: सूचना विभाग में निरोधात्मक-कार्रवाई का अनुवाद हुआ था कण्डोमाइज्ड-एक्शन : इलाहाबाद ही नहीं, अंग्रेजी के अधिकांश पत्रकार बकैती का कींचड़ पोते चूतियापंथी वाली पत्रकारिता करते हैं : परचून का लाइम और फिर लेमन के रास्ते नींबू-पानी की अमर-गाथा सुनिये :
कुमार सौवीर
लखनऊ : आज हम आपको इलाहाबाद ले चलते हैं। महान साहित्कार महादेवी वाले शहर। जी हां, उपेंद्र नाथ अश्क भी वहीं रहते थे। तो आज हम आपको दिखाते हैं कि अश्क जी के बहाने पत्रकारों की जाहिली, और अंग्रेजी पत्रकारों की पोंकाई। लेकिन उसे समझने के लिए आपको पहले उप्र सूचना विभाग के लोगों का पाजामा के नाड़े खोलना पड़ेगा। तरीका है यूपी का सूचना विभाग की कार्यशैली यानी चूतियापन्थी वाली इलाहाबादी बकैती।
खैर, यह बताइये कि यूपी सूचना विभाग को आप क्या समझते हैं। अरे यहां के लोगों ने तो कितने झण्डे झाड़े हैं कि आप सोच तक नहीं सकते। बस इशारा कर दें कि यूपीएससी की परीक्षाओं को लेकर जो झंझट चल रहा है, उसकी देन है सूचना विभाग। यहां के ट्रांसलेशन का धांसू फंडा तो किसी को भी चारों-चित्त कर देता है। मसलन आम आदमी का अनुवाद मैंगो-पीपल। इससे भी मन न भरा हो तो सीधे निरोधात्मक कार्रवाई को अनुवाद करते देख लीजिए। सूचना विभाग के वरिष्ठ अधिकारी रहे राजीव दीक्षित बताते हैं कि इस शब्द का अनुवाद यहां के कर्मचारियों ने किया था:- कण्डोमाज्ड एक्शन। बर्थ-कंट्रोल में प्रयुक्त होने वाले और इस सरकारी अभियान के चलते हर सरकारी अस्पताल में मुफ्त में बांटे जाने वाले सरकारी निरोध एक तरफ रख दीजिए। अंग्रेजी में निरोध को कण्डोम कहा जाता है। अब फिर यह देखिये कि निरोध यानी कण्डोम का इस्तेमाल किस तरह सरकारी निरोधात्मक कार्रवाई में जन-सामान्य तक समझाया जा सकता है।
तो मेरे दोस्त, अनुवाद के लफड़े इलाहाबाद में भी खूब आग लगा देते है। यहां के अनुवाद की ही तरह, जिसे उपेंद्र नाथ अश्क जी ने बोया, सड़ाया, छीला, काटा और गंधवाया भी खूब। साहित्यशील लोगों के पास और भले और न रहा हो, लेकिन वे साहित्य का शील-हरण, जब भी जी चाहे-माने, जरूर कर सकते हैं।
तो, आपको जरा जल्दी-जल्दी से बता दूं कि लफड़ा क्या था।
हुआ यह कि आज आकाशवाणी के एक पत्रकार हैं सुनील शुक्ला ( अरे यार अभी तक है आकाशवाणी के इलाहाबाद स्टेशन में ), जो उस जमाने में अमृत प्रभात के रिपोर्टर हुआ करते थे। एक दिन वे अश्क जी के घर अश्क जी के घर पहुंचे। बाहर ही बैठै थे, बातचीत शुरू हो गयी। अश्क जी को एक पुराना शौक था, अपनी घर की दयनीय हालत का रोना-धोना का। चर्चा शुरू हो गयी तो अचानक उन्होंने कहा कि दिन बहुत खराब आ गये हैं, सो अब सोचता हूं कि अब कोई धंधा शुरू कर दूं।
यह सुनते ही सुकुल जी की बुद्धि सनाका खाय गयी। कहां लेखन, और कहां यह बनियागिरी। दिमाग में घंटी बजने लगे, साफ लगा कि आज कुछ न कुछ मस्त खबर निकलेगी। सवाल उछाल दिया:- तो अब क्या सोच रहे हैं? मेरा मतलब कौन सा धंधा शुरू करेंगे आप?
अश्क जी बोले:- कोई भी। आर्थिक संकट है, मुश्किल से घर चल रहा है। ऐसे में दोस्तों के सामने हाथ फैलाऊंगा। छोटा-मंदा धंधा ही करूंगा। करने को तो कोई परचून की दूकान भी खोली जा सकती है।
सुनते ही सुनील शुक्ला का दिल बल्लियों उछलने लगा। झन्नाटेदार खबर हाथ लग चुकी थी। सुकुल जी की तोंद के चलते उनकी पैंट ढोंढ़ी के नीचे तक फलफला पड़ती है न, इसलिए पैंट के भीतर ढीली होती जांघिया को ऊपर घिसटाते हुए सुकुल जी दफ्तर की ओर भागे। बर्निंग और ब्रेकिंग हाथ लग चुकी थे। आनन-फानन खबर लिख मारी। हेडिंग लगी परचून की दूकान खोलने पर आमादा हैं अश्क जी। लो जी, छप गयी खबर, टनाटन्न।
अगले दिन बाकी पत्रकार तो खबर की फालोअप में जुट गये, जबकि अंग्रेजी के पत्रकारों ने पुरानी खबर को ही फ्लैश करना शुरू कर दिया। लेकिन अंग्रेजी लीलने और हिन्दी को लेकर कांस्टिपेशन से पीडि़त अंग्रेजी पत्रकारों का इस फरागत में दिक्कत यह हुई कि परचून का ट्रांसलेशन क्या हो सकता है। अब चूंकि को चूतियों के भी तो चार कान होते हैं ना, इसीलिए समाधान मिल गया। हिन्दी की बासी खबर को ब्रेकिंग-न्यूज की तरह फ्लैश किया गया, कि लाइम-स्टोर खोलेंगे अश्क।
अश्क जी भी मस्त हो गये। परचून की दूकान खोलते तो घर बार में चूहे कूदते, अब सस्ते में काम निपट जाएगा। हिन्दी की झंटिहल शोहरत की जगह, अब उनका बोर्ड अंग्रेजी के हिसाब से दमकता रहेगा, इसी मुंगेरी-दिवास्वप्न में उड़ते अश्क जी को जो भी अण्ट-शण्ट बयान हो सकते थे, पोंक दिया। अंग्रेजी के अखबारों को फाड़ कर सेनिटरी-पैड इस्तेमाल करने वाले हिन्दी के पत्रकारों ने लाइम का अनुवाद लेमन की तरह समझा और एक नयी खबर चांप दी गयी। एक फ्लैश उड़ा कि अश्क लाइम स्टोर नहीं, नींबूं पानी का धंधा शुरू करेंगे।
लेकिन अगले दिन तो जैसे अश्क जी की लॉटरी ही खुल गयी। फिर क्या था, प्रसिद्धि के नव-यौवन से गदगदाये का दिल बाग-बाग होने लगा। फिर क्या था, अश्क जी ने अपने कबाड़ में पड़ी एक टुटही मेज पर एक फटही चादर बिछायी और पुराने दो शीशे के ग्लास और साथ में चार-छह नींबू लटकाने के बाद दूकान समेत अपनी फोटो खिंचवाकर अखबारों में छपवा दिया।
लोग बताते हैं कि नींबू-पानी तो नहीं बिक पाया, लेकिन उसके चक्कर में अश्क जी की झोली में अनुदान झरझरा कर पहुंच गया।