बहंगी लचकत जाए’

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’

‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मे़ड़राय: काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’ : सेविले चरन तोहार हे छठी मइया। महिमा तोहर अपार। : उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर। : निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे। :चार कोना के पोखरवा :हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी।
रेल के डब्बों में भूसे की तरह ठुंसे लोगों का रेला बता रहा है कि छठ मैया की याद फिर घुमड-घुमड कर लोगों को अपने घर खींच कर लाने पर मजबूर कर रही है। बिदेश जा बसे लोग भी अब बिदेसी चोला उतार कर अपने दुआरे दिखने लगे हैं। अकेले बिहार, झारखण्ड और यूपी का उत्तरांचल ही नहीं, बल्कि लखनउ, दिल्ली, मुम्बई, पंजाब और कलकत्ता जैसे इलाकों में भी छठ गीतों की धूम शुरू हो चुकी है। चाहे वह ‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मे़ड़राय, काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’, सेविले चरन तोहार हे छठी मइया। महिमा तोहर अपार हो अथवा उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर, निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे जैसे गीत, हर एक की जुबान पर चढ चुके हैं। आइये, इस मौके पर ली जाए कुछ खास जानकारियां।

सूर्य षष्ठी यानी छठ पर्व को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। इस बार यह तिथि 11 नवंबर को आ रही है। हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं, जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं। सूर्य षष्ठी के महत्त्व को देखते हुए इस पर्व को छठ या डाला छठ के नाम से संबोधित किया जाता है। घर-परिवार की सुख-समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की सलामती की दुआ मांगती हैं।
छठ पर्व की सांस्कृतिक परंपरा में चार दिनों के व्रत रखे जाते हैं। ये व्रत भैया दूज के तीसरे दिन यानी शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ हो जाते है। व्रत के पहले दिन को नहाखा कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है स्नान के बाद खाना। इस दिन पवित्र नदी में श्रद्धालु स्नान करते हैं और पवित्र नदी के पानी से पूरे घर को शुद्ध करते हैं। इस व्रत में शाम को ही कद्दू की सब्जी के साथ शुद्ध भोजन ग्रहण करना पड़ता है। दूसरा दिन खरना कहलाता है, जो पंचमी के दिन पड़ता है। इस दिन भी छठ पूजा करने वाली महिलाएं पूरे दिन उपवास रखती हैं और सूर्यास्त के बाद ही भोजन ग्रहण करती हैं। इस दिन का मुख्य भोजन चावल की खीर होती है। इसके बाद अगले 36 घंटों तक निर्जल रहना पड़ता है। तीसरे दिन छठ पूजा होती है, जब सायंकाल के समय डूबते सूरज को चलते पानी में अघ्र्य दिया जाता है। चौथे दिन को परना यानी विहान अघ्र्य कहते हैं। इस दिन प्रात:काल उगते हुए सूरज को अर्घ्य देने के लिए सभी लोग फिर से नदी तट पर एकत्रित होते हैं।
उत्सव का स्वरूप:छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
नहाय खाय: पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
लोहंडा और खरना:दूसरे दिन कार्तीक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
संध्या अर्घ्य:तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
उषा अर्घ्य: चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।
व्रत :छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।’
ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं। किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।
सूर्य पूजा का संदर्भ:छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।
सूर्योपासना की परंपरा:भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है।
देवता के रूप में:सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंभ हो गई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है।
मानवीय रूप की कल्पना:उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए।
आरोग्य देवता के रूप में:पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसंधान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। संभवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।
पौराणिक और लोक कथाएँ:छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
रामायण से:एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा।
महाभारत से:एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।
पुराणों से:एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
सामाजिक/सांस्कृतिक महत्व
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचौंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरि, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गई उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रंथ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थअना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के साथकी जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाइ, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबंधन, तालाव या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा भाव और भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।
छठ गीत
लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय अनेकों सुमधुर और भक्ति भाव से पूर्ण लोकगीत गाए जाते हैं।
‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मे़ड़राय
काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’
सेविले चरन तोहार हे छठी मइया। महिमा तोहर अपार।
उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर।
निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे।
चार कोना के पोखरवा
हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी।
तिथि: छठ पूजा के काल में घाटदीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है। इन चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्षभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते हैं। चार दिनों के इस पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की जाती है।
छठ के लिए विशेष है देव का सूर्य मंदिर पटना। लोक आस्था के महापर्व छठ का हिंदू धर्म में अलग महत्व है। यह एकमात्र ऎसा पर्व है जिसमें ना केवल उदयाचल सूर्य की पूजा की जाती है बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य को भी पूजा जाता है। छठ पूजा के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित ऎतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर पहुंचते हैं। यह मंदिर सदियों से देशी-विदेशी पर्यटकों, करो़डों श्रद्धालुओं और छठ व्रतियों की अटूट आस्था का केंद्र रहा है। मंदिर की अद्भुत स्थापत्य कला, कलात्मक भव्यता के कारण किंवदंति है। ऎसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों से एक रात में किया था। इस मंदिर के निर्माण काल के विषय में सही जानकारी किसी के पास नहीं है। मंदिर के बाहर लगे शिलापट्ट पर ब्र±मी लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक के मुताबिक 12 लाख 16 हजार वर्ष के त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूलवा ऎल ने इस देव सूर्य मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया था। शिला लेख से स्पष्ट होता है कि इस मंदिर के निर्माण काल का एक लाख 50 हजार 10 वर्ष हो चुके हैं। देश के एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:), मध्याचल (दोपहर) और अस्ताचल (अस्त होते) के रूप में विद्यमान है। जिस तरह उ़डीसा राज्य के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव का प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है। करीब 100 फुट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार वर्गाकार आदि कई रूपों में पत्थरों को काटकर किया गया है। इस मंदिर के सबसे ऊपर सोने का एक कलश है। किवंदती है कि काफी प्राचीन समय में इस सोने के कलश को कोई चोर चुराने गया था तो वह वहीं चिपककर रह गया। प्रतिवर्ष चैत्र तथा कार्तिक में होने वाले छठ पर्व में यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने के लिए जुटते हैं। मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक ने आईएएनएस को बताया कि इस मंदिर के निर्माण का ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता है परंतु सूर्य पुराण के अनुसार ऎल एक राजा थे जो किसी ऋषि के शाप के चलते कुष्ठ से पीç़डत थे। वह एक बार शिकार करते हुए देव के वनप्रांत में पहुंचे और रास्ता भटक गए। इस दौरान उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। उन्होंनवहां एक छोटा सरोवर देख पानी पीया और उनका कुष्ठ ठीक हो गया। आज भी वह सरोवर वहां मौजूद है, जहां लोग नहाने आते हैं। उन्होंने बताया कि ऎसे तो प्रत्येक दिन यहां हजारों लोग पूजा के लिए आते हैं परंतु छठ के दौरान यहां लाखों में भी़ड जुटती है। 
(साभारः विकीपीडिया और खासखबर आदि पोर्टल)

 

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