एक झांपड़ में जयब्रत राय जमीन पर लम्‍बलेट हुआ, उप्‍पर था मैं और मेरा गुस्‍सा

मेरा कोना

: मजदूरों की हुंकार के सामने जयब्रत राय कांप उठा, थरथरा कर दोनों हाथ जोड़ लिये : तब मैं 16 रूपये का मिलिट्री का रिजेक्टेड जूता पहनता था : पहली बार अहसास हुआ कि सस्ते जूते का असर भी कमाल का होता है : नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे दर्ज चार बरस- बारह :

कुमार सौवीर

लखनऊ : बहरहाल, सामने ही खड़े थे ओपी श्रीवास्तव। कमरे के भीतर दुबका था जयब्रत राय। इसके पहले ओपी श्रीवास्तव अपने अधीनस्थों को कुमार सौवीर को गालियां देते हुए रोकने की कवायद कर रहे थे, लेकिन जब मैं अन्तत: भीतर पहुंच कर उनके सामने किसी यमराज की खड़ा हो गया, ओपी श्रीवास्तव की रंगत बदल गयी। बोले:- बेटा, मैं चाचा हूं तुम्हारा।

बावजूद इसके कि मैं ओपी श्रीवास्त्व को सम्मान देता था, लेकिन उस दिन उनका चरित्र देख कर अपना आपा खो चुका।

मेरा दाहिना हाथ उठा। पीछे की ओर उसे किसी कमान की तरह ताना और फिर सीधा एक कन्टाप रसीद कर दिया ओपी श्रीवास्ताव पर। घुसमुडि़या-कर चाचा लम्बालेट हो गये। ( यकीन मानिये कि मुझे अपने इस कृत्य पर आज भी याद आते ही शर्म आने लगती है। ( सॉरी चाचा। आय ऐम सॉरी।) मेरा यह रौद्र रूप देख कर वहां मौजूद बाकी सारे लोगों की घिग्घी बंध गयी। वे खुद को बचाने की जुगत में लग गये। कोई उधर छिपा, तो कोई इधर। अखिलेश त्रिपाठी दरवज्जे के पीछे लुकाय गये। उसकी पैंट में ही पानी का सोता उछल कर बाहर आने लगा।

फिर क्या, सामने जयब्रत राय खड़ा था। थरथर कांपता करता हुआ। सारी शेखी खत्म, शक्ल भीगी बिल्ली की तरह। मुझे रोकने वाला कोई भी नहीं बचा था। पीछे मजदूरों का बेहिसाब शोर था। मजदूर एकता, जिन्दाबाद। एक ओर साहस का रेला, तो दूसरी ओर भय-सिक्त गिड़गिड़ाहट और खामोशी।

जयब्रत से आंखें मिलीं, तो उसने पूरी तरह हारे हुए, नि:शक्‍त युधिष्ठिर-शिशुपाल की तरह विनीत भाव में अपने कांपते हुए दोनों हाथ जोड़ लिये। मैं सामने पहुंच चुका था।

फिर वही अंदाज, हाथ पीछे की ओर गया और फिर तान कर जो सामने किया तो पल भर में हाय मां चिल्लाता हुआ जयब्रत कुर्सी पर लुढ़क गया। फिर चेहरा उठाने की कोशिश की, लेकिन फिर दूसरा झांपड़ रसीद किया। अब जयब्रत सीधे जमीन पर था। तब मैं मिलिट्री से खारिज हुए कपड़े के जूते पहना करता था, जो आधी पिंडली तक कस लिया करती थी। महज 16 रूपयों में मिलता था, लेकिन था लोहालाट। कसा हुआ, और हाई ड्यूटी। उसके सोल लाजवाब होते थे। चलते वक्त लगता ही नहीं था कि मैंने कोई भारी जूता पहना है, इतना आरामदेह। चलते-फिरते कोई आवाज तक नहीं करता था। खुदा की छड़ी की तरह। बे-आवाज

खैर, जयब्रत अब जमीन पर पड़ा कराह रहा था। मैंने आव देखा न ताव, सीधे उसे पैरों से ही रौंदना शुरू किया। जैसे कोई आटा गूंथ रहा हो। बेहिसाब प्रहार किये, मुझे तनिक भी याद नहीं। ( क्रमश:)

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नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे दर्ज चार बरस

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