बेटी की शादी की तैयारियां, यानी एक असहाय बच्‍चे की गुडि़या छीन लेना

मेरा कोना

: बेटी की विदाई की तैयारियां किसी बाप की जिन्‍दगी पर कितनी भारी पड़ती हैं, कल्‍पना से परे : यह फेंकना, वह तोड़ना, वह उछालना, वह मरोड़ना। कितना नुकसान होगा, कितना नष्‍ट होगा : कभी रोने पर आमादा, तो कभी डबडबाई आंखों से टपकने पर आमादा आंसू, केवल रूदन-क्रंदन :

कुमार सौवीर

लखनऊ : जरा उस भोले-से मासूम बच्‍चे की हालत समझने की कोशिश कीजिए, तो आपकी आंखों में आंसू निकल पड़ेंगे। ऐसा बच्‍चा, जिसे एक गुडि़या छीन लिये जाने का खतरा तय हो चुका हो। प्‍यारी सी गुडि़या, जिस पर वह अपनी सौ-हजार-लाख करोड़-अरब, असंख्‍या जान न्‍यौछावर देने पर आमादा हो। लेकिन आज वह निरीह, असहाय और बेबस हो। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा हो उसके मगज में। छटपटाहट भी उसकी किस्‍मत में छीनी जा चुकी हो। वह हिल-डुल भी नहीं हो पा रहा हो। सिर्फ निर्निमेष आंखों में टुकुर-टुकुर ताक रहा हो, जहां पलकों के भीतर से उमड़ कर घनेरे कुहासा-सा जाला पड़ा हो, पूरी तरह पक चुके मोतियाबिन्‍द की ही मानिन्‍द।

आज मैं भी उसी मुकाम पर हूं। उम्र भले ही आज मेरी जिन्‍दगी में उचक कर तिमंजिले से उप्‍पर दौड़ती दिख रही हो, लेकिन मन लगातार बाल-हठ पर ही आमादा है। कभी झुंझलाता है, कभी गुस्‍सा, कभी चिड़चिड़ाहट से भरा हुआ। कभी रोने पर आमादा, तो कभी डबडबाई आंखों के कगारों से टपकने पर आमादा आंसुओं से बेफिक्र, केवल रूदन, केवल क्रंदन पर आमादा हो। यह फेंकना, वह तोड़ना, वह उछालना, वह मरोड़ना। कितना नुकसान होगा, कितना नष्‍ट होगा। तनिक भी यह नहीं सोचता हो कि आसपास के लोग क्‍या सोचेंगे, क्‍या मानेंगे।

भाड़ में जाएं लोग। मुझे इसकी फिक्र नहीं है। मुझे तो सिर्फ अपनी छोटी बेटी साशा सौवीर को लेकर चिन्‍ता है, जिसकी मंगनी कल ही निपटा कर आया हूं। कई महीनों पहले ही तय किया था कि अब शराब नहीं पियूंगा। लेकिन क्‍या करूं। बार-बार फफक-फफक कर रोता ही रहा। हिचकियां आती रहीं। एक के बाद एक। एक्‍सटेम्‍पॉर। अनवरत, अनियमित। बड़ी बेटी बकुल मुझे अपनी बाहों में लिपटाये ही रखी। थपकी देते हुए, जैसे कोई मां अपने मां को दुलराता हो, मनाता हो।

समझ में ही नहीं आ पा रहा है, कि मैं क्‍या करूं या मुझे क्‍या-क्‍या करना चाहिए। यह भी कि मुझे क्‍या-क्‍या नहीं करना चाहिए। साशा तो अतिशय व्‍यस्‍त हैं, बकुल मेरी मां की भूमिका में हैं। बकुल बता रही हैं, उत्‍साह दिला रही हैं। कभी हल्‍के गुस्‍से में आंखें तरेर कर इशारा कर रही है कि:- उंह पापा। डोंट डू इट, ठीक से बैठो। उधर नहीं, इधर। हां, ऐसे। लाओ, मैं पर कंघी कर दूं। शर्ट तो बदल देते पापा। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर बता देते तो मैं ही कर देती। जूतों की पॉलिश कर दूंगी, डोंट वरी। अब तनाव मत लीजिए, ठीक से बैठिये। सब ठीक हो जाएगा। बी नार्मल पापा, नार्मल यार।

बहुत अराजक जीवन-शैली में जीता रहा हूं मैं। मेरे जीवन की जरूरतों और उनकी नियति की सख्‍त जरूरतों के मुताबिक। नतीजा यह रहा कि मैं भी खुद अराजक हो गया। ब्रेन-स्‍ट्रोक ने मुझे बहुत झकझोरा। वह तो गनीमत थी कि मैं मजबूत था, वरना उसी वक्‍त खर्च हो चुका होता। लेकिन ओवर-कम करना मेरी जिजीविषा का नतीजा रहा। हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया…

लोग-बाग लाख बहाने दें, दिलासे दें। लेकिन सच तो यही है कि बेटी तो शादी के बाद अपनी कहां रह पाती है। उसकी अपनी जिन्‍दगी, उसकी याद, उसका अलगाव। और उससे ज्‍यादा दर्दनाक होती हैं उसकी यादें, स्‍मृतियां, जो बार-बार रूला देने पर आमादा होती हैं।बेटी चाहे किसी की भी क्‍यों न हो, मैं किसी की भी विदाई को नहीं सहन पाता हूं। बेसाख्‍ता हिचकियां बंध जाती हैं, अश्रुधारा बह निकल पड़ती है।

साशा, एक ऐसा नाम और शख्सियत, जो बकुल के साथ ही साथ मेरी जिन्‍दगी का असल और सम्‍पूर्ण-सर्वांगीण मतलब है। कितने ही सपने बुने हैं मैंने उसको लेकर, कोई सोच तक नहीं सकता। किसी कुशल बुनकर की तरह, लेकिन नियति हमेशा उसके धागे तोड़ती ही रही है। एक, सौ नहीं, हजारों नाम रखा था मैंने साशा और बकुल के। लेकिन मजाल, कि किसी के भी नाम पर कोई दूसरा जवाब दे देता। सब के सब सतर्क। कम से कम मेरे उच्‍चारण तक।

हर बार उसकी याद आती है, और हर बार उसकी याद में आंखें बरस पड़ती हैं।

और गनीमत है कि आज तो अभी उसकी मंगनी ही निपटी है। शादी के बाद क्‍या कहर टूटेगा, बाप रे बाप !!!!!

काश, उस वक्‍त के बाद मैं भी खामोश हो जाऊं।

हमेशा-हमेशा के लिए।

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