आम आदमी बेफिक्र। हवाला, मॉल, रिश्‍वत, प्रॉपर्टी और चुनाव, सब के सब मुंह के बल धड़ाम

मेरा कोना

: जो खाये-पिये और अघाते लोग हैं और अपनी कई पीढि़यां ऐश्‍वर्य से सानने पर आमादा हैं, वही नोट-बंदी पर कर रहे हैं चिल्‍ल-पों : आम आदमी को अगर हल्‍की दिक्‍कत है, पर अमीर आदमी पर पहाड़ टूटा पड़ रहा है : कचरा कलंक नोट गाथा – तीन :

कुमार सौवीर

लखनऊ : एक बड़े वर्ग के लोगों और संस्‍थाओं की ऑक्‍सीजन हुआ करते थे वह सुनहले-रूपहले नोट, वे नोट अब महज रद्दी दुकड़े या फिर किसी बदबूदार कार्बन-डयऑक्‍साइड की तरह संड़ाध मार रहे हैं। इन्‍हीं नोटों के लिए लोग मारा-मारी, उगाही, कमीशनखोरी, घूस-रिश्‍वत, चोरी, अपहरण किया करते थे, वही करार नोट रातोंरात घृणा के पात्र बन चुके हैं। अभी कल शाम तक यही नोट किसी भी शख्‍स की सम्‍पन्‍नता और ऐश्‍वर्य का प्रतीक बना करते थे, आज अचानक वे उपहास के पात्र बन चुके हैं। इन्‍हीं की बदौलत में बाजारों में रौनक हुआ करती थी, वही बाजार अब इनसे मुंह मोड़ चुके हैं। हालत यह है कि कल तक इन्‍हें गिनते वक्‍त आपकी उंगलियां बार-बार आपकी जीभ से निकलते थूक की तरह लपलपाती दिखती थीं, आज वे फिस्‍स्‍स या खिल्‍लल की तरह हंसी की आवाजें निकालती हैं। अब यह नोट की हालत ठीक उसी तरह है, मानो किसी आत्‍मीय की लाश, जिसका अन्तिम-संस्‍कार अब अनिवार्य आवश्‍यकता है, लेकिन बार-बार पछाड़ और दहाड़ें मार कर हम उसे अपनी बाहों से छोड़ना ही नहीं चाहते।

पांच सौ और हजार रूपयों के नोटों को बन्‍द कर देना यकीनन एक क्रान्तिकारी कदम है। लेकिन इस पर चिल्‍ल-पों खूब हो रही है। वजह यह कि इसे भूखे-नंगे होकर भी संतुष्‍ट लोग बनाम खाये, पिये और अघाये लोगों का विरोधाभास है। जिन्‍हें दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए पूरी जिन्‍दगी खटते जा रहते हैं, उन्‍हें  इस पर कोई भी फर्क नहीं पड़ता है कि उन्‍हें पांच सौ हजार का कोई नोट बंद हुआ या फिर दो हजार का एक नोट जारी हुआ है। दरअसल इनमें से अधिकतर ने हजार या दो हजारी नोट देखा तक नहीं होगा। देखा भी होगा, तो उन्‍हें छूने-टटोलने का मौका तक उन्‍हें उनकी जिन्‍दगी ने अता नहीं फरमाया होगा।

उन लोगों को भी इससे फर्क नहीं पड़ेगा, जिनकी आय बेहद सीमित है। मसलन गांव के सम्‍पन्‍न किसान, छोटे बनिया-लाला, परचूनिये, ठेला-फेरीवाले। इतना ही नहीं, निजी क्षेत्र या सरकारी विभाग-निगमों में छोटे पदों पर काम करने वालों पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भले ही उनके घर में पांच सौ या हजार के दस-बीस नोट रखे  ही क्‍यों न हों, लेकिन कोई किल्‍लत नहीं होगी। वजह यह कि हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है कि हम एक-दूसरे सम-आय वालों से परस्‍पर रिश्‍ते बनाये रखते हैं। उधारी इस आयवर्ग का सबसा बड़ा सम्‍बल होता है। जिनके पास बाइक या छोटी-मोटी कारें हैं, उन्‍हें भी कोई दिक्‍कत नहीं होगी। क्‍यों कि वे नोट न होने पर एटीएम से भुगतान कर देंगे।

लेकिन चिल्‍ल-पों वही कर रहे हैं, जिन्‍हें आम आदमी के खून को पीने का चस्‍का लग चुका है। उन्‍हें मॉल में अय्याशी करनी है, उन्‍हें दिक्‍कत हो जाएगी। होटलों में ऐयाशी करने वालों को दिक्‍कत हो जाएगी। ब्रांडेड माल लेने-देने वालों को दिक्‍कत हो जाएगी। निर्माण या सप्‍लाई के धंधे में जो लोग या उनकी कम्‍पनियां लगी हुई हैं, उनका धंधा चरमरा जाएगा। उनका तो पूरा का पूरा धंधा ही कमीशन देने पर टिका हुआ रहता है। अब वे कहां से घूस की रकम जुटायेंगे, और फिर ऐसी हालत में कैसे घूस देंगे और फिर कैसे काम हासिल करेंगे। घूस की रकम लेना जो लोग अपना संवैधानिक अधिकार समझे बैठे थे, वे इस रकम का क्‍या करेंगे। कहां दिखायेंगे यह रकम।

प्रापर्टी में अब इनवेस्‍ट कर पाना अब मुमकिन नहीं होगा। क्‍योंकि इसमें जितनी ब्लैक मनी की जरूरत होती है, वह तो पूरी तरह कल शाम से रद्दी बन चुकी है। बैंक में इतनी नकदी तो है नहीं, और जो है भी वह केवल ह्वाइट मनी ही है। जाहिर है कि इसके बाद अगर कोई डील होती है तो फिर उस पर टैक्‍स इम्‍पोज होगा। जो हवाला से रकम देते-लेते हैं, प्रॉपर्टी में पैसा लगाते हैं, सहारा इंडिया जैसे घोषित फ्राडिया कम्‍पनियों में भारी निवेश किये हुए हैं, उनका तो पूरा का पूरा धंधा ही डूब गया। अकेले लखनऊ के चौक में ही सैकडों ऐसे हवाला-धंधेबाज हैं, जिनमें से एक-एक में सैकड़ों अरब की नकदी भरी-अटी हुई है, वह सारी की सारी रकम अब डूब चुकी है।

चुनाव का मतलब ही यही है कि हराम की रकम यानी ब्‍लैक मनी को इनवेस्‍ट कर दिया जाए, ऐसे लोग अब इस रकम का जुगाड़ कैसे कर पायेंगे। कहां से नकदी मिल पायेगी इन लोगों को। क्‍यों कि मौजूदा जो नकदी उनके पास भरी पड़ी थी, वह तो अब रद्दी बन चुकी है। फिर क्‍या होगा। कैसे चुनाव लड़ पायेंगे यह धंधेबाज नेता। कैसे जुटायेगी प्रचार सामग्री, कहां से दिखाया जाएगा कि कितने में यह खर्चा हुआ। ब्‍लैकमनी तो कोई लेगा नहीं, और जो है भी वह रद्दी बन चुका है। नई करेंसी इतनी जल्‍दी और इतनी सहजता से मिल पाने से मुमकिन नहीं।

इस नोट-बंदी पर हल्‍ला वह लोग मचा रहे हैं, जिनके खून में आलीशान पार्टियां लेने-देने की जीवन-शैली घुली-बसी हुई है। जाहिर है कि यह लोग अपने ऐसे दैनिक महोत्‍सव अपनी मेहनत की कमाई से नहीं, बल्कि हराम की रकम से ही करते हैं। चकाचौंध शादियां इसी जीवन शैली की अंतरंग सहेलियां हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन शादियों में कितना खर्चा होता है। जाहिर है कि ऐसी नोट-बंदी से ऐसे लोगों को चक्‍कर-गश आ जाएगा। वे सहन नहीं पायेंगे यह नोट-बंदी। इसीलिए वह लोग चिल्‍ल-पों कर रहे हैं। वरना आम आदमी तो शादी करता-कराता है, लेकिन हल्‍ला-दंगा नहीं करता। वह अपनी मेहनत को आंकता है, और चिल्‍ल-पों करने वाले लोग अपनी हराम की कमाई लुटाने पर लगने वाली पाबंदियों पर चिल्‍ल-पों कर रहे हैं।

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