फ्लोरेंस नाइटिंगल्‍स नर्सों ! मैं हूं शर्मिंदा, माफी मांग रहा हूं

सैड सांग

: इस मैट्रन के मैसेज ने मुझे मेरी औकात की चूलें हिला दीं : आई लव यू नर्सों, तुम न होतीं तो अरूणा शानबाग को कौन बचाता : हर सुबह मेरे फोन पर बेहद खूबसूरत गुलदस्‍ता भेज देती हैं मेरी मित्र-नर्स : मैं तो हर महिला पर जान देने पर आमादा रहता हूं, दिल हथेली पर लेकर : काश, क्रूर-प्रशासनों की जुल्‍फी छील-मुड़ा कर उसे जन-हित तक सुधारने की तमीज होती :

कुमार सौवीर

लखनऊ : हालांकि अब इस बात का मुझे पता चल चुका है, लेकिन बहुत बचपन में महिलाओं के प्रति आकर्षण मुझे क्यों होता था, मैं नहीं जानता था। जो उम्रदराज थीं, उनके साथ तो स्नेह भाव रहता था। मसलन, नर्गिस, मीना कुमारी, वगैरह-वगैरह। लेकिन मेरी उम्र के दस-पांच साल के घेरे वाली महिलाएं मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। आज भी।

आपको एक खास बात बताऊं कि कई महिलाओं और खासकर फिल्मी अभिनेत्रियों की याद में तो रात-रात जागता रहता था। आज भी यह बीमारी ठीक नहीं हुई। किसी प्‍यारी महिला पर फोन पर ही दिल आ जाए, तो समझो मैं वन-वे पर अपनी ही गाड़ी चलाता रहता हूं। बपचन में ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाया, यकीनन, इसका खास कारण यही है। जया भादुड़ी से फिल्म गुड्डी मोहब्बत हो गयी थी। जी हां, मजाक नहीं कर रहा हूं। कई सालों तक मैं जया से शादी के सपने देखा करता। फिल्म कुली में जब अमिताभ बच्‍चन को चोट लगी, तो मैं हनुमान जी के मंदिर में चकाचक लड्डू चढ़ाने गया, कि:- हे हनुमान जी, अब तो माहौल माकूल है। निपटाय दो अमिताभ को। न जाने कब से मैं अपनी शादी के सपने देख रहा हूं।

लेकिन हनुमान जी तो लाल लंगोट वाले थे। वे लंगोट-प्रिय लोगों से ज्यादा प्रभावित होते थे। मैं भी उनका परम-शिष्य था। और जाहिर है कि हनुमान जी नहीं चाहता रहे होंगे कि कुमार सौवीर गलत रास्ते में चला जाए। जाहिर है कि उन्हें मेरी ख्वाहिश के बजाय अपनी पार्टी की आबादी बढ़ाने की ज्यादा चिंता थी। इसलिए उन्होंने लड्डू खा लिया, लेकिन मेरी मुराद खारिज कर दी। भाजपा वाले कल्याण सिंह की भाषा में कहें तो:- निक्षेप कर दिया।

खैर, मैं जब बहुत छोटा था, बहराइच की जरवल रोड चीनी मिल के अस्‍पताल में एक अंग्रेज नर्स थीं। कई बार बीमार होने पर मुझे उस अस्‍पताल में जाना पड़ा। डॉक्‍टर ने इंजेक्शन की कोशिश की, तो मैंने हाहाकार कर दिया। यह देख कर कद्दावर मेम-नर्स ने मुझे अपने से सीने से लिपटाया, पुचकारा कराया और फिर इसी बीच किसी ने मेरे पिछवाड़े में इंजेक्शन लगा ही दिया। लेकिन मैंने कोई भी ऐतराज नहीं किया। मैं उनकी गोद में छिपा ही रहा। हां, सुबुकता रहा। लेकिन इसके बाद से मुझे तो उनसे मोहब्‍बत हो ही गयी। मुझे अपनी मम्‍मी से ज्‍यादा प्रेम उन मेम-नर्स आंटी से हो गया। वैसे भी स्‍कूल तो मैं केवल औपचारिकता के लिए ही जाता ही था। दुनिया का सबसे वाहियात काम मुझे स्‍कूल जाना लगता था। नतीजा, मैं नर्स-आंटी के अक्‍सर पहुंचना लगा। हर बार वे मुझे कुछ न कुछ मीठी देती थीं, पुचकारती थीं और फिर हल्‍की झिड़की और चपत लगा कर बोलती थीं:- “चलो बच्‍चा लोग, भागो। जाओ स्‍कूल। वरना पिटाई होगी।

बस, फिर क्‍या। इसके बाद से ही तो मुझे नर्सों से मोहब्‍बत होनी शुरू हो गयी। कितना स्‍नेह उड़ेलती हैं नर्स। जिसे हम छूना भी पसंद नहीं करेंगे, वह भी बेहिचक कर लेती हैं। कराहते मरीज को बाहों से सहारा देकर दवा पिलाना, उनकी साफ-सफाई करना, उनसे लगातार बतियाते और मुस्‍कुराते हुए इठलाते चलना मुझे बहुत आकर्षक लगता है। मेरी मम्‍मी तो अपना व्‍ययाम के तौर पर अपना हाथ मेरी देह-यष्टि पर साफ कर लेती थीं, लेकिन किसी भी नर्स से मैंने कोई कड़वी बात नहीं सुनी। कभी झिड़की नहीं, न कोई आक्रोश। केवल मुस्‍कुराहट और सिर्फ मुस्‍कुराहट।”

फिर अपने व्‍यवहार और सेवा-सुश्रुषा से पूरी दुनिया के मरीजों को द्रवित कर देने वाली फ़्लोरेन्स नाइटिंगल को पढ़ा, तो नर्सों के प्रति मेरी श्रद्धा असीम हो गयी। वह महिला आधुनिक नर्सिग आन्दोलन का जन्मदाता थी और उसे “द लेडी विद द लैंप” (दीपक वाली महिला) के नाम से पूरी दुनिया में शोहरत मिली। जन्म एक समृद्ध और उच्चवर्गीय ब्रिटिश परिवार में हुआ था। लेकिन उच्च कुल में जन्मी फ्लोरेंस ने सेवा का मार्ग चुना। १८४५ में परिवार के तमाम विरोधों व क्रोध के पश्चात भी उन्होंने अभावग्रस्त लोगों की सेवा का व्रत लिया। दिसंबर १८४४ में उन्होंने चिकित्सा सुविधाओं को सुधारने बनाने का कार्यक्रम आरंभ किया था।

फ्लोरेंस का सबसे महत्वपूर्ण योगदान क्रीमिया के युद्ध में रहा। अक्टूबर १८५४ में उन्होंने ३८ स्त्रियों का एक दल घायलों की सेवा के लिए तुर्की भेजा। क्रीमिया के युद्ध के समय भी उनके नाम का डंका बज गया। इस समय किए गए उनके सेवा कार्यो के लिए ही उन्होंने लेडी विद द लैंप की उपाधि से सम्मानित किया गया। जब चिकित्सक चले जाते तब वह रात के गहन अंधेरे में मोमबत्ती जलाकर घायलों की सेवा के लिए उपस्थित हो जाती। लेकिन युद्ध में घायलों की सेवा सुश्रूषा के दौरान मिले गंभीर संक्रमण ने उन्हें जकड़ लिया था। १८५९ में फ्लोरेंस ने सेंट थॉमस अस्पताल में एक नाइटिंगेल प्रक्षिक्षण विद्यालय की स्थापना की। इसी बीच उन्होंने नोट्स ऑन नर्सिग पुस्तक लिखी। जीवन का बाकी समय उन्होंने नर्सिग के कार्य को बढ़ाने व इसे आधुनिक रूप देने में बिताया। सन-1869 में उन्हें ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने रॉयल रेड क्रॉस से सम्मानित किया। ९० वर्ष की आयु में १३ अगस्त, १९१० को उनका निधन हो गया।

हर नर्स ने मुझे बेहिसाब प्‍यार दिया है। चाहे वह मेरे ब्रेन-स्‍ट्रोक का मामला रहा हो, मेरे 11 हो चुके दुर्घटनाओं का मामला हो, या फिर मेरी बेटियों के जन्‍म का मौका हो। हर नर्स से मुझे दैवीय आश्‍वासन, स्‍नेह, प्‍यार, प्रेरणा, सांत्‍वना और मजबूती दी है। मैंने कई अस्‍पतालों में कई डॉक्‍टरों को नर्सों से अश्‍लील हंसी-मजाक करते देखा, लेकिन किसी भी नर्स ने उसका विरोध नाराजगी के तौर पर नहीं किया। लेकिन उसके फौरन उस हर नर्स के चेहरे पर विषाद की रेखाएं मुझे हमेशा दिखीं। मुझे साफ संदेश मिला कि:- चाहे कैसी भी हालत हो, मुस्‍कुराते ही रहो।

लेकिन जौनपुर के जिला अस्‍पताल के डॉक्‍टरों के बाथरूम में इस्‍तेमाल-शुदा कंडोम की खबर जब मैंने लिखी तो मुझे एक मित्र नर्स-अधिकारी ने बहुत हौले से झिड़क दिया। यह नर्स इस समय लखनऊ के एक बड़े अस्‍पताल में मैट्रन हैं। मेरी बातचीत फेसबुक से हुई, और मित्रता ह्वाट्सअप से। हर सुबह मेरे फोन पर वे फूलों का गुलदस्‍ता भेज देती हैं। हालचाल पूछती हैं, स्‍वास्‍थ्‍य और दवाओं की पूछताछ भी। नियम से, बिला-नागा।

लेकिन उन्‍होंने ऐतराज जता दिया कि कंडोम की घटना से तो लोगों को सीधे नर्सों के चरित्र पर ही शक होगा। क्‍या सोचेंगी वह नर्सें। आपकी मित्र भी तो एक महिला नर्स हैं, क्‍या आपने एक बार भी नहीं सोचा कि आपकी नर्स-मित्र के दिल पर कैसा धक्‍का लगेगा।

दोस्‍त, मैं माफी चाहता हूं। आपसे भी और पूरी दुनिया की नर्सों से भी हाथ जोड़ कर क्षमा चाहता हूं। मेरा आशय कभी भी नहीं रहा। आप लोगों के सीने से लिपट कर मैं बड़ा हुआ हूं, आप न होतीं तो मैं वे बेहद दर्दनाक इंजेक्शन कैसे सहन कर पाता, जिसे आज मैं हंसी से ही सहन लेता हूं। आपकी हंसी ही तो मेरी मजबूती बनाती रही है। जरा गौर से देखिये न, कि आज जो कुछ भी मेरे भीतर है, वह आपके दैवीय संयम, जिजीविषा, व्‍यवहार, आपकी मुस्‍कुराहट, प्रेरणा, साहस, स्‍नेह, आश्‍वासन की ही तो है। आप ही तो मेरी प्‍यारी फ़्लोरेन्स नाइटिंगल हैं जो कभी रोते मरीजों को हंसाती है तो कभी अरूणा शानबाग को जिन्‍दा रखती है। आप न हों तो इंसानियत ही खत्‍म हो जाए। फिर बचे सिर्फ रूदन-शोक।

लेकिन वह खबर लिखने का मेरा आशय आपके खिलाफ नहीं था, मैं तो डॉक्‍टरों की ओर उंगली उठा रहा था, जो अब जन्‍मजात बदतमीज और लुटेरे की शक्‍ल अख्तियार करते जा रहे हैं।

अरूणा शानबाग की दिल-दहला देने वाली कहानी कल सुनाऊंगा। फिलहाल तो आप उस खबर को बांच लीजिए, जिसको लेकर मेरी मित्र ने मेरी खाल खींच ली

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