: ढाई किलोमीटर की सड़क पर राजधानी का ट्रैफिक 23 मिनट में सरका : सड़क दम्पत्ति व दुधमुंहा बच्चा घायल : भागे कार-सवार नव-धनाढ्य, दिहाड़ी मजदूरों ने घायलों को सम्भाला : सिविल अस्पताल में सेवा-भाव काफी, लेकिन दवा है ही नहीं : लखनऊ में न सरकार, न सिस्टम। सिर्फ दावे और वायदे :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह घटना पुलिस लाइंस के चंद कदम आगे कल शाम सात बजे की है। मुझसे मिलने के बाद स्कूटर से लौट रही मेरी बेटी के परिवार को फर्राटा मारते कार-सवार ने जोरदार टक्कर मारी और भाग निकले। इस हादसे से दामाद को इतना जबर्दस्त शॉक लगा, कि उसकी ताजा याददाश्त ही चली गयी। 35 महीने के नाती च्यवनप्राश यानी भावार्थ को भी काफी चोटें आयीं और वह लगातार चीखता ही रहा। बेटी भी घायल हुई। सड़क के किनारे आकर बेटी ने फोन किया, तो मैं सुनते ही सहम और बौखला गया। वह तो गनीमत थी कि देवानंद उपाध्याय, नीतिका पांडेय और धर्मेंद्र राना घर पर मेरे साथ थे ही। हम सब तत्काल घटनास्थल पर पहुंचे और घायलों को लेकर सिविल अस्पताल की इमर्जेंसी ले गये। चीफ फार्मेसिस्ट सुनील यादव को पहले ही फोन कर दिया था। पुत्रवत मोहम्मद शारिब इमर्जेंसी में आये।
डॉक्टरों और दीगर मेडिकलकर्मियों ने तीनों घायलों को सम्भाला। साफ-सफाई, दवाई, इंजेक्शन। मरीजों और उनके तीमारदारों को छोड़ कर बाकी सभी के चेहरे और भंगिमा में तनिक कोई भी तनाव नहीं, सभी लोग सहज और सरल। मेरे सारे सवालों का जवाब सभी ने दिया। दरअसल, तीमारदारों के साथ संकट यह होता है कि वे खुद डॉक्टर बनना शुरू कर देते हैं। मसलन, क्या एमआरआई जरूरी नहीं होगा, बीपी भी चेक कर लीजिए, इधर भी तो शायद चोट लगी हो सकती है, कहीं कोई हड्डी न टूटी हो। वगैरह-वगैरह। दरअसल, घायलों से ज्यादा परेशान होते हैं उसके परिवारीजन। मेरे साथ भी यही हुआ। लेकिन किसी भी डॉक्टर या पैरा-मेडिकलकर्मी ने बिना किसी झुंझलाहट के सारे सवालों का जवाब दिया। बहरहाल, करीब डेढ़ घंटे के बाद हम लोग घर लौटे। घायलों समेत सभी लोगों को तड़के में ही नींद आ पायी।
तो यह है हादसा। लेकिन कोई भी हादसा अपने साथ कई सवालों को भी जन्म दे देता है, शिद्दत के साथ समाधान करने के लिए। सबसे बड़ा सवाल तो संवेदनशीलता का होता है। इस क्रम में सवाल यह उठ सकता है कि ऐसी दुर्घटना करने वालों का आयु और आय-वर्ग क्या है, ऐसे हादसों के बाद भाग निकलने वाले कौन होते हैं, अराजक ड्राइव करने वालों पर क्या किया जाए। लेकिन इससे ज्यादा बड़ा सवाल तो यह लगता है कि ट्रैफिक की होड़ में शामिल लोगों में ऐसी घटनाओं के प्रति तनिक भी संवेदनशीलता होती है। वे यह मानने को ही तैयार नहीं होते हैं कि कल उनके साथ भी यही हो सकता है। उन्हें केवल अपने काम, स्वार्थ और जीवन से ही लेनादेना होता है। लेकिन जब उनके साथ ऐसा होता है, तो वे दूसरों के चेहरा ताकते रहते हैं।
लेकिन सबसे भी बड़ा सवाल तो हमारे सिस्टम का है। कुल आधा किलोमीटर के बीच आईटी चौराहा से लेकर दुर्घटनास्थल के बीच दो चौराहे पर रेडलाइट के लिए कैमरे लगाये हैं पुलिस विभाग ने। आईटी चौराहा और पुलिस लाइंस चौराहा में। उसके पचास मीटर बाद फिर एक चौराहा है, जहां यह हादसा हुआ। यहां पर रिमोट कंट्रोल रुम से लेकर चौराहों के किनारे पर भी पुलिस की ड्यूटी होती है। लेकिन एक कार तेज फर्राटा भरते हुए एक स्कूटर-सवार पुरुष, उसकी पत्नी और उसके एक दुधमुंहे बच्चे को टक्कर मार देता है और उसके बाद तेजी से हनुमानसेतु की ओर भाग निकलता है। इस हादसे को देखने, रोकने या पहचान करने की तनिक भी जरूरत नहीं समझी जाती है। चौराहे पर तैनात पुलिस पिकेट घायलों तक तत्काल राहत पहुंचाने की कोई भी कोशिश नहीं करती है। उधर परिर्वतन चौराहे से लेकर हजरतगंज के बीच के करीब ढाई किलोमीटर की दूरी को पार करने में हमें लोहे के चने चबाने पड़े। पूरा 23 मिनट लग गया। हजरतगंज को छोड़ दिया जाए, तो परिवर्तन चौराहा से बाद तक के सारे चौराहों पर लगी सिग्नल-लाइट पूरे सिस्टम को खिल्ली उड़ा रही थीं। वहां हरे-लाल सिग्नल नहीं मिलते, केवल बी-एलर्ट ही लिखा होता है। इस पूरे दौरान सड़क के किनारे पार्क गाडि़यों ने ट्रैफिक को बर्बाद कर रखा। गांधी आश्रम से हजरतगंज चौराहे को पार करने में हमें चार बार ग्रीन लाइट की प्रतीक्षा करना पड़ा।
और सर्वोच्च सवाल तो सरकारी कामधाम को लेकर है। अस्पतालकर्मियों के व्यवहारों के बारे में तो मैं पहले ही बता चुका, लेकिन सिस्टम की खामी यह देखिये कि अधिकांश दवाएं हमें बाहर से ही लेनी पड़ीं। हमने उन दवाओं का नाम लिखने को कहा, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि हम दवा का नाम नहीं लिख सकते। और जो दवा लिखी गयी, वह अस्पताल में मौजूद ही नहीं है। जाहिर है कि ऐसी हालत में ऐसी दवाएं हमें बाहर ही खरीदनी पड़ी। फिर ऐसे ऐलानों का क्या मतलब हो पाता है कि डॉक्टरों ने बाहर से दवा लिखी तो होगी सख्त कार्रवाई।
दरअसल सिस्टम केवल दया और भावुकता ही प्रदर्शन करता है, लेकिन तनिक भी यह कोशिश करने की आवश्यकता नहीं समझता है कि समाज में करुणा उपजायी और उगायी जाए। वह ऐलान तो कर देता है कि दवाएं बाहर से नहीं, बल्कि अस्पताल में ही मिलनी चाहिए, लेकिन ऐसा करने की सम्भावनाएं ही तोड़ देता है। वह अस्पतालों में ताबड़तोड़ छापे तो मारता है, लेकिन अस्पतालों में दवाएं मुहैया करने के सवाल पर मुंह झांकता है। वह सभी अस्पतालों में मरीजों को एम्बुलेंस देने का दावा तो करता है, लेकिन बलिया में एक महिला को अस्पताल ले जाने के लिए एक ठेले पर ले जाना पड़ता है और हमीरपुर में गर्भवती को अस्पताल में भर्ती ही नहीं करता और डीएम भी खामोशी के साथ झक मारता रहता है। ऐसी हालत में सरकार या सिस्टम में आपातकालीन सहायता के दावों का क्या अर्थ रह जाता है?
लेकिन करुणा आज भी समाज में मौजूद है। यह सच है कि यह करुणा केवल सबसे निम्न आय वर्ग तक ही सीमित है, लेकिन है बेहिसाब। वरना इस दुर्घटना के तत्काल ही आसपास पंक्चरवाले, पानवाले और ठेलियावाले दिहाड़ी मजदूरों ने सड़क पर पड़े तीनों घायलों को फौरन सम्भाल कर उन्हें किनारे ले जा कर उन्हें बिठाया और पानी पिलाया नहीं होता।