बुंदेलखंड में पुलिस की ऊपरी मंजिल खाली, कुछ समझना ही नहीं चाहती

बिटिया खबर
: आधा सैकड़ा नवजवानों के खिलाफ पुलिस ने आपराधिक धाराओं में मुकदमा दर्ज कर उन्‍हें अदालत हाजिर होने का हुक्‍म दिया :  यही है असली जनसंघर्ष : बुंदेलखंड को आज भी आजादी का इन्तज़ार

अंचल द्विवेदी
बुंदेलखंड : राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर अतिक्रमण के चलते आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। इसके चलते यहां की बस्तियों में अक्‍सर भयावह दुर्घटनाएं होती रहती हैं। मगर जब इस समस्‍या के चलते त्रस्‍त लोग स्‍थानीय नागरिक विरोध पर उतर पड़ते हैं तो प्रशासन और पुलिस के अफसर उनका दमन करने पर जुट जाते हैं। हाल ही यहां के करीब आधा सैकड़ा नवजवानों के खिलाफ पुलिस ने आपराधिक धाराओं में मुकदमा दर्ज कर उन्‍हें अदालत हाजिर होने का हुक्‍म दिया है।
मगर एक न्‍यायाधीश अंचल द्विवेदी इस मामले पर सीधे भिड़ गये। उन्‍होंने पुलिस और प्रशासन के अफसरों को वह डांट पिलाई कि अफसरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। उन्‍होंने खरी खरी सुनाते हुए कड़े शब्‍दों में इस बात का विरोध किया कि एक कानून की गलत व्‍याख्‍याएं पेश कर प्रशासन और पुलिस केवल अपनी खानापूर्ति ही करती है। और नौजवानों को कानून की आड़ में परेशान करने पर आमादा है। इससे समस्‍या का समाधान तो नहीं हो सकता, लेकिन हालत भयावह जरूर हो सकती है।
अंचल कहते हैं कि देश तो आजाद हो गया था 1947 में ही परन्तु हम अभी भी आजाद नहीं हो पाये । गुलामी रोटी की ,गुलामी अशिक्षा की ,गुलामी इन खनन मफियाओ की, गुलामी अज्ञानता की ,गुलामी धर्म और जाति की ओछी मानसिकता की। और इन सब गुलामी के कारण ही कभी विभिन्न प्रकार के माफिया और कभी स्वयं राज्य(सरकार)भी माफिया की तरह व्यवहार करती है।
आज इसी बावत मैने पुलिस को चेतावनी दी थी। क्योँकि मेरा मानना है कि पुलिस अराजक तत्वों की गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने के लिए है न कि तानाशाही और कानून का भय दिखाकर व्यवस्था की कमियों के प्रति उभरे जनाक्रोश को बलपूर्वक दबाने के लिए। पुलिस की ऐसी मानसिकता तो उपनिवेश काल में ब्रिटिश शासन के हितों की रक्षा के लिए उपयुक्त थी ,यदि स्वतंत्र भारत में भी पुलिस की ऐसी ही मानसिकता बनी रहती है तो हम सब को पुनः आज़ादी के असली मायनों पर विचार करना होगा। क्या आज़ादी के यही मायने हैं कि गोरे साहब की जगह भूरे साहब आकर सत्ता में बैठ जाय जो कहने को तो भारतीय हैं पर जिनकी मानसिकता पूरी तरह ब्रिटिशकाल की है जो अपने को जनता का सेवक नहीं स्वामी समझते हैं।
प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि मैं प्रधानसेवक हूँ तो क्या वह पूरी तरह ढकोसला है क्योंकि उनके ही अधीनस्थ लोग अपने को जनता का अधिनायक मान कर बैठे हैं,जिनके आचरण और कार्यो में सत्ता का अहंकार झलकता है। कल्याणकारी शासन की अवधारणा में जनता के प्रति ऐसे कल्याणकारी कार्यो की रूपरेखा बनाई जाती है जहाँ जनता के मन में अपने शासन के प्रति न केवल प्रेम और आदर का भाव वरन ऐसा विश्वास भी हो जहाँ यह न प्रतीत हो कि शासक और शासित अलग अलग वर्ग से आये लोग हैं क्योंकि लोकतंत्र की मूलभूत परिभाषा ही यही है कि यह लोगों का शासन लोगों के लिए ही और लोगों के द्वारा ही बनाया हुआ है।
यदि ऐसा नही होता है तो सही मायनों में लोग आज भी गुलाम हैं,जहाँ शासकों के सिर्फ चेहरे बदले हैं उनकी मानसिकता नहीं। बुंदेलखंड के लिए ये सारे प्रसंग और अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि हमारे यहाँ अशिक्षा और स्वार्थ लोगों पर इस कद्र हावी है कि लोग न अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हैं न अधिकारों के प्रति फलस्वरुप जीवन के हर क्षेत्र में वे अभी भी असली आज़ादी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह कार्य कठिन अवश्य है ,असम्भव नहीं और इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर प्रयास करना होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *