हां तो मेहरबान ! सूचना सलाहकार कौन सी चिडि़या है?

बिटिया खबर

: मदारी ! ऐसे जमूरों की कलाबाजियों में मजा नहीं आ रहा : न ताकत की दवाइयां बिक रही हैं, और न जमूरा-मदारी का खेल : उप्र सूचना विभाग में मनमर्जी, ठेंगे पर गयी व्‍यवस्‍था :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ( पिछले अंक के बाद ) आपने सड़क पर मजमा लगा कर जादू दिखाते हुए दवाई बेचने वाले मदारियों का खेल जरूर देखा होगा। ऐसे मदारियों का काम उनके जमूरों के बिना कभी हो ही नहीं सकता है। लेकिन जरा कल्‍पना कीजिए कि कोई मदारी ऐसा कोई खेल दिखा रहा हो, और उसमें जमूरा ही नदारत हो, तो फिर ऐसा खेल देखने पर आपका स्‍वाद कसैला हो ही जाएगा न ? यह भी हो सकता है कि मजमा लगायी भीड़ उस मदारी के खिलाफ हंगामा ही खड़ा कर दे।
लेकिन यहां किसी जादू या मदारी अथवा उसके किसी जमूरे की बात नहीं हो रही है। बल्कि पत्रकारों और सरकार के बीच संतुलन-सेतु की है, जिसकी अवधारणा मुख्‍यमंत्री और सरकार की प्रचार के लिए तैयार की गयी है। ऐसे प्रचार अभियान की जरूरत पूरा करने के लिए मुख्यमंत्री ने सूचना सलाहकारों की नियुक्ति तो कर रखी है, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद तमाशा पूरी दमदारी और हरियाले यौवन वाले अंजाम तक नहीं पहुंच पा रहा है।
दरअसल, यूपी सरकार के मामलों में प्रचार रणनीति को मजबूत करने का मकसद योगी की छवि को संवारना और उसे तराशना ही है। किसी भी सरकार अपने जनसंपर्क के लिए कोई न कोई जुगत बनाए रखने में अपनी भिलाई रखती है। उसकी कोशिश होती है कि सरकार पर जोगी पर आफत बन सके मामलों को मीडिया में संभाला जाए और सरकार के पक्ष में एक सकारात्मक माहौल बनाए रखा जाए। मगर दिक्‍कत तो यह है कि यह महान काम आखिर हो भी तो कैसे। पत्रकारों से दूरी नुकसान भी हो सकती है, और निकटता भी दिक्‍कत कर सकती है। इस से निपटने के लिए रणनीतिक कौशल की जरूरत होती है। और कहने की जरूरत नहीं कि इस नफा-नुकसान का आंकलन कराने के लिए अनुभवी पत्रकारों की जरूरत सरकार को हमेशा से ही रही है।
इसके लिए इस योगी सरकार ने अपने लिए तीन-तीन सूचना सलाहकार नियुक्त कर रखे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि इन तीनों सलाहकार अपने दायित्वों से दूर खड़े होकर सरकारी जॉब में विश्राम कर रहे दीखते हैं। योगी सरकार ने अपनी शुरुआती दौर में ही सूचना सलाहकार नियुक्त कर दिया था। उनकी पहली नियुक्ति मृत्युंजय कुमार के तौर पर हुई थी। एक वक्‍त था, जब मृत्युंजय कुमार एक जुझारू पत्रकार रहे हैं और अमर उजाला समेत कई अखबारों में उनके नाम के डंके बजते रहे हैं। उनकी नियुक्ति से एक ऐसा माहौल बना था कि वे पत्रकारों और सरकार के बीच मजबूत संबंध-सेतु का काम करेंगे और इसके लिए वे निजी तौर पर प्रयास करेंगे। कोशिश करेंगे कि पत्रकारों के साथ सरकारी मामलों की खबरों का तालमेल बेहतर बना रहे।
लेकिन कुछ समय बाद कुछ ओछे और घटिया टाइप बड़े पत्रकारों की छिछोरी करतूतों के चलते यह रिश्ता खराब होने लगा। सूचना विभाग में पत्रकारों ने अपने स्‍वार्थों के चलते परस्‍पर लात-जूता चलाना शुरू कर दिया। सरकारी वाट्सऐप ग्रुप में भी हो-हल्‍ला शुरू हो गया। एक-दूसरे को दलाल साबित करने की होड़ मचा दी इन छिछोरे बड़े पत्रकारों ने। नतीजा यह हुआ कि सूचना निदेशक ने ऐसे पत्रकारों को अपने सरकारी व्हाट्सएप समूह से निकाल बाहर कर दिया।
इस पर फिर हंगामा छिड़ गया। पता चला कि शासन और विभाग में कुर्सी तोड़ते कई बड़े आला अफसरों ने पत्रकारों की राजनीति को रंगना शुरू कर दिया। बताते हैा कि इस मामले पर षडयंत्र के तौर पर उभरी और सरकारी मशीनरी दो-कौड़ी का हो गई। तनाव बढ़ने लगे। तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दो अन्य सूचना सलाहकारों की नियुक्ति कर दी। इसमें जातीय संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई। मसलन शलभ मणि त्रिपाठी ब्राह्मण के तौर पर सजाए गए, जबकि रहीस सिंह को ठाकुर-लॉबी वाले सिंहासन पर विराजमान किया गया।
इसके पहले मृत्युंजय कुमार पहले से ही क्षत्रिय सिंहासन पर बैठे हुए थे।
सच बात तो यही है कि मृत्युंजय कुमार और शलभ मणि त्रिपाठी वास्तविक तौर पर पत्रकार हैं। शलभ मणि त्रिपाठी का नाम पत्रकारिता के हर पन्ने के हर हर्फ पर दर्ज है। चाहे वह संघर्ष का मामला हो, पत्रकार हितों को लेकर हो, या फिर व्यक्तिगत संघर्ष पर। शलभ हमेशा मुखर पत्रकारिता ही करते रहे हैं। रहीस सिंह का नाम पत्रकारिता में लोग जानते ही नहीं। रहीस सिंह के लेख आदि सीमित हैं और केवल विषय-विशेष तक ही सीमित रहे हैं। रहीस सिंह का नाम पत्रकारिता के बजाय एक कोचिंग सेंटर के टीचर तक ही सिमटा रहा है। ( क्रमश: )
सूचना विभाग में पत्रकारों के मान्‍यता कार्ड को लेकर शुरू हुए बवाल की पूरी रिपोर्ट का अगला अंक देखने के लिए कृपया बड़के सूचना सलाहकार पर क्लिक कीजिए।

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