जजों का चरित्र पाक-साफ हो सके, तो प्रशांत भूषण को फांसी दे दो

दोलत्ती

: चीफ जस्टिस का निजी कुछ नहीं, 24 घंटों के जज हैं आप : सुप्रीम कोर्ट तक की अस्मिता शक के घेरे में, तहसीलों तक लूटपाट : जमानत पर दस करोड़ की डील :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज और वकीलों के लिए एक खास गाउन, बंद कॉलर पर सफेद बैंड के साथ ही सफेद शर्ट के ऊपर काला कोट के साथ ही साथ काला पैंट और काला जूता अनिवार्य है। बाकी वादी और प्रतिवादी के लिए भी शालीन कपड़ों का कानून है। इतना ही नहीं, अगर कोई शासकीय दायित्‍वों का निर्वहन करते हुए कोई व्‍यक्ति इन अदालतों में आता है तो उसको भी शालीन कपड़े पहनने की अनिवार्यता है। ठीक उसी तरह जैसे राज्‍यपाल अथवा राष्‍ट्रपति समेत किसी भी सांवैधानिक पद पर आसीन बैठे अधिकारी अधिकृत कपड़े पहनते हैं। इतना ही नहीं, बावजूद इसके कि जिला और तहसील तक में अराजकता भयावहता की हर सीमा पार कर चुकी होती है, वहां आने वाले वकील भी काला पैंट, सफेद शर्ट पर सफेद बैंड और काला कोट पहने रहते हैं। पूरी निष्‍ठा और समर्पण के साथ। इतना ही नहीं, कोई भी वकील या जज ऐसा कोई भी कृत्‍य नहीं कर सकता, जिससे उसकी सत्‍यनिष्‍ठा पर कोई सवाल उठने लगे।

लेकिन शरद अरविंद बोबेड़े को छोड़ कर। उन पर यह कानून लागू नहीं होता है। वे कानून से परे हैं, परा-शक्तियों से भरे। सीमाओं से दूर। उन पर कानून उसी तरह बाउंड्री के बाहर चला जाता है, जैसे गावस्‍कर या तेंदुलकर जैसे खिलाडि़यों के बल्‍ले से उचक कर स्‍टेडियम से बाहर के बाहर निकल जाने वाले को आतुर। हर सीमा से बाहर रहते हैं हमारे देश के सर्वोच्‍च न्‍यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े। कुछ ही दिनों पहले उन्‍होंने नागपुर में भाजपा नेता की एक पचास लाख रूपयों की महंगी अमेरिका बाइक पर राइड-टेस्‍ट किया और फोटो-सेशन भी किया। और जब इस हरकत पर सवाल उठने लगे, तो ऐसे लोगों का दिमाग दुरुस्‍त करने पर युद्ध-स्‍तर पर जुट गयी न्‍यायपालिका की सर्वोच्‍च अदालत। पहला निशाना बने प्रशांत भूषण।

इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। एक तो कोरोना संकट में न्‍यायिक संकटों का समाधान खोजने के लिए बोबडे क्‍यों गये? अचानक 11 साल पुराने मामले को दोबारा खोलने की क्‍या जरूरत समझी? बोबडे तो सर्वोच्‍च न्‍यायिक अधिकारी हैं, फिर वे प्रॉपर ड्रेस में क्‍यों नहीं पहने थे? नियत ड्रेस न पहनने पर कई अदालतें लोगों को बुरी तरह झटकती हैं, गुस्‍सा करती हैं और सजा तक दे देती हैं। फिर बोबड़े किसी अराजक युवक की तरह सिर्फ शर्ट पर क्‍यों घूम रहे थे? वह भी तब एक जस्टिस के बारे साफ है कि वे 24 घंटों तक न्‍यायिक अधिकारी बने रहते हैं? दिन-रात कभी भी उनके घर कोई भी आ सकता है। और जहां भी जज साहब मौजूद हों, वही पर उनकी अदालत खुल जाती है। दूसरी बात यह है कि जब सारे लोग मास्‍क पहने हुए थे, वे मास्‍क क्‍यों नहीं पहने थे? वह भी तब मास्‍क न होने पर देश भर में लाखों को पुलिसवालों ने बुरी तरह पीटा और अपमानित किया। बोबडे हेलमेट क्‍यों नहीं पहने थे? वगैरह-वगैरह।

मतलब यह कि कानून केवल प्रशांत भूषण जैसे देशवासियों पर ही लागू होता है? क्‍या बाकी जनता उस कानून पर पाबंद है, जजों के अलावा? आखिर साबित क्‍या करना चाहते थे? सच बात तो यह है कि केवल इसी मामले में ही नहीं, बल्कि कई मामलों में जजों का रवैया निहायत घटिया और अराजक रहता है। अदालतों में जजों के सामने ही रिश्‍वत लूटी जाती है। जजों पर भी भ्रष्‍टाचार के खूब अरोप लगे हैं। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट तक के जजों पर भी भ्रष्‍टाचार के मामले भड़के हैं। हर तरह का दंद-फंद, भ्रष्‍टाचार, बेईमानी, अराजकता, अभद्रता और लूटपाट के ढेरों आरोप अदालतों पर जनता के मन में चस्‍पां हो चुकी है। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री कलिखो पुल ने आत्‍महत्‍या के पहले जो 60 पन्‍नों का सुसाइड-नोट लिखा था, उसमें देश के दिग्‍गज नेताओं के साथ ही साथ कई सर्वोच्‍च न्‍यायाधीशों समेत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई जजों का खुलासा किया था। खुलासा तो प्रणव मुखर्जी पर भी किया था कलिखो पुल ने, जिन्‍हें हाल ही देश का सर्वोच्‍च सम्‍मान यानी भारत-रत्‍न प्रदान किया था। आरोप है कि यह सम्‍मान उनके वित्‍तमंत्री पद से रिलायंस वाले अम्‍बानी घराने की सेवाओं के लिए दिया गया था।

गजब किस्‍सा तो रंजन गोगोई का था। उनकी ही महिला सचिव ने उन पर यौन-दुराचार का आरोप लगा दिया। लेकिन गोगोई का कोई बाल बांका भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं, रिटायर होते ही केंद्र सरकार ने उनकी सेवाओं को पुरस्‍कृत करते हुए उनका राज्‍यसभा में सीट दिला दी। मेडिकल कालेजों के घोटाले में फंसे एसएन शुक्‍ला को लगातार दो साल तक कोई काम तक नहीं दिया गया। बिहार हाई कोर्ट मुख्‍य न्‍यायाधीश पीसी वर्मा ने तो हवाईजहाज में एयर होस्‍टेस को अश्‍लील गालियां तक दीं।

लखनऊ हाईकोर्ट के बड़े वकील वीरेंद्र भाटिया ने तो जजों के नामकरण पर हंगामा खड़ा कर दिया था। वजह यह थी कि वे अपने एक नाकारा किस्‍म के एक चिलांडलू वकील को जज बनवाने पर आमादा थे। सपा सरकार में खनन मंत्री रहे गायत्री प्रजापति की जमानत को लेकर लखनऊ के जिला जज को चंदौली में तबादला कर दिया और जमानत देने वाले जज को सस्‍पेंड। आरोप लगाया गया कि इस मामले में दस करोड़ रुपयों का लेनदान हुआ है। लेकिन किसी भी जज की हिम्‍मत नहीं पड़ी कि वह इस लेनदेन का मामला पुलिस के हवाले कर सके।

गाजियाबाद की जज रह चुकीं रमा जैन ने वहां सात करोड़ रुपयों के पीएफ घोटाले के साथ ही साथ बड़े जजों की सेवा में अनियमित काम करने के आरोप लगाये थे। लेकिन इसमें केवल एक अस्थाना नाम एक बाबू को गिरफ्तार किया गया, बाकी सब बेदाग रहे। कहने की जरूरत नहीं कि इसमें जिला और हाईकोर्ट के कई जज भी शामिल थे। बिहार में भी बाबू और जजों ने खूब गुल खिलाये थे।

सुप्रीम कोर्ट के जजों पर तो आरोप तो खैर प्रशांत भूषण खूब लगा ही रहे हैं। ऐसे में आप आपको तो अपने गिरहबान में झांकने की शुरुआत कर देनी चाहिए। प्रशांत भूषण को आप क्‍यों इतना भाव दे रहे हैं। इतनी कोशिश अगर आप अपने खानदान को सुधारने पर देना शुरू कर दें, तो फिजां ही बदल जाए। लेकिन इसके बावजूद अगर आपको लगता है कि प्रशांत भूषण को इस अवमानना के मामले में सजा देने से जजों का चरित्र पाक-साफ हो जागा, तो फिर हम अपनी कोशिश कर लीजिए। यकीन मानिये, केवल मैं ही नहीं, बल्कि पूरा देश भी आपके साथ खड़ा रहेगा। लेकिन कुछ ठोस दिखे तो।

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