बधाई हो। तुम्हारे घर बाबू पैदा हुआ, इंसान नहीं

मेरा कोना

: समाज की सफलता आईएएस बनना नहीं, इंसान होना जरूरी है : किस अफसर के जन्म पर क्यों थाली पीटा है तुमने, जरा सबको बताओ न: आईएएस के जन्म पर देखो कितने उछल रहे हैं पत्रकार, इंसानों की चर्चा तक नहीं : गजब दोहरे चरित्र की ओर दौड़ रहा है हमारा समाज : लो देख लो, बड़ाबाबू  की करतूतें- 19 :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मथुरा के जवाहरबाग में तीन साल तक सरकार की 280 जमीन पर कब्‍जा बना रहा, आईएएस-आईपीएस अफसर उस कब्‍जे को हटाने के बजाय नेताओं के इशारे पर उसे बसाये रखने पर जुटे रहे। फिर जब हाईकोर्ट के आदेश पर कार्रवाई हुई तो 32 लाशें बिछा दी गयीं।  यूपी का एक बड़ाबाबू के घर में काम करने वाले दो सरकारी कर्मचारियों को डेढ़ करोड़ के हार की चोरी के आरोप में दो महीने तक राजधानी के विभिन्‍न थानों में अवैध रूप से बंद रखा गया, जमकर पीटा गया। एसटीएफ वाले उन कर्मचारियों से पूछने के नाम पर उस पर सितम-जुल्‍म ढाते रहे। जुल्‍फी प्रशासन ने तो मानवता के सारे स्‍तम्‍भ ही ढहा दिये।

सामूहिक गैंगरेप की पीडि़त एक नाबालिग बच्‍ची को न्‍याय दिलाने के बजाय उसे पागलखाने में भेजने की साजिश की तब के डीएम भानुचंद्र गोस्‍वामी ने। भ्रूण-हत्‍या की सूचना मिलने के बावजूद जौनपुर के डीएम सर्वज्ञराम मिश्र अपनी कुर्सी ही तोड़ते रहे। लखीमपुर की डीएम रही किंजल सिंह ने तो वहां लोगों को दूर, दुधवा नेशनल पार्क के वन्‍यजीवों तक का जीना हराम कर दिया था। रायबरेली का डीएम जब बहराइच का डीएम था, तब किसी गुण्‍डे-मवाली की तरह पांच होमगार्ड को लाठी लेकर अपने बंगले में आधे घंटे तक पीटता रहा। बाद में अपना ही थूक चाटते हुए उन कर्मचारियों से लिखित माफी मांगने लगा। मजा तो तब आता जब वे सिपाही उस डीएम को पलट कर लठिया देते। उदाहरण कम पड़ रहे हों तो डॉ हरीओम जैसे अफसरों का नाम ले लीजिए। उधर हृदयशंकर तिवारी और उस जैसा तीन अन्‍य अफसर घर में नोटों को ऐसा रखता है, जैसे वह नोट नहीं, उसके घर के मवेशियों का भूसा भरा है। एक डीएम को नोट कमाने का ऐसा नशा है कि वह जमीन के धंधे में भी जुट गयीं। ऐसी एक नहीं, दर्जनों-सैकड़ों घटनाएं यूपी में भरी पड़ी हुई हैं।

तो दोस्‍त। अगर आपको ऐसे ही आईएएस-आईपीएस की चाहत है, तो फिर आपको भले न हो, लेकिन प्रमुख न्‍यूज पोर्टल मेरी बिटिया डॉट कॉम को जरूर ऐसे अफसरों पर शर्म आती है।

लोकसेवा आयोग की परीक्षा का परिणाम आ गया तो पत्रकारों की बल्ले-बल्ले हो गयी। सब के सब इसी दौड़ में हैं कि कैसे ऐसे अपने इलाके से आईएएस बने युवाओं को तेल लगा सकें। उनकी गाथा लिखी-सुनायी जा रही है, उनके परिवारी जनों के संस्मरण सुनाये जा रहे हैं। उनके पड़ोसियों के योगदान पर चर्चा हो रही है, कि कैसे उन लोगों ने इन सफल युवाओं को कम्पट-लेमनचूस-पकौड़ी थमा कर उन्हें  इस लायक बनाया कि वे आज अफसर हो गये। ब्यूरो चीफ से लेकर सम्पादक तक में होड़ मची है कि कैसे भी हो, अमुक-अमुक का इंटरव्यू करो और जरा तय करो कि उसे अपने आफिस में लाकर सम्मानित करो-कराओ, ताकि पाठकों को यकीन दिलाया जा सके कि अगर हमारा संस्थान न होता तो वह और चाहे कुछ भी बन जाता, लेकिन अफसर हर्गिज नहीं।

लेकिन क्या आपको नहीं लगता है कि आईएएस की सफलता को पूरे समाज की शीर्षतम सफलता के तौर पर प्रचारित करने की साजिश और आपाधापी में इंसान की मौत हो रही है। जो बचा-खुचा बचा है, वह दम तोड़ रहा है। क्या आपको नहीं लगता है कि केवल नौकरी ही हमारे समाज में सफलता की कुंजी बन चुकी है। समाज में आईएएस पैदा करना अब सफलता का प्रतीक बन गया है। न उसके पहले, और न उसके बाद। उसके बाद के सारे विषय अब गौड़-निरर्थक होते जा रहे हैं। न कोई साहित्य पर चर्चा करता है, किसी को इंजीनियरिंग के बारे में बात करने का समय ही नहीं, गणितज्ञों पर बात करना मूर्खता बन चुका है, खेल का मतलब वक्त बर्बाद करना ही बचा है, संगीत तो नचनियों-ढोलचियों-भांड़ों का काम बन गया है, व्यवसाय बनियागिरी है, ठेकेदार चोर है, नेता लुटेरे हैं और शिक्षक तो पक्का चूतिया है, ” इतना ही काबिल होता तो खुद न आईएएस न बन जाता उल्लू का पट्ठा। “

यह ज्ञान परोस दिया गया है हमारे समाज में। आईएएस ही चकमक पत्थर रखता है, पारस-पत्थर केवल आईएएस के पास है। बाकी सब बेईमान हैं, सिर्फ आईएएस ही दमदार है। उसकी भृकुटि बदल जाए तो क्या न क्या  हो जाएगा। आदमी को कुत्ता  बना सकता है आईएएस। आईएएस सीधे कलक्टर बनता है, उसके सामने दण्डवत होते हैं। वह जो चाहता है, करता है। बड़े-बड़े लोग उसके सामने जूते साफ करते हैं। वह छींक मार दे तो सारे सूरमा सीधे पाताल में चले जाएं। अरे जब इस देश से जा रहे थे, तो उन्होंने अपनी विरासत आईएएस को दे दिया था। आजादी के बाद का राजा आईएएस ही है। वह हुकुम देता है, जबकि बाकी लोग उसका पालन करते हैं। वह डांट दे तो बाकी लोग भरभराय कर पाद मार दें, उड़ जाएं, जड़ समेत। हां नहीं तो। वह ऐश करता है, ऐश। दिन भर मजा लेता है, कभी इधर, तो कभी उधर। बाकी लोग केवल अपना शोषण कराने के लिए जन्म लेते हैं, जबकि आईएएस तो सीधे विशालकाय मधुमक्खी की तरह होता है। वह सारा रस चूस लेता है और बाकी सब को बाबा जी को घण्टा थमा देता है। वे सिर झुकाये, अपना हाथ जोड़े उसके सामने खड़े ही रहते हैं।

बच्चा यह सुन-सुन कर चमत्कृत होता है, उसे सपने दिखते हैं रूपहले। वे देखता है कि वह बस कुछ ही बरस बाद ही वह कलक्टर बन जाएगा। जनता और दूसरे लोगों पर हंटर मारेगा। सब चिल्लाएंगे, मैं अ्टठहास करूंगा। बड़ मजा आयेगा, जब वे छटपटायेंगे। एक डांट में कुल-कर्म हो जाएगा। निक्क् गीली हो जाएगी। या फिर अपनी बेचारगी पर हताशा और अवसाद में चला जाता है बच्चा। उसे लगता है कि उसके पास अब कुछ भी नहीं। वह आईएएस नहीं बन पाया तो उसके सारे सपने बिखर जाएंगे। छोटा अफसर-कर्मचारी बना तो उसकी जीना हराम कर देगा आईएएस। दूकानदार बना तो उसे घूस देना पड़ेगा। इंजीनियर और ठेकेदार बना तो यही आईएएस उसे गन्ने की तरह गार-निचोड़ लेगा। इससे बेहतर है कि वह—-(क्रमश)

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बड़ा बाबू


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