एक डरावना सच, “मैं अखलाक को नहीं जानता?”

दोलत्ती

: दक्षिण एशियाई देशों में भयावह है बाल यौन-दुराचार : दिल्ली मेट्रो में मिली थी लाश : आत्महत्या का कारण है घटनाओं को देख, महसूस कर व्यवस्थित न कर पाना : जीभ-लिंग  5 :
कुमार सौवीर
लखनऊ : (गतांक से आगे)। मैं अखलाक को नहीं जानता था। बस फेसबुक पर ही परिचय था। पता चला कि वह जौनपुर का रहने वाला करीब 28 बरस का युवक है। शादी नहीं हुई थी। मां-पिता नहीं है। वह अपनी दादी के साथ ही रहता है। अखलाक वामपंथी विचारधारा का युवक था। जाहिर है कि अल्लाह से ही उसका रिश्ता था। ऐसे लोग आसमानी किताबों पर ज्यादा यकीन नहीं करते, सिर्फ तर्क और तथ्य का सहारा लेते हैं। बढिया लिखता था, तराने तो ज्यादा। टोन फिलॉसिफिकल हुआ करती थी।
एक दिन मैसेंजर पर उसने नमस्ते कर मेरा मोबाइल नम्बर मांग कर फोन किया। बोला कि उसे किसी पागलपन के अच्छे डॉक्टर से मिलना है, लेकिन ज्यादा खर्च कर पाने में असमर्थ है। मैं चौंक पड़ा। पूछा तो पता चला कि वह भारी मानसिक तनावों से जूझ रहा है। मैंने उसे आश्वस्त करके लखनऊ बुलवाया। अगले ही दिन वह मेरे घर पहुंच गया। उस समय मेरे मित्र प्रदीप दीक्षित भी मौजूद थे।
अखलाक हुसैन के साथ मेरी यह पहली मुलाकात थी। हवाई चप्पल, थोडा ऊंचा पयांचा वाली पैंट में पौन घुसी शर्ट। खूंटी जैसी दाढी और जुल्फी वाले बाल। मैंने पाया कि न तो मुझसे और न ही प्रदीप दीक्षित से, वह ज्यादा देर तक आंख में आंख डाल कर बात नहीं कर पा रहा था। खुद में ही घुलता जा रहा है। थोडी-थोडी देर में वह किसी ने किसी बहाने से आंख चुरा रहा था।
मैंने सुबह के करीब 11 बजे हम दोनों अखलाक को साथ लेकर हनीमैन होम्यो मेडिकल कालेज में मेडिसन विभाग के प्रोफेसर एसडी सिंह के पास लेकर पहुंचे। प्रो सिंह ने अखलाक को बगल के कमरे में बुलाया और एकांत में बातचीत की। मामला गंभीर जान कर प्रोफेसर सिंह ने आधा दर्जन डॉक्टरों की टीम बना कर उससे पूछताछ करायी। करीब सवा घंटा तक चेकअप सेशन चला, उसके बाद प्रो सिंह ने अखलाक के परचे पर कुछ दवाएं लिखीं। मुझसे हिदायत दी कि अखलाक को एकांत में नहीं रहना चाहिए। मैं अचरज में था, लेकिन मामला गंभीर समझ कर खामोश रह गया। थोडा ही सही, लेकिन मैं समझ गया था कि अखलाक का मामला बिलकुल निजी हादसे से जुडा हुआ है।
दवा की दूकान पर प्रदीप भी अखलाक के साथ गये। दवा लेने के बाद मैंने उसे रोकने की बहुत कोशिश की। दरअसल, मैं चाहता था कि कुछ दिनों तक दवा खाने के बाद जब उसका स्वास्थ्य कुछ संतुलित हो जाए, तब ही वह कहीं अकेले में रहे। लेकिन अखलाक ने मुझे बताया कि उसका दिल्ली जाना बहुत जरूरी है, जहां वह कोई काम खोजने की कोशिश में है। उसने बताया कि इस बारे में दिल्ली में लोगों ने उससे वायदा भी किया है। उसने मुझे आश्वस्त किया कि दो-चार दिनों बाद वह सीधे लखनऊ होकर ही जौनपुर जाएगा।
स्टेशन पर छोडने के बाद प्रदीप ने कार में मुझे बताया कि उन्होंने अखलाक का परचा देखा था और उसकी असल बीमारी उसके साथ हुए एक दुराचार की घटना को लेकर है। प्रदीप के इस खुलासे से मैं सन्न रह गया। मुझे लगा कि मुझे उसे तत्काल रोकना चाहिए। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। उसकी ट्रेन निकल चुकी थी, और उसका फोन भी आउट-आफ-रीच बताने लगा था। उधर अखलाक की जिद भी याद आ रही थी।
मैंने तय किया कि दो-चार दिनों में वह जब दिल्ली से लौटेगा, उससे बात करूंगा। मैं भी अकेला ही रहता हूं, अखलाक भी रहेगा तो कोई दिक्कत नहीं। सोचूंगा कि लखनऊ या जौनपुर में उसके रोजगार की क्या व्यवस्था हो सकती है। मुझे लगा कि अगर मुझे अखलाक को बचाना है तो यह दायित्व मुझे हर हाल में निभाना ही होगा। यह जरूरी भी था। वजह यह कि मैं खुद ही बचपन में ऐसे हादसे से दो-चार हो चुका हूं।
वाकया है कानपुर का। घर से मैं भाग गया था। बचपन में ही। सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर जीआरपी के लोगों ने उस ट्रेन से करीब 15 अन्य बच्चों को छलनी की तरह छान कर पकडा था। थाने पर ही हम को बिठाया गया। वायदा किया कि उनको रोजगार दिलाया जाएगा। सुबह शहर के होटल, ढाबे या चाय की दूकान चलाने वाले आये और उन्होंने हम सब को उनकी आवश्यकता के हिसाब से छांट लिया। हम सब को वायदा किया कि प्रति बच्चा पांच रूपये का वेतन मिलेगा। काम करना था ग्लास, बर्तन धोना और मेज कुर्सी के साथ ही होटल के आसपास झाडू, साफ-सफाई करना। कुछ महीनों के बाद मुझे होटल से भगा दिया गया। हम फिर स्टेशन पर पहुंचे। अगली सुबह फिर नौकरी मिली, फिर कुछ महीनों बाद फिर निकाले गये, फिर रेलवे स्टेशन, फिर, फिर। हर बार जीआरपी को एक बच्चा पांच रुपये मिलते थे। लेकिन हमारे साथ यह अंतहीन हादसे चलते ही रहे। केवल भोजन और बात-बात पर अपमान। करीब चार बरस यूं ही बीत गये। एक दिन मैंने कानपुर सेंट्रल घंटाघर के पास बने अन्नपूर्णा भोजनालय के मालिक से झंझट कर लिया। उसने धक्का दिया। रात ढाई बजे का वक्त था। सडक पर तन्दूर की राख पडी थी। उसी खासी गर्म राख पर मेरा दाहिना पैर पड़ कर बुरी तरह झुलस गया। यह किसी दिसम्बर या जनवरी के किसी कडाके की सर्दी का मौसम था। बदन पर केवल एक हाफ पैंट और फटी हुई शर्ट। सुबह तक मैं बुखार में तपने लगा। यही हालत अगले 11 दिनों तक चली। भूखा बच्चा बेहाल था। आखिर कब तक पानी पी-पी कर पेट की आग बुझाता। तब मैं करीब तेरह-चौदह बरस का था।
एक दिन एक व्यक्ति मेरे पास पहुंचा। उसने मेरी हालत देखी, तो द्रवित हो गया। मलहम और कुछ रोटियां और सूखी सब्जी खाने को लेकर आया। ऐसा दिव्य भोजन को तो कृष्ण को भी नहीं मिला होगा। अगले कुछ दिनों तक उसने मेरी काफी सेवा की। मेरा घाव भी सूखने लगा था।
उसने बताया कि वह पास के मोहल्ले में रहने वाला मुसलमान है और रिक्शा चलाता है। उसने प्रस्ताव दिया कि वह मुझे रिक्शा चलाना सिखायेगा। किराये में रिक्शा की गारंटी भी ले लेगा। बस किराया मुझे ही देना होगा। मैं सहमत हो गया। कम से कम कुछ पैसे तो हाथ में मिलेंगे। होटलों-ढाबों में तो वेतन सिर्फ आश्वासन के तौर पर ही मिलता है।
तीन दिनों में ही मैं रिक्शा चलाने लगा। हालांकि बदन काफी छोटा था लेकिन मेरे हौसले मजबूत थे। लोग मुझे देख कर रिक्शा पर चढने से बचते थे, लेकिन इसके बावजूद पहले ही दिन मैंने अपने भोजन लायक भर की कमाई कर ली।
रात विश्राम के लिए तो स्टेशन था ही था। कम से वह कुछ अपेक्षाकृत गर्म तो रहता था। लेकिन अगले कुछ महीनों बाद एक दिन वह रिक्शावाला मेरे पास आया। होटल में भोजन किया हम लोगों ने, फिर स्टेशन के बाहर पेड के नीचे बैठ गये।
इसके बाद सिर्फ इतना बता दूं कि अगले कुछ मिनट तक मैं दर्द से बेहाल हो गया और छटपटाने लगा। मेरी चिल्लाहट देकर रिक्शावाला भाग निकला। वह भयावह हादसा था, जिसने मुझे बुरी तरह हिला डाला।
लेकिन कुछ ही दिन बाद मैंने खुद को सम्भाला। तय किया कि वह अपना कामधाम बदलेगा। अब मैंने सेंट्रल बस अड्डे पर गन्तव्य की ओर जाने वाली तैयार बसों पर कंघी, हेयरबैंड, नेल-कटर, नेल-पालिश वगैरह बेचने का धंधा शुरू किया। फिर मूलगंज की थोक बाजार से सामान खरीद कर उसे लखनऊ की दूकानों में बेचने शुरू किया।
इस बीच मैंने खुद को काफी बदला। मैं अब अभिनय के क्षेत्र में ही आने लगा। मुझे नहीं पता था कि मैं सही कर रहा हूं, या गलत। लेकिन मैंने अपने जीवन को अपने मित्रों से खोलना शुरू किया। ऐसे मित्र हो मेरे जैसे हों, कुछ खुले-खुले पन के हामी हों। पहले तो उन्हें मेरी बातें बेहूदा, अवांछित और अश्लील लगीं, लेकिन कुछ ही वक्त बाद वे सहज हो गये। अब हम आपस में इस बारे में खुल कर बात करते थे। मुझे लगता है कि मेरा यह प्रयास ही सबसे बडी ओषधि बनी मेरे लिए। जल्दी ही मैं मान चुका कि खुली बात ही इसका निदान हो सकता है, जबकि अपने आप में घुट-घुट कर तो हम दर्दनाक मौत की अंधेरी गुफा में ही सरकने लगेंगे।
मैंने तय कि चाहे कुछ भी हो, अखलाक हुसैन को बचाना है। इसके लिए चाहे कुछ भी करना पडे। मेरे लिए वह एक विषय भी था, एक व्यक्ति भी था, और मेरे ध्येयों में से एक अहम होने के साथ ही मेरी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण मोड़ भी बन सकता है, जहां जिन्दगी को हम एक नयी सफलता तक पहुंच सकते हैं, अपनी जिन्दगी को सफल कर सकते हैं। मानव द्वारा मानव को नया जीवन दिलाने का महान दायित्व।
लेकिन उसके सातवें दिन ही अखलाक हुसैन की लाश दिल्ली के मेट्रो रेलवे स्टेशन के नीचे बरामद हुई।
पोस्टमार्टम में पता चला कि अखलाक ने आत्महत्या कर ली थी।
लेकिन मेरा मानना है कि अखलाक की मौत की वजह आत्महत्या नहीं थी, बल्कि उसकी मौत का मूल कारण था जिन्दगी में होने वाली घटनाओं को सही दिशा में देखने और उसे महसूस कर उसे व्यवस्थित करना। काश अगर अखलाक ऐसा कर पाता, तो वह भी हम सब के बीच हंसता-खिलखिलाता दीखता। (क्रमश:)

( पौराणिक गाथाएं को आप खारिज कर सकते हैं, लेकिन उसमें छिपे मर्म को कैसे छिपायेंगे, जो लोगों में साहस भरता है, जोश और स्फूर्ति देता है? शिव और दुर्वासा की कथा इसका सशक्त प्रमाण है। हमने इसी कथा को लेकर यह धारावाहिक श्रंखला बुनी है।
इसके माध्यम से आपके लिए हम एक नया प्रस्‍ताव लाये हैं। आप के जीवन में जो भी कोई खट्टी-कड़वी स्‍मृतियां आपको लगातार कचोटती जा रही हों, आप तत्‍काल उससे निजात हासिल कीजिए। खुद को कुरेदिये, उन घटनाओं को याद कीजिए और उनको सविस्‍तार लिख डालिये। उन घटनाओं को सीधे ईमेल पर भेज दीजिए या फिर वाट्सएप पर भेज दीजिए। आप अगर अपना नाम छपवाना नहीं चाहते हों, तो हमें बता दीजिए। हम आपकी हर याद को आपका जिक्र किये बिना ही प्रकाशित कर देंगे। और उसके साथ ही आपके दिल में छिपा गहरा अंधेरा अचानक समाप्‍त हो जाएगा, और पूरा दिल-दिमाग चमक पड़ेगा। यह लेख-श्रंखला अब रोजाना प्रकाशित होगी। कोशिश कीजिए कि आप भी इस श्रंखला का हिस्‍सा बन जाएं।
हमारा ईमेल है kumarsauvir@gmail.com, आप हमें 9453029126 पर वाट्सएप कर सकते हैं। संपादक: कुमार सौवीर)

इस धारावाहिक लेख श्रंखला की पिछली कडियों को पढने में अगर इच्छुक हों, तो उसके शीर्षक पर क्लिक कीजिए

3 thoughts on “एक डरावना सच, “मैं अखलाक को नहीं जानता?”

  1. बड़ी ही भयावह मार्मिक और दिल को छू लेने वाली दास्तां जिसे पढ़कर आंखों में छुपी धार खुद ब खुद ही निकल पड़ी भाई!!!
    सचमुच आपके जैसा कोई नहीं मिला ।
    संजय आजाद यूं ही थोड़े डंके की चोट पर खुलेआम लिखता है अपने बड़े भईया को वीरों के वीर मतलब आदरणीय भईया कुमार सौवीर !!!
    बेशक निःसंदेह पुख्ता तौर पर …आपके भीतर सौ वीरों की ताकत है।
    जय हिन्द!
    🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌺🌺🌺🌺🌹🌹🌹🌹

  2. सभ्य समाज की असभ्य कृत्यों को परत-दर -परत उकेरती ये आपका रिपोर्ताज़ अंदर तक बेध गया,हिलोर मारने लगा अन्तः मन।”मैं अखलाक को….…..”के माध्यम से आपने समाज की कलुषित मानसिकता का मनोवैज्ञानिक सच उघाड़कर रख दिया है।अखलाक के बहाने आपने बचपन की विद्रूप घटना को स्व संज्ञान में लाकर ढके हुए व लज्जावश स्वीकार न करने वालों को स्पष्तः बताने की सफल कोशिश की है कि आप अवसाद न पालिये,यदि इस प्रकार की कोई घटना घटी हो तो अपने विवेक व साहस को प्रबल रखते हुए उन झंझावतों से मुकाबला करते हुए जीवन के निरंतर पथ पर चलायमान रहिये।काश!अख़लाक़ दिल्ली जाने से पूर्व आपके सानिध्य को कुछ दिन और पता तो इस कायनात में जीवंत रहता।।।
    आपकी लेखनी,सोच व जीवटता को सैलूट।।।।।प्रणाम।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *