जगदीश्वर चतुर्वेदी ने फेसबुक छोड़ दिया, यह तो गजब हुआ

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: कलकत्ता विश्ववविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर है चतुर्वेदी : जुझारू प्रवृत्ति से सने व्यक्तित्व‍ पर पलायन सा चौर्य-कर्म शोभा नहीं होता : अपने ब्लॉग पर वीरता की गाथा लिखी, लेकिन एफबी का त्याग भी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : “ऐसे किया श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रतिवाद”

कलकत्‍ता विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी के व्‍याख्‍याता प्रोफेसर जगदीश्‍वर ने आज गजब पलटी मार दी। एक ओर तो उन्‍होंने अपनी दुर्धर्ष प्रवृत्ति का इजहार करते हुए मई दिवस सेलेब्रेट किया, वहीं अचानक पलायन-मार्ग की ओर अग्रसर हो गये। खबर है कि उन्‍होंने अब फेसबुक से तौबा कर लिया है, और आइंदा इस आभासी दुनिया में नहीं लौटेंगे।

बस, यही हैरत की बात है। जगदीश्‍वर चतुर्वेदी की वैचारिक और जैविक प्रवृत्तियों के सर्वथा प्रतिकूल। एक ही समय में इंदिरा गांधी जी के खिलाफ प्रतिवाद के अपने और अपने साथियों का बखान करते हैं, साबित करते हैं कि वे एक ऐसी शख्‍सियत के मालिक हैं जो कभी झुकता नहीं। लेकिन वहीं दूसरी ओर वे अचानक मैदान छोड़ कर भाग निकलते हैं। आज उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर लिखा है कि “ऐसे किया श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रतिवाद”। बस यही आश्‍चर्यजनक है।

हिन्‍दी साहित्‍य तो जीतने, सीखने, सिखाने, लड़ने, भिड़ने, तर्क का खजाना देता है, सामर्थ्‍य देता है कि जीजिविषा के लिए। दम-खम देता है अपने तर्कों-आधारो को पुष्‍ट करने के लिए। लेकिन जब ऐसा कोई व्‍यक्ति अचानक पलायन कर दे, तो यकीन नहीं होता। फिर तो तब तक यह मानना ही पड़ेगा या तो वह शख्‍स अपने विचारों की लकीर से इतर चला गया है या फिर उसके विचार ही निर्मूल हो गये। अब सवाल यह है कि अगर इस सवाल का जवाब जगदीश्‍वर चतुर्वेदी नहीं देंगे, तो फिर कौन देगा।

नहीं नहीं, मैं जगदीश्‍वर जी की निन्‍दा नहीं कर रहा हूं। मेरी औकात ही नहीं है कि मैं उन जैसी अजीमुश्‍शान हैसियत के प्रति निन्‍दा जैसा शब्‍द तक अपनी जुबान तक लाऊं। लेकिन हां, मैं उनकी आलोचना कर रहा हूं, जो मेरा अधिकार है। और यह वह अधिकार, जो मेघालय के शिलांग में नार्थ-ईस्‍ट हिल्‍स यूनिवर्सिट नेहू के परिसर में तीन दिन के दौरान उनके साथ प्रवास में मिला।

चतुर्वेदी जी को गौर से देखिये। उनके होंट रसीले होते हैं। फिल्‍मी सेक्‍सी हिरोइनों की तरह मोटे और चौखटेनुमा गोल नहीं, जो अभी लपक कर चूम लेंगे। जगदीश्‍वर जी के होंठों से शब्‍द उनके रसीले भाव निकलते हैं तो पूरा माहौल दिव्‍य हो जाता है। उनका अपना कमर लचका कर बात करना, उनकी प्रवृत्ति को जादूई गुण सम्‍पन्‍न कर देता है। हर बात को वे अपने बायें होंठ की ओर खींच कर पेश करना और सिर के साथ ही अपने दोनों हाथों को नचाना गजब अनुभूति दे देता है। नेहू यूनिवर्सिटी में जब जगदीश्‍वर ने बोलना शुरू किया तो सन्‍नाटा हो गया था। उनके एक निन्‍दक ने उन पर सिर्फ यह टिप्‍पणी की:- बहुत रसीला आदमी है, अपनी प्रवृत्तियों को लेकर बहुत गीला, रपटता सा।

लेकिन इससे जगदीश्‍वर की मेधा पर क्‍या फर्क। वे मौज में रहते हैं। पैसे की कमी नहीं। विशेष आग्रह नहीं। मैं शराब पीता रहा, वे शराब के प्रति अनजान-से बतियाते रहे। मैं खोद-खोद कर सवाल पूछे, उन्‍होंने उलीच-उलीच कर जवाब दिया। सुबह सबसे मुझे जगाना फिर देर शाम तक बतियाते रहना, मुझे भी प्रिय था,  उन्‍हें भी रूचिकर। जगदीश्‍वर चतुर्वेदी 13 नम्‍बर पाना है, जिसमें इतने खांचे होते हैं कि वह किसी भी टूल-नट-बोल्‍ट को सीधा कर सकता है।

फिर आप क्‍यों पलायन कर गये।

कुछ भी हो, परेशान तो तिर्लोचन शास्‍त्री भी हैं और शम्‍भूनाथ शुक्‍ल जी भी।

अरे अब लौटि आओ भाई साहब। आपके बिना सब सूना पड़ा है।

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