जो निम्‍न जाति-भाव से ग्रस्‍त हैं, यह बात उन जैसों को लेकर

मेरा कोना

: दूसरों को भस्‍म करने की कोशिश में तुमने खुद को ही स्‍वाहा किया, यह तुम्‍हारी समझदारी है तो तुम्‍हें बधाई : तुम घृणा की फसल बोते रहे, तुम्‍हारी संतानें तुम्‍हारी घृणा के सैलाबों में डूब गयीं : एक दलित-सचेतक महिला बकलोली करती हैं, पीठ पीछे उनको गालियां देते हैं दलित-साहित्‍यकार :

कुमार सौवीर

लखनऊ : क्रांति का मतलब बदलाव लाना होता है, लेकिन मेरा अनुभव है कि इस दिशा-मार्ग पर बिना सोचे-समझे सिर्फ विध्‍वंस की ओर दौड़ना आत्‍मघाती हो जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई उसी डाल को कुल्‍हाड़ी से काट रहा हो, जिस डाल पर वह खुद बैठा हो।

जाति और सांप्रदाय-आग्रही होना एक बात है, लेकिन जाति-सम्‍प्रदायों के प्रति आग्रह पाले लोगों को जब परिवर्तन-कामी लोग इकतरफा अछूत और खतरनाक मान कर उनके खिलाफ जेहाद की हद तक उतर जाते हैं, तो उसका अंत केवल रक्‍तपात ही होता है।

कोई अगर किसी हठ पर अड़ा हुआ है, इसको सुधारने का मार्ग यह कैसे हो सकता है कि आप खुद उसी सड़क पर रपटना शुरू कर लें।

मेरे कई परिचितों की हालत आजकल खासी खराब है। वे जाति और धर्म को लेकर जीवन भर बेहद आग्रही नजरिया पाले रह कर स्‍वयं में आक्रामक भाव भड़काये रहे। घृणा की अग्नि-कुण्‍ड की हवन-ज्‍वाला में स्‍वयं को हवि के तौर पर समर्पित करते रहे, भस्‍म करते रहे अपने आप को।

लाभ क्‍या हुआ उनका पूरा का पूरा जीवन दूसरों को गालियां देते हुए खुद ही गालियों में तब्‍दील हो गया। ऐसे लोगों के परिवार तबाह हो गये, एक ने स्‍कूलों में होने वाली पढ़ाई को ब्राह्मणवादी शिक्षा के तौर पर पहचाना, और उसका बहिष्‍कार कर दिया। अचानक जब यह बच्‍चे बालिग होने की हालत तक पहुंचे, तो उन्‍हें उसी ब्राह्मणवादी शिक्षालय के दरवाजे पर गिड़गिड़ाना पड़ा। प्रिंसिपल ने एडमीशन लेने से साफ मना कर दिया। किसी तरह उन सज्‍जन ने कक्षा नौ पास की मार्क्‍सशीट हासिल कर ली, मगर दूसरे स्‍कूल ने उस बच्‍चे की स्थिति कक्षा छह से भी कमतर मानी। अब हालत यह है कि यह बच्‍चा अपने स्‍कूल में सबसे उम्र का बच्‍चा बन कर बेहद अवसादों में घिर कर आत्‍मकेंद्रित हो चुका है। जरा सी भी आवाज या खटका होता है, वह बच्‍चा बुरी तरह सहम जाता है।

लेकिन यह सज्‍जन इस हालत के लिए भी ब्राह्मणवादी शिक्षा परम्‍परा को दोषी मानते हुए उन्‍हें गालियां देते घूमते रहते हैं। फैजाबाद की एक दलित-भलाकर्ता पानी पी-पी कर सवर्णों को गालियां देती हैं। उनके सवर्ण उनकी हां में हां मिलाते हैं। लेकिन हैरत की बात है कि उनके वही सवर्ण ही नहीं, बल्कि दलित साथी भी उनके विचारों को पीठ-पीछे गालियां देते हैं। ( गालियों को मतलब, सिर्फ गालियां ही होता है, और गालियों का कोई वर्णीकरण भी नहीं होता है, न निम्‍न-उच्‍च वर्ण। गालियां गाली ही होती हैं, उनमें सवर्ण या दलित संचेतना नहीं होती। वे केवल घृणा ही फेंकती हैं और घृणा ही उगलती-उलचती हैं। )

बहरहाल, ऐसों की करतूतों को शायद वे खुद शर्मिदा भी सकते हैं। स्‍वयं को क्रांति का इकलौता सेनानी घोषित करना, बदलावों के नाम पर वैचारिक विरोधियों पर बहस करने के बजाय उन्‍हें नंगी गालियां देना, धार्मिक पुस्‍तकों पर दर्ज सदियों बरस पुरानी कथाकथित घटनाओं को आज की सान पर चढ़ा कर उन्‍हें गालियां देना और हर एक को जातिवादी और साम्‍प्रदायिक करार देते हुए लोगों से आग्रह करना कि वे उनकी बेहदगी का समर्थन करते रहें, उनकी दैनिक ठेलुआ-गिरी यानी शगल है।

एक अन्‍य सज्‍जन हैं। अपनी जाति को बार-बार बदलना, फिर उसे खारिज कर देना, फिर जातियों का विरोध और कुछ समय-अंतराल में उनका समर्थन कर देना इन सज्‍जन की दिनचर्या है। ऐसे लोग निर्माण तो कभी कर ही नहीं सकते थे, लेकिन जो बचा हुआ है, उसको सर्वनाश-मार्ग पर धकेल जाने में उन्‍हें बहुत संतोष होता है। ऐसे लोग अपने उपलब्‍ध साधनों-संसाधनों में संतोष या आनंद लेने के बजाय, अपने प्रारब्‍ध तक को तबाह करने में जुटे रहते हैं, यह जाने-समझने बिना कि इस तरह वे समाज को तो तबाह कर ही रहे हैं, अपनी संततियों को भी बर्बाद कर रहे हैं।

मेरे कई परिचित ऐसे हैं जो स्‍वयं को तो हमेशा इस तरह पेश करते थे कि उनसे बड़ा क्रांतिकारी महापुरूष इस धरा में कभी उपजा ही नहीं। लेकिन ऐसे लोगों की पत्नियां और उनके बच्‍चे जीवन भर उनसे घृणा करते रहे। वह तो इन पत्नियों की मजबूरी थी कि वे ऐसे लोगों के साथ जीवन-व्‍यतीत करने के लिए बाध्‍य रहीं, लेकिन कभी भी उन दोनों में बातचीत तक नहीं हुई। मरते दम तक वे वैधव्‍य की भूमिका में रहीं। ऐसे लोगों के व्‍यवहार चूंकि अपने पड़ोसियों और आसपास के समाज से बिलकुल अलग-थलग ही रहे, इसलिए उनके बच्‍चों पर भी प्रभाव इन हालातों का बेहद नकारात्‍मक ही पड़ा। कई लोग तो मुझे ऐसे मिले हैं, जो अपनी पत्नियों को पोंगापंथी-पुरातनपंथी मानते हैं, लेकिन दूसरी महिलाओं के नाम पर लार टपकाते दिख जाते हैं।

हद है साहब। जिस बात को शांत भाव में समझना और समझाना चाहिए था, उसे इन लोगों ने अपनी घृणा और गुस्‍से की आग में भून डाला। और फलस्‍वरूप पूरे जीवन भर उनके जीवन से एक घृणास्‍पद चिराइंध वाली असहृय बदबू निकलती रहे। इसी दुर्गन्‍ध को अंग्रेजी में स्‍ट्रेंच कहा जाता है।

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