बनारस को बेच डाला पप्‍पू की अड़ी पर बकलोली करने वाले बकवादियों ने

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: गंगा स्नान के बाद बिना जांघिया के पारदर्शी अंगोछा लपेटे बनारसी : पप्‍पुआ तो सुशील त्रिपाठी जैसी बड़ी शख्सियतों की फोटो लगा कर पब्लिक को झांटू चाय  बेचता है : क्‍या त्रिलोचन शास्‍त्री, क्‍या योगेश गुप्‍ता या फिर काशीनाथ सिंह या दिनेश सेठ :

कुमार सौवीर

अड़भंगियों की नगरी : बनारस में काम नहीं होता, होता है तो सिर्फ बकवाद। लेकिन ऐसा नहीं कि बनारस का हर शख्स बकवादी ही होता हो। कामधाम वाले और गम्भीर किस्म की प्रजाति भी बनारस में पायी जाती है। लेकिन बस जैसे ही वे कामधाम टाइप काम-चलाऊ हो जाते हैं, सीधे बनारस को छोड़कर किसी दूर-दराज के देस की ओर कूच कर देते थे। बाकी लोग, अरे बताया तो बनारस में बकवादी ही रहते है भइया। मसलन, काशी पत्रकार संघ के नेता योगेश गुप्ता। पहले गुप्ता थे, अब पता चला कि हैदराबाद पहुंच गये, वाया सतना में श्रीनेत्र के गुप्त हो चुकने के बाद।

तो भइया, ऐसे ही बकवादी लोगों को काशी विश्वविद्यालय के जन-सम्पर्क विभाग के अध्यक्ष रहे विश्वनाथ पाण्डेय जो शब्द इस्तेमाल करते हैं, उसे अगर आप सुन लीजिए तो आपके कानों की लवें ही आग लग जाएंगी।

वैसे तो पूरी वाराणसी के हर चौराहे-तिराहे पर चाय की दूकानों में चौपालनुमा अड़ी जमती है। लेकिन काशी की अस्सी पर अपनी अड़ी लगाये पप्पू को बकवादियों को पालने का खूब शौक और महारत हासिल है। धंधा है चाय बेचने का, मगर दूकान पर सुशील त्रिपाठी समेत न जाने किस-किस की फोटो लगा दी है। यह साबित करने के लिए:- “जिया राजा, हमहूं बुधीजीवीं हव्वैं।” छह रूपये में दो कौड़ी की चाय बेचने वाले पप्‍पू के कर्मचारी का चेहरा देखना छोड़कर जब आप बकवादियों की बकवादी पर गम्भीरता देखना चाहेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि आखिर काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी में गालियों की जरूरत इतनी शिद्दत के साथ क्यों मौजूद है। ऐसी-ऐसी गालियां क्यों है काशी की बोलचाल में, जिसे बनारस की महिलाएं तो दूर, ऐसे ही रचनाकर्मियों के घर में भी अगर खुलेआम वे खुद बोलना चाहें तो चांद गंजी हो जाएंगी।

खैर, काशीनाथ सिंह की रचना के कई गजब पहलुओं को अता फरमाया किया है फोटोग्राफर दिनेश सेठ ने। अब यह दीगर बात है कि दिनेश सेठ बोलते हैं और मानस मंदिर वाले त्रिलोचन शास्त्री जी उसका खण्डन करते नहीं थकते। सेठ की कल्पनाएं बेहिसाब हैं। अतिरंजना तक के स्तर तक पर भी। मसलन, भांग कैसे इतनी पीसी जाए कि सिल पर लोढ़ा चपक जाए कि सौ लोग न छोड़ पायें। किस तरह एक पहलवान गंगा स्नान के बाद बिना जांघिया के पारदर्शी अंगोछा को लपेट कर जैसे ही अपनी माशूक तवायफ के दरवाजे पर पहुंचा, तवायफ तो बेहाल हो गयी और इतना ही मदमस्त हो गयी वहीं पर चू गयी। लेकिन पहलवान भी कम नहीं थे, उन्होंने अपने दाहिनी हथेली फैला कर तवायफ से इशारा किया कि:- राजा, डांस तो तुमको यहीं करना पड़ेगा।

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