: क्यों शिवपाल ! कितने आदमी थे : गजब नौटंकी चली सपाइयों के बीच, खूब चलीं तलवारें, बेहिसाब हताहत : कहीं बाप-बेटे ने ही तो नहीं करा दिया ताजा महाभारत :
कुमार सौवीर
लखनऊ : शोले फिल्म में गब्बर सिंह की शक्ल में अखिलेश यादव ने जैसे कालिया शिवपाल को घुड़क कर पहले यह पूछा कि कितने आदमी थे, कांपते शिवपाल ने जवाब दिया:- अंसारी-ग्रुप, बकैत-अतीक और दीपक सिंघल। उसके फौरन बाद धांय, धांय, धांय की आवाज गूंजी। तीनों महारथी खेत रहे। यह धूम-धड़ाके की आवाज सुनते ही शिवपाल सिंह यादव फरागत को सिधार गये। उधर दिल्ली में बैठे रामगोपाल सिंह साम्भा की भूमिका में आ गये, और मजबूर कर रहे हैं ताकि धन्नों की तरह अमर सिंह को ठुमका लगाते हुए यह गीत गाते हुए फिरें कि जब तक है, जाने जहां मैं नाचूंगी।
समाजवाद के नाम पर अपनी निजी पारिवारिक सल्तनत की तर्ज में समाजवादी पार्टी को असफल तरीके से हांकने की कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव की कोशिशें अब धूल-धूसरित हो चुकी हैं। प्रदेश के इतिहास में पहली बार हुआ है, जब सभासदों-दरबारियों की हौंक-फौंक से हट कर मुलायम सिंह के नेतृत्व में पूरे कुनबे ने यूपी को अपने झंडे के तले रौंद डाला। हुंकार भरी और जो चाहा, कर डाला। चूंकि मुलायम को दिल्ली की गद्दी पर बैठने के सपने आया करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी छवि राष्ट्रीय बनाने की कोशिश करते हुए यूपी की गद्दी को बेहद नाटकीय तरीके से ठुकरा दिया। मगर सवाल यह उठा कि फिर गद्दी पर कौन बैठे। ऐसे सवाल पर मुलायम का पुत्र-मोह जाग उठा। बावजूद इसके कि शिवपाल, आजम खान जैसे बड़े नेताओं ने अपनी मेहनत से सपा को सींचा था, लेकिन सारे राजनीतिक कर्तव्यों पर पुत्र के प्रति दायित्वों ने बाजी जीत ली। अखिलेश का पगड़ी-संस्कार सम्पन्न हो गया।
शिवपाल सिंह यादव के सपनों की एक न चली। वैसे भी वे इसे घर का झगड़ा मान कर खुली राजनीति नहीं खेलना चाहते थे। सो चाचा ने भतीजे के चरणों में अपना आसन लगा दिया। मगर शिवपाल सिंह यादव ने कच्ची गोटियां नहीं खेली थीं। अपने बातचीत, हावभाव और शब्दों के चलते कुशल वक्ता न होने के चलते राजनीति में दूसरों के मुकाबले हमेशा मात खा जाने वाले शिवपाल सिंह यादव ने यही सोचा कि:- चलो, कोई बात नहीं। भतीजा इंजीनियर है, बहू भी बड़े खानदान की है और यह दोनों ही व्यवहार-कुशल हैं, ऐसे में इन दोनों के कांधे पर रख कर बंदूक चलाना ही बेहतर है। काम भी हो जाएगा, और पोल भी नहीं खुलेगी।
लेकिन अपने भतीजे के जूनियर बना दिये जाने के बावजूद शिवपाल अपनी हनक बनाये रखने पर आमादा थे। इसीलिए हर-फन मौला अमर सिंह से अपनी नजदीकियां पाल लिया शिवपाल ने। तिकड़मी अमर सिंह को भी मौका मिल गया, जब वह अपने जानी-दुश्मन आजम खान, और एनसीआर में बैठे रामगोपाल यादव को औकात दिखा सकते थे, जिन्होंने सात साल पहले उन्हें गटर में फिंकवा दिया था। फिर क्या था, अमर सिंह को भी अपने रोजी-रोजगार की सख्त जरूरत थी। लम्बे समय से बेरोजगार हुए अमर सिंह को शिवपाल ने सब्जबा दिखाया और नतीजा यह हुआ कि शिवपाल की सलाह पर मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को पार्टी में वापस ले लिया। इतना ही नहीं, पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में भी अमर सिंह की धमाकेदार कुर्सी दे दी गयी।
अमर सिंह ने शिवपाल सिंह यादव को साधते हुए मुलायम सिंह को सिंचाई के प्रमुख सचिव रहे दीपक सिंघल को मुख्य सचिव पद के लिए साधना शुरू कर दिया। अमर सिंह की ख्वाहिश थी कि इस तरह वे यूपी सरकार के अमर-अंकल बन कर बेताज बादशाह बन जाएंगे। लेकिन आजम खान और रामगोपाल सिंह यादव ने भी कच्ची गोटियां नहीं खेली थीं। यह दोनों ही गुल्ली-डंडा में अमर सिंह द्वारा खूब पदाये जा चुके थे, और अब इन दोनों ने अमर सिंह को पदाने के पांसे फेंकने शुरू किये। दांव सटीक चलने लगा। अमर सिंह के निर्लज्ज दांवों का खुलासा होना शुरू हो गया, उधर दीपक सिंघल के बे-अदब अंदाजों ने लगातार बालिग होते जा रहे अखिलेश यादव के माथे पर त्योरियां चढ़ाना शुरू कर दिया। नतीजा, सबसे पहली विदाई तो दीपक सिंघल की ही हो गयी। उसके बाद पत्ता कटा शिवपाल सिंह का भी। आखिरकार शिवपाल ने मुलायम को समझा कर अखिलेश और रामगोपाल को ही बर्खास्त करा दिया।
बाकी का सारा महाभारत तो आप जानते ही हैं।
मुख्यमंत्री आवास के सामने हजारों सपाइयों की भीड़ ने जैसे ही मुलायम सिंह यादव मुर्दाबाद के नारे उछालने लगाये, मुलायम सिंह के पैरों तले जमीन सरक गयी। पहली बार मुलायम वाकई मुलायम बने और आनन-फानन अखिलेश-रामगोपाल को वापस ले लिया। अब यह दीगर बात है कि कुछ लोग यह खुसफुसाहट फैला रहे हैं कि मुलायम और अखिलेश ने ही एकजुट हो कर हालात ऐसे पलट दिये कि शिवपाल नाम का कांटा हमेशा-हमेशा के लिए निष्क्रिय हो गया। अगला नम्बर अमर की बर्खास्तगी के तौर पर जल्दी ही हो जाए, तो कोई अचरज नहीं।
कुछ भी हो, शिवपाल की हालत अब राजा पुरू की तरह बन चुकी है, जो अब सिकन्दर-महान के सामने घुटने टेके बैठा है। रहम की भीख मिलेगी भी या नहीं, इस बारे में कल तक हम प्रतीक्षा करेंगे हम लोग। लेकिन चाहे कुछ भी हो, लेकिन राजनीति में शिवपाल की हालत ठीक उसी तरह की हो चुकी है, जैसी बसपा के स्वामी प्रसाद मौर्या की, जो अब भले ही भाजपा में शामिल हो चुके हों, लेकिन उनकी हैसियत अब किसी अदने से कार्यकर्ता से ज्यादा नहीं है।