अब खबर कहां? सिर्फ कही-सुनी है, या फिर केवल कानाफूसी

मेरा कोना

: किसी भी अखबार के 99 फीसदी पन्‍ने केवल प्रेस-नोट के बल पर रंगे होते हैं : हियर-ऐण्‍ड-से यानी जो सुना, छाप दिया : किसी अखबार पेनिस-टाइट क्रीम बेचने में व्‍यस्‍त है, तो कोई जापानी तेल बेचता है : वाट्सऐपिये पत्रकार तो झूठ का तूफान खड़ा कर चुके हैं :

कुमार सौवीर

लखनऊ : किसी भी दिन के किसी भी अखबार को उठा लीजिए। मुख्यपृष्ठ समेत लगभग सभी पन्नों पर जितनी भी खबर छपती हैं, उनमें से 99 फीसदी खबर हैं ही नहीं। और अगर वह खबर हैं भी तो, वह खबरें जागरण के रिपोर्टर ने नहीं लिखा। बल्कि वह सारी की सारी लाइनें दैनिक जागरण इनफॉर्मर ने अपने स्‍मार्ट-फोन से ढो कर जागरण तक पहुंचाया है, जिसे उस अखबार अपने संवाददाता के नाम से छापता है। आपको साफ पता चल जाएगा कि जो लाइनें छपी होती हैं, उनमें रिपोर्टर के बजाय, केवल इनफार्मर का ही चेहरा होता है। जिनमें खबर नहीं, बल्कि काना-फूसी ही होती है। साफ-साफ हियर-ऐण्‍ड-से। जिसने जो कहा, जो सुना। बस वही शब्‍दश: पेश कर दिया। दिमाग-मगज खपाने की कोई जरूरत ही नहीं। सूचना विभाग या मंत्रालय अथवा किसी अफसर द्वारा जारी प्रेस-नोट ही छपता है। जस का तस। मंत्री ने जो कहा, छाप दिया। किसी नेता ने कहा, छाप दिया। कमिश्‍नर, डीएम ने जो कहा, छाप दिया। डीजीपी ने जो कहा, छाप दिया। दारोगा ने जो कहा, छाप दिया। जो नहीं भी कहा, वह भी छाप दिया। फिर जाकर उस नेता और अफसर को दिखा दिया कि:- देखिये सर। यह छापा है मैंने। मेरी पीठ ठोंकिये, प्‍लीज।

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पत्रकार पत्रकारिता

केवल एक ही अखबार क्‍यों, अब तो सभी अखबारों की यही हालत है। हां, किसी अखबार को अपना लिंग-वर्द्धक विचित्रयंत्र बेचने की आपधापी रहती है, जबकि दूसरे को विज्ञापन बेचने की व्‍यस्‍तता। एक ने तो आजकल सांडा और जापानी तेल की एजेंसी तक खोल रखी है। एक अखबार अब पेनिस-टाइट क्रीम का खुलेआम प्रचार कर रहा है। रायबरेली के एक अमीर दलाल की प्रशस्ति-गीत लिखने में एक अखबार ने पिछले तीन महीने में छह से ज्‍यादा पन्‍ने रंग दिये हैं। पूरा का पूरा पन्‍ना, फोटो समेत। और हर पन्‍ने की कीमत 16 लाख रूपयों से ज्‍यादा वसूल लिया गया है। एक अखबार के सम्‍पादक को खबर की तमीज ही नहीं है, और दूसरे सम्‍पादक के पास खबर को चेक करने का समय नहीं। कूड़ा छप रहा है। पूरा स्‍टाफ दलाली पर आमादा है। ए-टू-जेड।

अब सच तो यही है कि उसी तत्व को हमने पाला-पोसा है जो रिपोर्टर नहीं, बल्कि इनफॉर्मर में तब्‍दील हो गया , जिसे जो मन आया, छाप दिया। चाहे वह कूड़ा करकट है, झूठा है, सच है, बवाल है, इसका निर्धारण अब कौन करे। जी नहीं, हमारी कल्पनाओं में अखबार का मतलब इनफॉर्मर का कूड़ा-करकट नहीं हुआ है बल्कि हम खुद को रिपोर्टर ही समझते थे। हम सब यही चाहते हैं कि हमारे भविष्य की हमारी संततियों वीर-संतान ही बनें। ऐसे परिश्रमी बनें, जो सच के सामने खड़े रहें। उनका लेखन अपनी अनुभूतियों पर हो, किसी के कहने पर नहीं। बल्कि अपनी खोजी नजर से वे देखें, सोचें और उसके बाद ही लिखें।  (क्रमश:)

पत्रकार और पत्रकारिता। यह दोनों ही जीवन की सांस की तरह हैं। और कहने की जरूरत नहीं कि आब-ओ-हवा ही यह तय करती है कि इंसान का नजरिया और उसका भविष्‍य कैसा होगा। हमारा यह न्‍यूज पोर्टल मेरीबिटियाडॉटकॉम इसी मकसद पर काम कर रहा है। यह श्रंखलाबद्ध आलेख है। इसकी अगली कडि़यों को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-

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