें उन लोगों की वीर-गाथा ने जिन्होंने अपने कार्य-क्षेत्र में श्रेष्ठता हासिल की। इसमें आध्यात्म के क्षेत्र से शंकराचार्य रामभद्राचार्य के साथ ही साथ उनकी दूसरी धुरी के केंद्र अघोरी काल बाबा पर लेख लिखा। इसी के बाद से ही काल बाबा से मैं निजी तौर पर जुड़ गया।
खैर, उस रात वीर बहादुर सिंह विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान का असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ पंकज सिंह मेरे कमरे में आया। उस का तब तक मेरा रिश्ता सगे भाई से भी ज्यादा हो चुका था। उसने आग्रह किया कि:- भइया, चलिए। आज काल बाबा के पास भोजन किया जाए।
हम सब जानते थे कि बाबा मलंग और अघोरी है, जिसके पास ढक्कन छोड़ कर कुछ भी नहीं है। रात के दस के आसपास का वक्त था। बाजार बंद हो चुका था। कड़ाके की बिजली के साथ बूंदे भी शुरू हो गयीं थीं। इसलिए मैंने अपने कमरे से ही आलू, प्याज, मिर्च, नमक, टमाटर, मसाला के साथ ही साथ दाल-चावल और आटा तक ले लिया। काल बाबा के आश्रम तक पहुंचते ही बारिश बे-तरह हो गयी। सिपाह से शराब की बोतल ली और सीधे मरघट के बाबा के डेरे पर पहुंचे हम लोग।
मेरा विश्वास तब यकीन में बदला, जब पाया कि काल बाबा अपनी कुटिया में श्मशानी लकडि़यों को जलाये ताप रहे थे। बूढ़ा शरीर कांपने लगा था, शायद वह कहीं भींग चुके होंगे। हमारे पहुंचते ही बाबा ने मुझे महादेव का जयकारा लगाते हुए पूछा:- “का ह परभू?”
हमने भोजन का सारा उनके हवाले किया। बोतल भी। लपक कर बाबा तीन ग्लास लेकर लाये। ढक्कन खोला, चार-छह बूंदें न जाने किस रावण-खांपड़ के नाम समर्पित किये और फिर ताबड़तोड़ तीन-तीन कर्रा पेग हम सब ने कण्ठस्थ कर लिए। इसी बीच बाबा ने आटा गूंथा, सब्जी काटी। धूनी पर श्मशान से आयी अधजली लकडि़यों का तेवर तेज किया।
कि अचानक एक आर्तनाद सुना। यह स्त्री सुर था:- “बाबा, भूक लागल बा।”
बाबा ने जोरदार को जवाब दिया, गालियों से सिक्त। :- “के ह?”
“तोहार भिखारी बिटिया बाबा!” जवाब आया।
“ओ हो। चल ससुरी। चल उठा सब। आज तोहार पेट भरै के दिन बा।” बस इसके साथ ही बाबा ने सारी की सारी भोजन-सामग्री उस भिखारी महिला की झोली में थमा दिया। साथ में कड़वा तेल की बोतल भी। फिर हाथ झाड़ कर बोले:- “और कुछ?”
वह भिखारिन ने बाकायदा उस धूनी की चौखट पर सिर नवाया और बाबा का जयकारा लगाते हुए बारिश के तूफान में गायब हो गयी। घुप्प अंधेरे में उसे बहुत देर तक खोजते रहे बाबा, फिर किलकारियां करते हुए बोले:- “चलो, इस का कर्ज भी आज अदा हो गया। कम से कम आज वह ठीक से भोजन कर सकेगी।”
सवाल उठाया पंकज ने। बोला:- “अब हम क्या खायेंगे?”
महादेव का घंटा। बाबा ने मीठी झिड़की दी, अपने ग्लास में दारू उड़ेला और फिर दाहिने उल्टे हाथ से मुंह पोंछते हुए बोले:- “तुम्हारी भूख से लाखों गुना ज्यादा जरूरत थी उसे भोजन की। अब वह कम से कम तसल्ली से दो-एक दिन भरपेट भोजन कर पायेगी। कई दिनों तक भूखी न होती तो इस आश्रम में न आती? और क्या तुम अपनी भूख अब एक रात तक बर्दाश्त नहीं कर सकते हो?”
बाबा के इस दो-टूक जवाब पर पंकज ही नहीं, मैं खुद भी स्तब्ध था। साफ लगा, कि हम सब के स्वच्छ-धवल गाल पर बाबा ने ताबड़तोड़ तमाचे रसीद कर दागदार कर दिये
हमारे जेहन में अब तक बाबा होने का मतलब यह माना जाता था कि वह कैसा भी हो, है तो भिखारी ही। जिसके पास खाने का कोई खास इंतजाम नहीं है। शायद इसी तथ्य को जान कर ही हम दोनों उनके आश्रम में गये थे। मुझे यह कहने में अब शर्म नहीं है कि उस वक्त हम लोग यही मान रहे थे कि हम भोजन का वह सामान लेकर बाबा और आश्रम पर अहसान कर रहे थे। भले ही प्रेम के वशीभूत। लेकिन उस भिखारिन के प्रति उसके रवैये ने हमारे सारे घमण्ड को चकनाचूर कर दिया।
और मैं आज आप सब से सौगंध कह कर बता रहा हूं कि मेरे जीवन में अगर काल बाबा जैसी शख्सियतें न आयी होतीं तो मैं न जाने किस राह पर चला जाता। अंधेरों के घुप्प अंधकार-कूप में होता, जहां मेरा नाम लेवा भी कोई न होता।
मैं और चाहे कुछ बन पाता या नहीं, लेकिन अघोरी तो हर्गिज नहीं बन पाता।
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