न दलाली करता हूं, न उगाही। मैं खरी बात करता हूं, सौ बार गरज हो तो मुझे भिक्षा दो

मेरा कोना

: जिस शैली की पत्रकारिता और उसके मूल्‍य पर मैं काम करता हूं, आपका सहयोग जरूरी है : मुकदमे, खतरे, धमकियां, जरा आप मदद कीजिए : वरना इसके बाद हमेशा-हमेशा के लिए समाप्‍त हो जाएगी पत्रकारिता की यह धार : यह मत भूलिएगा कि यह लड़ाई आपकी है, जिसका उत्‍तरदायित्‍व मुुझ पर है :

कुमार सौवीर

लखनऊ : यह एक लुप्‍तप्राय विधा है, इंसान को जीवन्‍त बनाने और इंसान को इंसानियत की आक्‍सीजन देने वाली विधा। जहां इंसान अपनी बात कहता है, जिसे सुना जाता है और जिसका समाधान खोजने की कोशिश की जाती है। यह है सच का सच कहने का साहस करने वाली विधा। यानी पत्रकारिता।

अब यह मत कहियेगा कि पत्रकारिता अब कहां है

मैं भी खूब देखता हूं, खूब जानता हूं और खूब समझता हूं कि इस दौर में हमारे आसपास पत्रकारिता की कोई भी सुगन्धि-गमक नहीं है, जो किसी भी व्‍यक्ति को जीवन्‍त कर सके। सच कह सके, बोल सके, लिख सके और अपनी बात पर फालोअप भी कर सके। हम समाचारकर्मी हैं, लेकिन वाकई हम समाचारकर्मी के बजाय दलाल-कर्मी हैं, किसी सड़कछाप गुंडे की तरह की विज्ञापन के लिए अफसरों को धमकाते हैं या फिर किसी दारोगा, तहसीलदार, क्‍लर्क, ठेकेदार, दूकानदार, कोटेदार से उगाही करने के लिए गली-गली में छाये रहते हैं। खबर छाप दूंगा, की धमकी देकर हम अपना रूतबा गालिब करते रहते हैं। मकसद सिर्फ यही कि पैसा। खबर हमारी प्राथमिकता तो दूर, अन्तिम पायदान तक भी नहीं है। ऐसे में हम उस पत्रकारिता को तोप कैसे कह सकते हैं।

लेकिन सारे पत्रकार ऐसे ही हों, ऐसा हर्गिज नहीं है। पूरी धरा ही वीरों से चुक गयी हो, सारी जुबान अब काट दी जा चुकी हो, सारे कान बहरे हो चुके हों, सारी कलम की स्‍याही सूख चुकी हो, सारे हृदय हृदयहीन हो चुके हों, मस्तिष्‍क पर सन्निपात हो चुका हो, सारे वीरों के पैर घुटने से दो इंच तराश किये जा चुके हों, ऐसा भी नहीं है।

आज भी ऐसे अनेक लोग हैं जो पत्रकारिता के लिए ही जन्‍मे हैं और उसी के लिए जूझ रहे हैं। उनकी ख्‍वाहिशें ऐसी हैं कि उनका अन्‍त भी एक साहसी, जुझारू, बेबाक, बेधडक, स्‍पष्‍टवक्‍ता, जन-प्रतिबद्ध और संघर्षशाली पत्रकार के तौर पर हो। वे हमेशा ही अपना सीना ताने रहते हैं, हर भय से निडर, हर दबाव से असंपृक्‍त, हर लालच से परे।

ऐसे में कई तो ऐसे हैं जिन्‍हें इस बात का लेशमात्र भी भय नहीं है कि कल उनका क्‍या होगा। आप मुझे ही देख लीजिए। अपने पूरे पत्रकारिता जीवन में मैंने जितनी नौकरी की, उसके बराबर बेराजगारी भी झेली। दो जून-1982 को साप्‍ताहिक सहारा में नौकरी शुरू की, तो मई-1985 में बेरोजगार हो गया। फिर एक महीना बाद टाइम्‍स के सांध्‍य समाचार सेवा में रिपोर्टर रहा, उसके बाद दैनिक जागरण में रहा। मगर 3 जून- 1992 को वहां की नौकरी भी छोड़ी। कारण था कि सम्‍पादक मुझसे मेरे तेवरों को सहन नहीं कर पा रहे थे। मुझ पर आरोप लगाये और तबादले पर बरेली जाने का आदेश दिया गया। मगर आरोपों का जवाब देने के लिए मैंने बरेली जाने का प्रस्‍ताव खारिज कर दिया। फिर उच्‍च शिक्षा आदि अनेक सरकारी-गैर सरकारी विभागों में पत्रकारिता की। इसके बाद जोधपुर के दैनिक भास्‍कर में ब्‍यूरो चीफ बन कर पाली मारवाड़ पहुंचा। वहां भी दो-चार दिनों में ही अपना डंका बजाया। पूरे राजस्‍थान में। मृणाल पांडेय और शशांक शेखर त्रिपाठी के आदेश पर मैं वाराणसी के दैनिक हिन्‍दुस्‍तान पहुंचा। इसके पांच साल बाद लौट कर फिर लखनऊ आ गया। महुआ न्‍यूज चैनल का यूपी ब्‍यूरो चीफ बन गया।

मैं पांच साल पहले ही मैंने महुआ न्‍यूज चैनल से इस्‍तीफा दिया था। फिर गोपाल कांड़ा के एसटीवी और हरियाणा न्‍यूज में नौकरी की। मुझे सन-2012 को नौकरी छोड़नी पड़ी। सम्‍पादक विवेक अवस्‍थी ने मुझ पर पेड-न्‍यूज के लिए दबाव बनाया तो मैंने तपाक से जवाब दे दिया कि मैं पत्रकार हूं, तुम्‍हारी तरह दलाल नहीं, जो पत्रकारिता को तबाह कर रहा है।

इसके बाद तय किया कि अब किसी के सामने नौकरी की भीख नहीं मांगूंगा। सब कुछ भी हुआ, लेकिन कभी भी कोई समझौता नहीं किया। केवल खबर, और खबर के अलावा कुछ भी नहीं। लालच केवल बेहतर खबर खोजने का और उसे सलीके से सब के सामने परोस देना। ठीक उसी तरह जैसे कोई कुशल गृहणी भोजन परोसती है। इसके अलावा कोई भी लालच नहीं। मेहनत से जो मिले, वह मेरा। बाकी सब विष्‍ठा-समान। मैंने अपने पूरे जीवन में आधे से ज्यादा वक्त बेरोजगारी में बिताया लेकिन शिकायत कभी नहीं की। मैं ही नहीं, पूरा परिवार भी भूख रहा है। फ़ीस तक की हैसियत अक्सर नहीं रहती थी।

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अपनी इसी जीवन शैली और अपने दायित्‍वों के चलते मैंने किसी से कोई भी समझौता नहीं किया। चाहे वह मुख्‍य सचिव रहे आलोक रंजन ही क्‍यों न रहे हों। वह चाहे कोई दिग्‍गज नेता रहा हो या फिर कोई आला अफसर। कोई व्‍यवसायी रहा हो या फिर भले कोई दलाल। दलाल पत्रकारों से तो मुझे खासी चिढ़ है। मैं किसी गधे को सहन कर सकता हूं, लेकिन किसी दल्‍ले-भांड़ पत्रकार को हर्गिज नहीं। उ नसे खास चिढ़ है जो लिखने की तमीज तो धेला भर नहीं रखते, लेकिन शराब पीकर सड़क पर पिटना अपना धर्म समझते हैं। जो भी खबर है, उसे जग-जाहिर करना मेरा जिम्‍मा है। इसके लिए मैं सजग हूं, सतर्क हूं।

इसीलिए मैंने अपने नौकरी का इरादा छोड़ दिया, और पूरी तरह स्‍वतंत्र पत्रकारिता में आ गया। मैं इसे मुक्‍त पत्रकारिता कहता हूं, साथ ही यह भी मानता हूं कि यही असली धाकड़ पत्रकारिता है। जिसमें आप अपने दिल-दिमाग को किसी दूसरे के इशारे पर न नचा पायें। उसे स्‍वतंत्र तरीके से देखने-सोचने की क्षमता रख सकें।

इसीलिए मैंने अपना पोर्टल शुरू किया, मेरी बिटिया डॉट कॉम। बावजूद इसके कि मेरे सामने संकट भारी हैं, लेकिन हौसले बेहिसाब। बुलंद।

लेकिन खतरे भी बेशुमार हैं। मसलन, सबसे बड़ा खतरा तो मेरे भोजन का है। कहां और कैसे खाऊंगा। कैसे रहूंगा। कैसे भागदौड़ करूंगा। पोर्टल का खर्चा भी भारी है। उस पर फोन, मोबाइल, इंटरनेट और गाड़ी की पेट्रोल वगैरह का खर्चा। कहीं बाहर जाना हो तो कैसे जाऊंगा। इतना पैसा कैसे लाऊं।

इसके बाद दूसरी श्रेणी का खतरा भी देख लीजिए। जब मैं खरी-खरी बात कहता हूं तो मेरे ढेर सारे दुश्‍मन बन जाते हैं। कोई धमकी देते हैं कि जान से मार दूंगा, गोली मार दूंगा, सडक पर एक्‍सीडेंट कराके तुझे कुत्‍ते की मौत मारूंगा, जेल में सड़ा दूंगा। इन सब से भी नहीं डरता तो फिर कोर्ट की नोटिसें आया करती हैं, जिनमें अदालत आना-जाना भागा-दौड़ी बेहद श्रमसाध्‍य कर्म है। वकील ओर अदालतों का खर्चा अलग से। बडा सिरदर्द है।

पत्रकारिता ही नहीं, राजनीति, नौकरशाही समेत समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में मेरे कई “मित्र” और गिरोह हैं, जो मुझे नेस्‍तनाबूत कर देने पर आमादा हैं। हालांकि अभी तक यह लोग अपने ऐसे मकसद में सफल नहीं हो पाये हैं, लेकिन मुझे परेशान की खासी कोशिशें लगातार करते ही रहते हैं। जाहिर है कि मेरे प्रति उनकी ऐसी प्रतिकूल कोशिशों का एक नुकसान मेरे आर्थिक ढांचे को भुगतना पड़ता है।

ऐसे में अब तक तो मैं बिलकुल अकेला ही जूझता रहा हूं। मगर अब सोचता हूं कि आप सब से सहयोग मांगूं। क्‍यों न मांगूं? आखिरकार मैं इसी समाज का जिम्‍मा हूं। जब इस समाज के प्रति मेरे सशक्‍त दायित्‍व हैं तो फिर समाज का भी तो यह दायित्‍व है कि समाज मेरे के प्रति अपना दायित्‍व पूरा करे। यह समाज की जिम्‍मेदारी है कि जो शख्‍स समाज के लिए कुछ ठोस कर रहा है, जिसकी आवाज बन रहा है, जिस तक सूचनाएं पहुंचा रहा है, जिसको अपना माध्‍यम बना रहा है, तो फिर उसे अपने पालन-पोषण का अधिकार भी दिया जाए। अगर आप लोग ही ऐसा नहीं करेंगे, तो फिर तो पत्रकारिता हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म हो जाएगी।

इसके लिए मेरे पास कुछ तर्क भी हैं। वह यह कि आप अखबार पढ़ते हैं न, उसमें कितनी खबरें आप पढ़ते हैं। मेरा दावा है कि ज्‍यादातर खबरें दलाली से भरी, मूर्खता से भरी और अखबार मालिकों की जेब भरने के लिए विज्ञापन जुटाने की कोशिशों के तहत होती हैं। जिसके लिए आप हर महीने अनिवार्य भुगतान करते हैं। जबकि मैं आप तक नि:शुल्‍क पहुंच रहा हूं। हम जितना भी खबर आप तक भेज रहे हैं, वह न केवल नि:शुल्‍क है, बल्कि मौलिक, धरातलीय और पठनीय भी है। हमारे और आपके बीच सीधा संवाद-बातचीत हो सकती  है, जबकि अखबार या चैनल में यह हो पाना मुमकिन नहीं। हम आप पर कोई अनिवार्य आर्थिक बोझ भी नहीं डाल रहे।

केवल इतना चाहते हैं कि आप अगर चाहें और आपसे यदि मुमकिन हो, तो आप हमारे इस www.meribitiya.com प्रयास को सहारा दें। www.meribitiya.com को आर्थिक सहयोग कीजिए, और इस तरह www.meribitiya.com को इतना सक्षम बना दीजिए कि यह आपकी आवश्‍यकताओं में एक बन सके।

फिलहाल तो मैं केवल अकेले ही इस मोर्चे पर हूं। वन मैन आर्मी। आप सहयोग करेंगे तो www.meribitiya.com एक प्रभावशाली ढांचा बन सकता है।

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आपके सहयोग की कोई सीमा नहीं होगी, जिसकी जो श्रद्धा हो, 10, 20, 50, 100 या उससे ज्‍यादा, जो भी मुमकिन हो। अपनी क्षमता नहीं, आपकी इच्‍छा के अनुसार कीजिएगा। आप चाहें तो एकमुश्‍त करे या फिर मासिक सहयोग कर दें।

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