कोई पंडिताइन, ठकुराइन, लालाइन लाओ, तो मजा आये: इस दलित अफसर ने कहा

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आम्बेदकर आंदोलन के नाम पर चलते दलित विकास की असलियत : दलितों को एक औरत सिर्फ प्रयोगशाला में फडफड़ाती गिनीपिग लगती है : तुम्हारे परिवार में यही बात करो, तो महिलायें तुम्हारी लीद निकाल देंगी :

कुमार सौवीर

लखनऊ: जो मेरी बात नहीं मानना चाहते हैं, वे बा-खुशी इस पोस्ट पर अपना दीदा मत फोड़ा करें। आंख और दिमाग ही नहीं, आपका दिल भी चकनाचूर हो जाएगा। बात हो रही है औरत के बारे में मर्दों के नजरिये पर। कभी कोई अपनी राजनी‍तिक रोटियां सेंकने के लिए औरत को चूल्हा बनाये हुए है तो कोई अपनी भड़ास  के लिए। किसी को जातिगत खुन्नस निकालनी है तो उसके लिए दीगर जाति की औरत को खोज रहा है, तो कोई अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए। 

कर लो, खूब कर लो। लेकिन यह तो बताओ कि तुम्हारी नजर में औरत सिर्फ एक प्रयोगशाला में फड़फड़ाती गिनीपिग मात्र है? जिसे तुम जब चाहोगे, जैसा चाहोगे, जहां चाहोगे, कैसे भी चाहोगे, अपने राजनीतिक, सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक, वैचारिक रिक-रिक-रिक-रिक प्रयोगों-मकसदों के लिए इस्तेमाल कर लोगे। आपका मकसद पूरा हो  जाए। भले अब वह गिनीपिग अपाहिज हो जाए या फिर मर जाए। तुम्हें क्या लेना-देना।

शर्मनाक।

मैं राजस्थान‍ से लेकर बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तगर प्रदेश में रहा हूं। जहां भी रहा, बड़ा कन्फ्यूजन फैला रहता है मुझ को लेकर। चूं‍कि मैंने पहले से  ही  अपना कुल-नाम त्याग रखा है, इसलिए मेरे ज्यादातर दलित परिचित-मित्र मुझे दलित ही मानते हैं। इसी के चलते उनका अजीब सा तर्क होता है:- कि यह तो शक्ल से ही दलित लगता है।

एक परिचित पत्रकार जब मुझसे नाराज हुए  तो मेरे  बारे में अपनी घृणा इस तरह बयान किया कि:- अरे यह साला पत्रकर कहां, तो बस का कण्डरक्ट र लगता है। अब मेरी समझ में नहीं आता है कि कहां मैं अपनी जाति का आदमी, जिसे लोग दलित मानते हैं, लेकिन यह बस का कण्डक्टर वाला ओहदा कैसे और किस आधार पर मुझ पर‍ थोपा जा रहा है।

अभी कोई 25 साल पहले की बात हुआ करती थी। नगर विकास विभाग के सचिव हुआ करते थे पीएल पुनिया। आजकल वे राज्यसभा की सदस्यी पर जमे हैं। अनुसूचित जनजाति आयाग के अध्यक्ष का पद भी सम्भाल चुके हैं। दलितों नेताओं की झंडाबर्दारी भी थामे हैं।

उन्हें के एक संयुक्त् सचिव हुआ करते थे उमेश चंद्र किरन। दलित जाति के थे और पुनिया के बेहद करीबी भी। बेहद मजाकिया, खुशमिजाज, पैसा दांत से पकड़ते थे और बिना पैसा लिये कोई काम नहीं करते थे। अपने घर कभी भी पार्टी नहीं कराते थे, लेकिन दूसरे के लिए यहां लपक कर जाते थे। सरल भी काफी थे। मिलनसार।

एक बार निरालानगर वाले एक अरूण कुमार श्रीवास्तव ने उन्हें  दावत दी। उस दौर में वे नगर महापालिका के अधिशासी अधिकारी थे। उनका एक काम फंसा था, सो निकालने के लिए उन्होंने पार्टी दे दी। श्रीवास्तव जी मुझे और किरन जी से समान रूप से औपचारिक सम्बन्ध रखते थे। सो, मैं भी आ गया। किरन के साथ उनके दो चेले भी आये। खूब खाया किरन जी, कबाब से लेकर रान तक सब उदरस्थ किया। पूरी पौन बोतल दारू से आचमन करते रहे। आखिर बोले:- यार कभी गरम  ब्यौबस्था भी किया करो।

मेजबानी में लगे एक आदमी ने पूरे अदब के साथ पूछा:- अब कैसी व्यवस्था किरन जी ?

किरन जी ने जवाब दिया:- अरे, ऐसा तो हल्का-फुल्का अधूरा लगता है।

मैं सनक गया था। दिमाग भन्नाय रहा था। सो भड़क कर कह ही दिया:- कैसा अधूरा? चांप कर तो भोजन उड़ेल चुके हो किरण जी आप। अब काहे की कमी?

शराब के साथ शबाब भी होनी चाहिए। कोई ठाकुराइन, पडिताइन या लालाइन मिल जाए, तो मजा ही और हो जाता। :- ठांस कर पी चुके किरन लहराते हुए बोले।

यह बेशर्मी की पराकाष्ठा थी। खून खौल गया था मेरा। कोई दूसरी जगह होती तो मैं उन किरण को सूर्यास्त बना डालता। लेकिन चूंकि मैं दोनों का ही मित्र था इस लिए खुद ही मेहमान की भूमिका में था, लिए लिए मैंने तमक कर जवाब दिया:- किरन जी, या तो नौकरी कर लो या फिर यह भडैंती। दोनों काम एकसाथ करोगे तो टांग बीच से फट जाएगी।

मेरे बोलते ही पहले तो किरन भौंचक्का रह गये, फिर माहौल को दुरूस्त करने की गरज से पूरी बेशर्मी के साथ हो हो हो हो करने लगे। बोले:- मैं तो मजाक कर रहा था। और आप है कि सीरियस हो गये।

मैंने फिर जवाब दिया:- किरन जी, अगर आप अपने घर-परिवार में भी ऐसा प्रस्ताव रखोगे, तो तुम्हारे परिवार की पुरूषों-महिलायें तक आपका अंजाम लीद निकालने तक बेहद खतरनाक साबित कर देंगे।

हद है यार। चाहे किसी भी जाति की औरत हो, उसे आप जैसे पुरूष की नीयति और उससे निपटने का अंदाज खूब पता है। और इसके बाद मैं पूरी रात भर यही सोचता रहा कि ऐसे अहम ओहदों तक पहुच जाने के बावजूद ऐसे लोग अपने समाज के उन्नति के प्रयास करने के बजाय इतनी घृणित नीचता पर क्यों आमादा होते रहते हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि दलित आन्दोलन के ऐसे नेता-कार्यकर्ता दलित-विमर्श की सर्वोच्च प्राथमिकता किसी सवर्ण महिला को बिस्तर पर लाने को ही अपनी विजय-श्री मानते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *